यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 10
ऋषिः - भारद्वाज ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृदार्षी
स्वरः - निषादः
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पा॒व॒कया॒ यश्चि॒तय॑न्त्या कृ॒पा क्षाम॑न् रुरु॒चऽउ॒षसो॒ न भा॒नुना॑। तूर्व॒न् न याम॒न्नेत॑शस्य॒ नू रण॒ऽआ यो घृ॒णे न त॑तृषा॒णोऽअ॒जरः॑॥१०॥
स्वर सहित पद पाठपा॒व॒कया॑। यः। चि॒तय॑न्त्या। कृ॒पा। क्षाम॑न्। रु॒रु॒चे। उ॒षसः॑। न। भा॒नुना॑। तूर्व॑न्। न। याम॑न्। एत॑शस्य। नु। रणे॑। आ। यः। घृ॒णे। न। त॒तृ॒षा॒णः। अ॒जरः॑ ॥१० ॥
स्वर रहित मन्त्र
पावकया यश्चितयन्त्या कृपा क्षामन्रुरुचऽउषसो न भानुना । तूर्वन्न यामन्नेतशस्य नू रणऽआ यो घृणे न ततृषाणोऽअजरः ॥
स्वर रहित पद पाठ
पावकया। यः। चितयन्त्या। कृपा। क्षामन्। रुरुचे। उषसः। न। भानुना। तूर्वन्। न। यामन्। एतशस्य। नु। रणे। आ। यः। घृणे। न। ततृषाणः। अजरः॥१०॥
विषय - प्रजा को ज्ञानवान् करना, तथा शत्रु विजय द्वारा राष्ट्र को वृद्धि ।
भावार्थ -
( भानुना उषसः न ) उषा के प्रकाश से जिस प्रकार सूर्य प्रकाशमान होता, वह सबको निद्रा से जगाता, पृथ्वी पर प्रकाश डालता और भूतल को पवित्र करता है उसी प्रकार ( यः ) जो राजा ( पावकया ) पवित्र करने वाली ( चितयन्त्या ) मजा को ज्ञानवान् करने वाली, चेतानेवाली या संगृहीत या सुव्यवस्थित करनेवाली ( कृपा ) राष्ट्र निर्माण शक्ति से युक्त होकर ( क्षामन् ) इस पृथ्वी पर ( रुरुचे ) शोभा देता है । और ( यः ) जो ( रणे ) रणे में ( एतशस्य ) अश्वमेध में छोड़े अश्व के ( यामन् ) मार्ग में आनेवाले विपक्षियों को ( तूर्वन् न ) मारता हुआ ( घृणे न ) प्रदीप्त, संग्राम में भी सूर्य के समान ( ततृषाणः ) राज्यलक्ष्मी का सदा पिपासित रहकर भी ( अजरः न ) अजर , जरारहित, अमर, वीर के समान राज्यवृद्धि में लगा रहता है वह तू हमें प्राप्त हो । शत० ९ । १ । २ । ३० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निर्देवता । निचृदार्षी जगती । निषादः ॥
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