Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 54
    ऋषिः - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - दिग् देवता छन्दः - स्वराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    0

    पञ्च॒ दिशो॒ दैवी॑र्य॒ज्ञम॑वन्तु दे॒वीरपाम॑तिं दुर्म॒तिं बाध॑मानाः। रा॒यस्पो॑षे य॒ज्ञप॑तिमा॒भज॑न्ती रा॒यस्पोषे॒ऽअधि॑ य॒ज्ञोऽअ॑स्थात्॥५४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पञ्च॑। दिशः॑। दैवीः॑। य॒ज्ञम्। अ॒व॒न्तु॒। दे॒वीः। अप॑। अम॑तिम्। दु॒र्म॒तिमिति॑ दुःऽम॒तिम्। बाध॑मानाः। रा॒यः। पोषे॑। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। आ॒भज॑न्ती॒रित्या॒ऽभज॑न्तीः। रा॒यः। पोषे॑। अधि॑। य॒ज्ञः। अ॒स्था॒त् ॥५४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पञ्च दिशो दैवीर्यज्ञमवन्तु देवीरपामतिं दुर्मतिन्बाधमानाः । रायस्पोषे यज्ञपतिमाभजन्ती रायस्पोषेऽअधि यज्ञोऽअस्थात् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पञ्च। दिशः। दैवीः। यज्ञम्। अवन्तु। देवीः। अप। अमतिम्। दुर्मतिमिति दुःऽमतिम्। बाधमानाः। रायः। पोषे। यज्ञपतिमिति यज्ञऽपतिम्। आभजन्तीरित्याऽभजन्तीः। रायः। पोषे। अधि। यज्ञः। अस्थात्॥५४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 54
    Acknowledgment

    भावार्थ -
    ( दैवीः ) देव, अर्थात् राजा या विजयशील प्रजाओं के अधीन ( पञ्च ) पाचों ( दिशः ) दिशाएं अर्थात् पाचों दिशाओं में रहने वाली प्रजाएं, अथवा पांच राजसभाएं ( यज्ञम् ) सत्कार करने और संगति करने योग्य राजा और राष्ट्र की ( अवन्तु ) रक्षा करें। ( देवीः ) और उत्तम विदुषी स्त्रियां और विदुषी प्रजाएं, राजसभाएं ( अमतिम् ) अज्ञान और ( दुर्मतिम् ) दुष्ट विचारों को ( बाधमानाः ) दूर करती हुई और ( यज्ञपतिम् ) यज्ञपति को ( रायः पोषे ) ऐश्वर्य के निमित्त ( आभजन्ती ) आश्रय करती हुई, यज्ञ को रक्षा करें। वृद्धि में जिससे ( यज्ञ: ) समस्त राष्ट्र रूप यज्ञ ( रायः पोषे ) ऐश्वर्य की वृद्धि में ( अधि अस्थात् ) स्थित रहे। शत० ९ । २ । ३ । ८ ॥ गृहस्थ पक्ष में-- पांच दिशाओं के समान ( देवी: ) विद्वान् स्त्रियां सब के अज्ञान और दुष्ट बुद्धि की नाश करती हुईं ( यज्ञपतिम् ) गृहस्थ यज्ञ के स्वामी पतियों को सेवन करती एवं ऐश्वर्य का भागी बनाती हुईं यज्ञ की रक्षा करें | गृहाश्रम ऐश्वर्य की वृद्धि में लगा रहे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - दिशो देवता: । स्वराडार्षी त्रिष्टुप् | धैवतः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top