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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 96
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - यज्ञपुरुषो देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    अ॒भिप्र॑वन्त॒ सम॑नेव॒ योषाः॑ कल्या॒ण्यः] स्मय॑मानासोऽअ॒ग्निम्। घृ॒तस्य॒ धाराः॑ स॒मिधो॑ नसन्त॒ ता जु॑षा॒णो ह॑र्यति जा॒तवे॑दाः॥९६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि। प्र॒व॒न्त॒। सम॑ने॒वेति॒ सम॑नाऽइव। योषाः॑। क॒ल्या॒ण्यः᳕। स्मय॑मानासः। अ॒ग्निम्। घृ॒तस्य॑। धाराः॑। स॒मिध॒ इति॑ स॒म्ऽइधः॑। न॒स॒न्त॒। ताः। जु॒षा॒णः। ह॒र्यति॒। जा॒तवे॑दाः ॥९६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि प्रवन्त समनेव योषाः कल्याण्यः स्मयमानासोऽअग्निम् । घृतस्य धाराः समिधो नसन्त ता जुषाणो हर्यति जातवेदाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अभि। प्रवन्त। समनेवेति समनाऽइव। योषाः। कल्याण्यः। स्मयमानासः। अग्निम्। घृतस्य। धाराः। समिध इति सम्ऽइधः। नसन्त। ताः। जुषाणः। हर्यति। जातवेदाः॥९६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 96
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    भावार्थ -
    ( समना ) समान रूप से एक ही अभिलषित पुरुष को मन से विचारती हुई ( कल्याण्यः ) कल्याण, या शुभ आचारण और लक्षण वाली ( योषाः इव ) स्त्रियें, कन्याएं जिस प्रकार ( स्मयमानासः ) ईषत् कोमल हास करती हुईं ( अग्निम् अभि ) तेजस्वी विद्वान् को वरण करने के उद्देश्य से ( प्रवन्ते ) उसके पास जाती हैं। और (ताः जुषाण: ) उनको प्रसन्न चित्त से प्रेम करता हुआ ( जातवेदा ) वह विद्वान् स्नातक भी ( हर्यति ) चाहता है । और जिस प्रकार ( घृतस्य धाराः ) घी की धाराएं ( समिधः ) अच्छी प्रकार उज्ज्वल होकर ( अग्निम् वसन्त ) अग्नि को प्राप्त होती हैं और ( जातवेदाः ताः हर्यति ) अग्नि उन धाराओं को चाहता है उसी प्रकार ( घृतस्य धाराः ) ज्ञान की धाराएं ( समिध: ) अच्छी प्रकार शब्दार्थ सम्बन्धों से उज्ज्वल होकर ( अग्निम् ) ज्ञानवान् पुरुष को प्राप्त होती हैं। और वह ( ताः जुषाणा: ) उनका सेवन करता हुआ ( जातवेदाः ) स्वयं विज्ञानवान् होकर ( हर्षति ) उनको चाहता है। राजा के पक्ष में - तेजो बल को धारण करनेवाली सेनाएं, ( समिधः ) क्रोध और वीरता से उज्ज्वल होकर ( अग्निम् ) तेजस्वी अग्रणी सेना नायक राजा को प्राप्त होती है और वह उनको चाहता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋष्यादि पूर्ववत् ॥

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