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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 88
    ऋषिः - गृत्समद ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    घृ॒तं मि॑मिक्षे घृ॒तम॑स्य॒ योनि॑र्घृ॒ते श्रि॒तो घृ॒तम्व॑स्य॒ धाम॑। अ॒नु॒ष्व॒धमाव॑ह मा॒दय॑स्व॒ स्वाहा॑कृतं वृषभ वक्षि ह॒व्यम्॥८८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घृ॒तम्। मि॒मि॒क्षे॒। घृ॒तम्। अ॒स्य॒। योनिः॑। घृ॒ते। श्रि॒तः। घृ॒तम्। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। अ॒स्य॒ धाम॑। अ॒नु॒ष्व॒धम्। अ॒नु॒स्व॒धमित्य॑नुऽस्व॒धम्। आ। व॒ह॒। मा॒दय॑स्व॒। स्वाहा॑कृत॒मिति॒ स्वाहा॑ऽकृतम्। वृ॒ष॒भ॒। व॒क्षि॒। ह॒व्यम् ॥८८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घृतम्मिमिक्षे घृतमस्य योनिर्घृते श्रितो घृतम्वस्य धाम । अनुष्वधमावह मादयस्व स्वाहाकृतँवृषभ वक्षि हव्यम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    घृतम्। मिमिक्षे। घृतम्। अस्य। योनिः। घृते। श्रितः। घृतम्। ऊँऽइत्यूँ। अस्य धाम। अनुष्वधम्। अनुस्वधमित्यनुऽस्वधम्। आ। वह। मादयस्व। स्वाहाकृतमिति स्वाहाऽकृतम्। वृषभ। वक्षि। हव्यम्॥८८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 88
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    भावार्थ -
    पूर्वोक्त 'पर्जन्य' पद की मेघ से और भी तुलना करते हैं । वह उक्त मेघ ( घृतम् मिमिक्षे ) जल का सेचन करता है । और ( अस्य ) उसका ( घृतम् योनिः ) जल ही मूलकारण है । वह ( घृते श्रित: ) उदक में ही आश्रित है । ( अस्य धाम घृतम् उ ) उसका जन्म, वर्षण कर्म और स्वरूप ये तीनों भी जल ही है । और हे पर्जन्य ! रसों को प्रजा पर बरसा देने वाले ! तू ( अनु-स्वधम् ) जल के ही साथ बहुत सी अन्नादि सम्पत्ति को ( आवह ) प्राप्त कराता है और ( मादयस्व ) सबको तृप्त करता है । हे ( वृषभ ) जलों के वर्षण करने हारे! तू ( स्वाहा-कृतम् ) यज्ञाग्नि में आहुति किये या अपने में उत्तम रीति से धारण किये जल से उत्पादित ( हव्यम् ) अन्न को ( वक्षि ) प्रजा को प्रदान करता है । इसी प्रकार हे राजन् ! तू मेघ के समान उच्च पद पर विराजमान होकर ( घृतं मिमिक्षे ) अग्नि के समान तेज और मेघ के समान सुख और स्नेह का वर्षण कर । ( अस्य ) इस अग्नि का जिस प्रकार घृत ही आश्रय है उसी प्रकार तेरा भी आश्रय स्थान 'घृत' तेज ही है | तू ( घृतश्रितः ) अपने तेज में आश्रित होकर रह । ( घृतम् अस्य धाम ) इस राजपद का धाम तेज या धारण सामर्थ्य या स्वरूप भी 'तेज', पराक्रम ही है। ( अनुष्वधम् ) अपनी धारण शक्ति के अनुसार ही इस राष्ट्र के कार्य भार को ( आवह) उठा । ( मादयस्व ) स्वयं समस्त प्रजाओं को तृप्त कर ( स्वाहा कृतम् ) सुखपूर्वक प्रदान किये ( हव्यम् ) कर आदि पदार्थों को हे ( वृषभ ) प्रजा पर सुखों के वर्षक राजन् ! ( वक्षि ) तू स्वयं प्राप्त कर और अपने अधीन भृत्यों को दे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गृत्समद ऋषिः । अग्निर्देवता । निचृदार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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