यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 31
ऋषिः - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः
देवता - विश्वकर्मा देवता
छन्दः - भुरिगार्षी पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
1
न तं वि॑दाथ॒ यऽइ॒मा ज॒जाना॒न्यद्यु॒ष्माक॒मन्त॑रं बभूव। नी॒हा॒रेण॒ प्रावृ॑ता॒ जल्प्या॑ चासु॒तृप॑ऽउक्थ॒शास॑श्चरन्ति॥३१॥
स्वर सहित पद पाठन। तम्। वि॒दा॒थ॒। यः। इ॒मा। ज॒जान॑। अ॒न्यत्। यु॒ष्माक॑म्। अन्तर॑म्। ब॒भू॒व॒। नी॒हा॒रेण॑। प्रावृ॑ताः। जल्प्या॑। च॒। अ॒सु॒तृप॒ इत्य॑सु॒ऽतृपः॑। उ॒क्थ॒शासः॑। उ॒क्थ॒शस॒ इत्यु॑क्थ॒ऽशसः॑। च॒र॒न्ति॒ ॥३१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
न तँविदाथ यऽइमा जजानान्यद्युष्माकमन्तरम्बभूव । नीहारेण प्रावृता जल्प्या चासुतृपऽउक्थशासश्चरन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठ
न। तम्। विदाथ। यः। इमा। जजान। अन्यत्। युष्माकम्। अन्तरम्। बभूव। नीहारेण। प्रावृताः। जल्प्या। च। असुतृप इत्यसुऽतृपः। उक्थशासः। उक्थशस इत्युक्थऽशसः। चरन्ति॥३१॥
विषय - अवर्णनीय राजा का रूप ।पक्षान्तर में परमेश्वर का वर्णन ।
भावार्थ -
राजा के पक्ष में - हे प्रजाजनो ! ( तं न विदाथ ) तुम लोग उसको नहीं जानते, नहीं देखते ( यः इमा जजान ) इन समस्त राज्यकार्यों को प्रकट करता है । ( अन्यत् ) और वह ( युष्माकम् ) तुम लोगों के ही ( अन्तरं ) बीच में ( बभूव ) रहता है । ( जल्प्या ) केवल बातें कहने वाले ( असुतृपः ) प्राणमात्र लेकर सन्तुष्ट रहने वाले ( उक्थशासः )राजाज्ञा के अनुसार शासन करने वाले लोग भी ( नीहारेण प्रावृताः ) मानो कोहरे में छिपे हुए के समान होकर विचरते हैं । वे भी राजा के परम पद को भली प्रकार नहीं जानते हैं। वे केवल अपने वेतन या प्राण वृत्ति से ही तृप्त रहते हैं ।
ईश्वर के पक्ष में - हे मनुष्यो ! ( यः इमा जजान ) जो इन समस्त लोकों को पैदा करता है ( तं न विदाथ ) तुम लोग उसको नहीं जानते । ( अन्यत् ) वह और ही तत्व है जो सब से भिन्न होकर भी ( युष्माकम् अन्तरं ) तुम लोगों के भी बीच में ( बभूव ) व्यापक है। ( नीहारेण प्रावृता: ) कोहरे या धुन्ध से घिरे हुए पुरुषों के समान दूर तक न देखने वाले लघु दृष्टि होकर ( जल्प्या ) केवल मौखिक वार्तालाप या वाद विवाद में ही लिपटे हुए होकर केवल ( असुतृपः ) प्राण लेकर हीं तृप्त होने वाले, ( उक्थशास: ) ज्ञान के योग्य तत्व का अनुशासन करने वाले बन कर ( चरन्ति ) विचरते हैं । अर्थात् लोग उसके विषय शास्त्रों की बातें बहुत करते हैं, परन्तु साक्षात् नहीं करते।
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