यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 93
ऋषिः - वामदेव ऋषिः
देवता - यज्ञपुरुषो देवता
छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
1
ए॒ताऽअ॑र्षन्ति॒ हृद्या॑त् समु॒द्राच्छ॒तव्र॑जा रि॒पुणा॒ नाव॒चक्षे॑। घृ॒तस्य॒ धारा॑ऽअ॒भि चा॑कशीमि हिर॒ण्ययो॑ वेत॒सो मध्य॑ऽआसाम्॥९३॥
स्वर सहित पद पाठए॒ताः। अ॒र्ष॒न्ति॒। हृद्या॑त्। स॒मु॒द्रात्। श॒तव्र॑जा॒ इति॑ श॒तऽव्र॑जाः। रि॒पुणा॑। न। अ॒व॒चक्ष॒ इत्य॑ऽव॒चक्षे॑। घृ॒तस्य॑। धाराः॑। अ॒भि। चा॒क॒शी॒मि॒। हि॒र॒ण्ययः॑। वे॒त॒सः। मध्ये॑। आ॒सा॒म् ॥९३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एताऽअर्षन्ति हृद्यात्समुद्राच्छतव्रजा रिपुणा नावचक्षे । घृतस्य धाराऽअभिचाकशीमि हिरण्ययो वेतसो मध्यऽआसाम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
एताः। अर्षन्ति। हृद्यात्। समुद्रात्। शतव्रजा इति शतऽव्रजाः। रिपुणा। न। अवचक्ष इत्यऽवचक्षे। घृतस्य। धाराः। अभि। चाकशीमि। हिरण्ययः। वेतसः। मध्ये। आसाम्॥९३॥
विषय - घृत की धाराओं का अध्यात्म, राज्य और जलधाराओं के पक्षों में योजना ।
भावार्थ -
राजा के पक्ष में - ( एताः घृतस्य धारा : ) ये तेज की धाराएं बल और शक्ति पूर्वक कही गयी आज्ञाएं या सेनाएं ( हृद्यात् ) प्रजा के हृदय में उत्पन्न, उनके चित्तों को रमाने वाले (समुद्रात्) समुद्र के समान गम्भीर राजा से ( अर्षन्ति ) निकलती हैं। और ( शतव्रजाः) सैंकड़ों मार्गों में जाने वाली या सैकड़ों कार्यों को चलाने वाली होकर ( रिपुणा ) बाधक शत्रु द्वारा भी ( न अवचक्षे ) रोकी या विरोध नहीं की जा सकतीं । उन ( घृतस्य ) तेज की या बल, वीर्य या अधिकार की बनी ( धाराः ) राष्ट्र के धारण या व्यवस्थापन में समर्थ धारारों को मैं ( अभिचाकशीमि ) सर्वत्र व्यापक देखता हूं और ( आसाम् मध्ये ) इनके बीच में ( हिरण्ययः वेतसः ) घृत-धाराओं के बीच अग्नि के समान सुवर्ण रूप कोषसम्पत्ति का बना अति कमनीय आधार रूप स्तम्भ हैं ।
अध्यात्म में - ( घृतस्य धाराः अभिचाकशीमि ) मैं द्रष्टा जिस प्रकार घृत की धाराओं का प्रवाहित होता देखूं और ( आसाम् ) इनके ( मध्ये ) बीच में जिस प्रकार ( हिरण्ययः वेतसः ) सुवर्ण के समान कान्तिमान् अग्नि हो उसी प्रकार ( एताः ) ये ( घृतस्य ) स्वयं क्षरण होने वाले अनायास बहने वाले या स्वयं प्रस्फुटित होने वाले झरनों के समान फूट निकलने वाली वाणियों का मैं ( अभि ) साक्षात् ( चाकशीमि ) दर्शन करता हूं। और ( आसाम् मध्ये ) इनके बीच में व्यापक ( हिरण्ययः ) अति सुन्दर तेजस्वी ( वेतसः ) अति कमनीय पुरुष या ब्रह्म तत्त्व है । ( एताः ) ये वाणियें ( हृद्यात् समुद्रात् ) हृदय के समुद्र से अथवा हृदय से जानने और अनुभव करने योग्य हृदय में बसे ( समुद्रात् ) समस्त ज्ञान जलों के बहाने वाले परम अक्षय ज्ञानभण्डार से ( अर्षन्ति ) निकलती हैं । वे ( शतव्रजाः ) सैकड़ों मार्गों में जाने वाली, सैकड़ों अर्थों वाली, बहुत से पक्षों में लगने वाली, श्लेष से बहुत से अभिप्राय बतलाने वाली होकर भी ( रिपुणा ) पापी शत्रु द्वारा भी ( न अवचक्षे ) खण्डित नहीं की जा सकतीं । अर्थात् वे सब सत्य वाणियें सत्य ज्ञान की धारायें हैं । इसमें संदेह नहीं ।
‘हृद्यात् ससुद्रात्' श्रद्धोदकप्लुताद् देवतायाथात्म्यचिन्तनसन्तानरूपात् समुद्रात् इति महीधरः ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋष्यादि पूर्ववत् ॥
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