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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 87
    ऋषिः - सप्तऋषय ऋषयः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    इ॒मꣳ स्तन॒मूर्ज॑स्वन्तं धया॒पां प्रपी॑नमग्ने सरि॒रस्य॒ मध्ये॑। उत्सं॑ जुषस्व॒ मधु॑मन्तमर्वन्त्समु॒द्रिय॒ꣳ सद॑न॒मावि॑शस्व॥८७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम्। स्तन॑म्। ऊर्ज॑स्वन्तम्। ध॒य॒। अ॒पाम्। प्रपी॑न॒मिति॒ प्रऽपी॑नम्। अ॒ग्ने॒। स॒रि॒रस्य॑। मध्ये॑। उत्स॑म्। जु॒ष॒स्व॒। मधु॑मन्त॒मिति॒ मधु॑ऽमन्तम्। अ॒र्व॒न्। स॒मु॒द्रिय॑म्। सद॑नम्। आ। वि॒श॒स्व॒ ॥८७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमँ स्तनमूर्जस्वन्तन्धयापाम्प्रपीनमग्ने सरिरस्य मध्ये । उत्सञ्जुषस्व मधुमन्तमर्वन्त्समुद्रियँ सदनमाविशस्व ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इमम्। स्तनम्। ऊर्जस्वन्तम्। धय। अपाम्। प्रपीनमिति प्रऽपीनम्। अग्ने। सरिरस्य। मध्ये। उत्सम्। जुषस्व। मधुमन्तमिति मधुऽमन्तम्। अर्वन्। समुद्रियम्। सदनम्। आ। विशस्व॥८७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 87
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    भावार्थ -
    हे ( अग्ने ) अग्ने अग्रणी नायक ! तेजस्विन् ! तू ( सरिरस्य मध्ये ) आकाश के बीच में ( अपां प्रपीनम् ) जलों से परिपूर्ण ( इमं ) इस ( ऊर्जस्वन्तम् ) अन्न और बलकारी ( स्तनम् ) स्तन के समान रसों का बहाने वाले एवं घोर गर्जनाकारी ( उत्सं ) कूप के समान अनन्त जल देने वाले ( मधुमन्तम् ) परिमाण में अन्नादि मधुर पदार्थों के देने वाले ( समुद्रियम् ) समुद्र से उत्पन्न मेघ के समान ( सरिरस्य मध्ये ) बड़े भारी व्यापक राष्ट्र के बीच में ( अपां प्रपानम् ) आप्त प्रजाओं से पुष्ट, ( ऊर्जस्वन्तम् ) बल पराक्रम और अन्नादि से सम्पन्न ( उत्सम् ) उत्तम फलों के दाता ( मधुमन्तम् ) अन्नादि मधुर पदार्थों से युक्त, ( समुद्रियम) समुद से घिरे अथवा नाना सम्पत्तियों के उत्पादक ( स्तनम् ) स्तन के समान मधुर आनन्द रसदायक अथवा सब सुखों के आधार रूप इस उत्तम राष्ट्र को ( धय ) बालक के समान शान्ति से भोग कर । हे ( अर्वन्) अश्व के समान वेगवान् साधनों से सम्पन्न तू ( समुद्रियं सदनम् ) समुद्र के समान गंभीर इस सम्राट् पद को ( विशस्व ) प्राप्त कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निर्देवता । आर्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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