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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 13
    ऋषिः - लोपामुद्रा ऋषिः देवता - प्राणो देवता छन्दः - निचृदार्षी जगती स्वरः - षड्जः
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    ये दे॒वा दे॒वानां॑ य॒ज्ञिया॑ य॒ज्ञिया॑ना संवत्स॒रीण॒मुप॑ भा॒गमास॑ते। अ॒हु॒तादो॑ ह॒विषो॑ य॒ज्ञेऽअ॒स्मिन्त्स्व॒यं पि॑बन्तु॒ मधु॑नो घृ॒तस्य॑॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये। दे॒वाः। दे॒वाना॑म्। य॒ज्ञियाः॑। य॒ज्ञिया॑नाम्। सं॒व॒त्स॒रीण॑म्। उप॑। भा॒गम्। आस॑ते। अ॒हु॒ताद॒ इत्य॑हुत॒ऽअदः॑। ह॒विषः॑। य॒ज्ञे। अ॒स्मिन्। स्व॒यम्। पि॒ब॒न्तु॒। मधु॑नः। घृ॒तस्य॑ ॥१३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये देवा देवानाँयज्ञिया यज्ञियानाँ सँवत्सरीणमुप भागमासते । अहुतादो हविषो यज्ञेऽअस्मिन्त्स्वयम्पिबन्तु मधुनो घृतस्य ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ये। देवाः। देवानाम्। यज्ञियाः। यज्ञियानाम्। संवत्सरीणम्। उप। भागम्। आसते। अहुताद इत्यहुतऽअदः। हविषः। यज्ञे। अस्मिन्। स्वयम्। पिबन्तु। मधुनः। घृतस्य॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 13
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    भावार्थ -
    ( ये ) जो ( देवानां ) दानशील, राजाओं में भी ( देवाः ) विद्या और ज्ञान के देने वाले उत्कृष्ट विद्वान् हैं और ( यज्ञियानां ) यज्ञ करने वालों के भी ( यज्ञियाः ) पूजनीय ज्ञान योगी और राष्ट्र संगति करने वाले व्यवस्थापकों में भी ( यज्ञियाः ) प्राणों के समान स्वयं संगति बनाने वाले विद्वान् महात्मा लोग हैं जो ( संवत्सरीणम् ) एक वर्ष के बाद प्राप्त होने वाले वार्षिक भेंट ( भागम् ) अन्न आदि ऐश्वर्य को अथवा वर्ष भर अपने भीतर पुष्ट किये अभ्यस्त ( भागम् ) सेवनोपासना योग्य ब्रह्मज्ञान या ब्रह्मचर्य की उपासना करते हैं वे ( यज्ञे ) इस राष्ट्रमय यज्ञ में भी ( अहुताद : ) राजा से दिये वेतन को भोग न करने वाले होकर ( अस्मिन् यज्ञे ) इस राष्ट्र रूप यज्ञ में ( मधुमतः ) अन्न और ( घृतस्य ) तेजोदायक पुष्टिकारक पदार्थों का ( स्वयं पिबन्तु ) स्वयं यथेच्छ उपभोग करें । शत० ९ । २ । १ । १४ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - लोपामुद्रा ऋषिका । प्राणा देवताः । आर्षी जगती । निषादः ॥

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