यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 95
ऋषिः - वामदेव ऋषिः
देवता - यज्ञपुरुषो देवता
छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
1
सिन्धो॑रिव प्राध्व॒ने शू॑घ॒नासो॒ वात॑प्रमियः पतयन्ति य॒ह्वाः। घृ॒तस्य॒ धारा॑ऽअरु॒षो न वा॒जी काष्ठा॑ भि॒न्दन्नू॒र्मिभिः॒ पिन्व॑मानः॥९५॥
स्वर सहित पद पाठसिन्धो॑रि॒वेति॒ सिन्धाःऽइव। प्रा॒ध्व॒न इति॑ प्रऽअध्व॒ने। शू॒घ॒नासः॑। वात॑प्रमिय॒ इति॒ वात॑ऽप्रमियः। प॒त॒य॒न्ति॒। य॒ह्वाः। घृतस्य॑। धाराः॑। अ॒रु॒षः। न। वा॒जी। काष्ठाः॑। भि॒न्दन्। ऊ॒र्मिभि॒रित्यू॒र्मिः॑। पिन्व॑मानः ॥९५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सिन्धोरिव प्राध्वने शूघनासो वातप्रमियः पतयन्ति यह्वाः । घृतस्य धारा अरुषो न वाजी काष्ठा भिन्दन्नूर्मिभिः पिन्वमानः ॥
स्वर रहित पद पाठ
सिन्धोरिवेति सिन्धाःऽइव। प्राध्वन इति प्रऽअध्वने। शूघनासः। वातप्रमिय इति वातऽप्रमियः। पतयन्ति। यह्वाः। घृतस्य। धाराः। अरुषः। न। वाजी। काष्ठाः। भिन्दन्। ऊर्मिभिरित्यूर्मिः। पिन्वमानः॥९५॥
भावार्थ -
( प्राध्वने ) मार्ग रहित प्रदेश में मार्ग न मिलने पर ( सिन्धोः ) समुद्र के या महानदी के ( शूघनासः ) शीघ्र वेग से बहने वाले ( यह्वाः ) बड़े ( वातप्रमियः ) वायु के समान तीव्र गति से जाने वाले नाले जिस प्रकार वेग से ( पतयन्ति ) फूट पड़ते हैं उसी प्रकार ( घृतस्य धारा : ) ज्ञान की वाणियें अग्नि के प्रति घृत की धाराओं के समान वेग से बहती हैं । ( वाजी न ) जिस प्रकार अश्व (काष्ट्याः भिन्दन् ) वेग से सीमाओं को भी तोड़ता फोड़ता हुआ और( ऊर्मिभिः ) स्वेद-धाराओं से ( पिन्वमानः ) सींचता हुआ जाता है। और जिस प्रकार ( अरूषः ) दीप्तिमान् ( वाजी ) तेजस्वी अग्नि ( काष्ठा भिन्दन् ) काष्ठों, समिधाओं को अपनी ज्वालाओं से भेदता हुआ, चटकाता हुआ, और ( ऊर्मिभिः ) तेज की ऊर्ध्वगामिनी धाराओं से ( पिन्वमानः ) सींचता हुआ जलता है उसी प्रकार अग्नि के समान तेजस्वी विद्वान् भी ( अरूषः ) रोष रहित सुशील, और तेजस्वी कान्तिमान् होकर ( काष्ठा: भिन्दन् ) `क' परम सुख की विशेष आस्था, या स्थिति मर्यादा या बाधाओं को तोड़ता हुआ ( ऊर्मिभिः ) ऊपर को जाने वालों प्राणों से ( पिन्वमानः ) स्वयं तृप्त आनन्द प्रसन्न होता है और वाणी या उद्गार रूप तरंगों से श्रोताओं को भी तृप्त करता है।
अध्यात्म में - ( घृतस्य धाराः ) साधक तेज की धाराएं उसके बीच तीव्र तरंगों या नालों के समान बहती हैं ।
राजा के पक्ष में- ( यह्वाः ) बड़े ( वातप्रमियः ) वायु के समान तीव्र गति वाले ( घृतस्य ) तेज के धारण करने वाली वीर सेनाएं ( सिन्धोः शूघनासः धाराः इव ) सिन्धु की तीव्रगति वाली धाराओं के समान ( पतयन्ति ) आगे बढ़ती हैं।और वह स्वयं वेगवान् अश्व के समान ( काष्ठा: भिन्दन् ) संग्रामों को पार करता हुआ ( ऊर्मिभिः पिन्वमानः ) तरंगों से सेंचते हुए उत्ताल समुद्र के समान विराजता है ।
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