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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 81
    ऋषिः - सप्तऋषय ऋषयः देवता - मरुतो देवताः छन्दः - आर्षी गायत्री स्वरः - षड्जः
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    ई॒दृङ् चा॑न्या॒दृङ् च॑ स॒दृङ् च॒ प्रति॑सदृङ् च। मि॒तश्च॒ सम्मि॑तश्च॒ सभ॑राः॥८१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ई॒दृङ्। च॒। अ॒न्या॒दृङ्। च॒। स॒दृङ्। स॒दृङिति॑ स॒ऽदृङ्। च॒। प्रति॑सदृ॒ङ्ङिति॒ प्रति॑ऽसदृङ्। च॒। मि॒तः। च॒। सम्मि॑त॒ इति॒ सम्ऽमि॑तः। च॒। सभ॑रा॒ इति॒ सऽभ॑राः ॥८१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ईदृङ्चान्यदृङ्च सदृङ्च प्रतिसदृङ्च । मितश्च सम्मितश्च सभराः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ईदृङ्। च। अन्यादृङ्। च। सदृङ्। सदृङिति सऽदृङ्। च। प्रतिसदृङ्ङिति प्रतिऽसदृङ्। च। मितः। च। सम्मित इति सम्ऽमितः। च। सभरा इति सऽभराः॥८१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 81
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    भावार्थ -
    ( इदृङ् ) यह ऐसा है, ( अन्यादृङ् च ) यह अन्य के समान है अर्थात् इसके समान और भी हैं, ( सदृङ् च ) यह और यह समान है । ( प्रतिसदृङ् च ) प्रत्येक पदार्थ इस अंश में समान है ( मित: च ) यह इतने परिमाण का है, ( समितः च) अच्छी प्रकार यह अमुक पदार्थ के बराबर ही परिमाण वाला है। ( सभराः ) ये सब पदार्थ समान भार वाले या समान वस्तु को धारण करते हैं। इस प्रकार सातों प्रकार से देखने वाले विद्वान् राजा के राज्य विभागों में कार्य करें। और उनके 'इर्दृङ्' आदि ही नाम हों । इसी प्रकार सात प्रकार से विवेचना करने वाला होने से उनका मुख्य पुरुष और परमेश्वर भी इन सात नामों से कहाता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मरुतो देवताः । आर्षी गायत्री | षड्जः ॥

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