यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 60
ऋषिः - अप्रतिरथ ऋषिः
देवता - आदित्यो देवता
छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
1
उ॒क्षा स॑मु॒द्रोऽअ॑रु॒णः सु॑प॒र्णः पूर्व॑स्य॒ योनिं॑ पि॒तुरावि॑वेश। मध्ये॑ दि॒वो निहि॑तः॒ पृश्नि॒रश्मा॒ वि च॑क्रमे॒ रज॑सस्पा॒त्यन्तौ॑॥६०॥
स्वर सहित पद पाठउ॒क्षा। स॒मु॒द्रः। अ॒रु॒णः। सु॒प॒र्ण इति॑ सुऽप॒र्णः। पूर्व॑स्य। योनि॑म्। पि॒तुः। आ। वि॒वे॒श॒। मध्ये॑। दि॒वः। निहि॑त॒ इति॒ निऽहि॑तः। पृश्निः॑। अश्मा॑। वि। च॒क्र॒मे॒। रज॑सः। पा॒ति॒। अन्तौ॑ ॥६० ॥
स्वर रहित मन्त्र
उक्षा समुद्रोऽअरुणः सुपर्णः पूर्वस्य योनिम्पितुराविवेश । मध्ये दिवो निहितः पृश्निरश्मा विचक्रमे रजसस्पात्यन्तौ ॥
स्वर रहित पद पाठ
उक्षा। समुद्रः। अरुणः। सुपर्ण इति सुऽपर्णः। पूर्वस्य। योनिम्। पितुः। आ। विवेश। मध्ये। दिवः। निहित इति निऽहितः। पृश्निः। अश्मा। वि। चक्रमे। रजसः। पाति। अन्तौ॥६०॥
विषय - राजा गृहपति और योगी का वर्णन ।
भावार्थ -
राजा के पक्ष में-- ( उक्षा ) राष्ट्र कार्य भार को वहन करने वाला, (समुद्रः ) नाना ऐश्वर्यों और बलयुक्त कार्यों को उत्पादक अथवा ( समुद्रः ) अपनी मुद्रादि का उत्पादक, या समुद्र के समान गंभीर अनन्त कोश रत्नों को स्वामी (अरुणः) उगते सूर्य के समान रक्त वर्ग के वस्त्र पहने, रोहित स्वरूप, ( सुपर्णः) उत्तम रूप से पालन करने वाला होकर ही ( पूर्वस्य ) अपने पूर्व विद्यमान ( पितुः ) पालक पिता राजा के (योनिम् ) स्थान को ( आविवेश ) ले पूर्व के राजा के पद पर स्वयं विराजे । यदि राजा का पुत्र उतना समर्थ न हो तो उसको पिता की राज- गद्दी न प्राप्त हो । क्योंकि ( दिवः मध्ये ) द्यौलोक के बीच में
( निहित ) स्थित सूर्य के समान तेजस्वी राजा ही दिवः मध्ये ) तेजस्वी राष्ट्र और राजचक्र के बीच में ( निहित: ) स्थापित होकर ( पृश्निः ) सूर्य जिस प्रकार पृथिवी आदि लोकों से रस को ग्रहण करता है उसी
प्रकार कर आदि लेने में समर्थ एवं स
पालन में समर्थ और ( अश्मा ) चक्की या शिला के समान होकर शत्रु गणों को चकनाचूर कर देने में समर्थ
होकर वह ( विचकमे ) ( रजसः ) नाना ऐश्वयों से रंजित राष्ट्र रूप लोक के ( अन्तौ ) दोनों छोरों को ( पाति) पालन कर सकता है ।
ऋ० ५।४७।३॥ शत० ९।२|३|१८||
विविध प्रकार के विक्रम कर सकता है और
इसी प्रकार गृहपति के विषय में - गृहस्थ माता पिता का पुत्र जब वीर्य सेचन में या गृहस्थ का भार उठाने में समर्थ 'उक्षा' उत्तम पालन साधन रोजगारी से युक्त सुपर्ण हो तो उसको अपने पूर्व पिता की गादी प्राप्त हो । यह ही ( अश्मा ) शिला के समान आदित्य के समान पालक, होकर (रजसः) राग से प्राप्त काम्य गृहस्थ सुख के दोनों अन्तों को वर वधू दोनों के गृह बन्धनों को पालन कर सकता है।
अथवा योगी - ( उक्षा ) व मेघ द्वारा आत्मा ने बह्य रक्षक वर्षक होकर तेजस्वी, उत्तम ज्ञानवान् होकर पूर्व पिता, पूर्ण पालक परमेश्वर
के धाम को प्राप्त होता है । वह (दिवः) तेजोमय मोक्ष के बीच में स्थित होकर ( पृश्निः ) समस्त ब्रह्मा नन्द का भोक्ता ( अश्मा ) राजस, तामस उद्योगों का नाशक 'अष्माखण' होकर ( विचक्रमे ) विविध लोकों में
स्वच्छन्द गति करता है और ( रजसः ) समस्त ब्रह्माण्ड या रजोमय प्राकृतिक विकृति विभूति के दोनों छोर उत्पत्ति और प्रलय दोनों को (पाति) पा लेता है। शत० ९।१|३|१८ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अप्रतिरथ ऋषिः आदित्यो देवता । निचृदार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
इस भाष्य को एडिट करेंAcknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal