यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 56
ऋषिः - अप्रतिरथ ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - विराडार्षी पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
0
दैव्या॑य ध॒र्त्रे जोष्ट्रे॑ देव॒श्रीः श्रीम॑नाः श॒तप॑याः। प॒रि॒गृह्य॑ दे॒वा य॒ज्ञमा॑यन् दे॒वा दे॒वेभ्यो॑ऽअध्व॒र्यन्तो॑ऽअस्थुः॥५६॥
स्वर सहित पद पाठदैव्या॑य। ध॒र्त्रे। जोष्ट्रे॑। दे॒व॒श्रीरिति॑ देव॒ऽश्रीः। श्रीम॑ना॒ इति॒ श्रीऽम॑नाः। श॒तप॑या॒ इति॑ श॒तऽप॑याः। प॒रि॒गृह्येति॑ परि॒ऽगृह्य॑। दे॒वाः। य॒ज्ञम्। आ॒य॒न्। दे॒वाः। दे॒वेभ्यः॑। अ॒ध्व॒र्यन्तः॑। अ॒स्थुः॒ ॥५६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दैव्याय धर्त्रे जोष्ट्रे देवश्रीः श्रीमनाः शतपयाः । परिगृह्य देवा यज्ञमायन्देवा देवेभ्योऽअध्वर्यन्तो अस्थुः ॥
स्वर रहित पद पाठ
दैव्याय। धर्त्रे। जोष्ट्रे। देवश्रीरिति देवऽश्रीः। श्रीमना इति श्रीऽमनाः। शतपया इति शतऽपयाः। परिगृह्येति परिऽगृह्य। देवाः। यज्ञम्। आयन्। देवाः। देवेभ्यः। अध्वर्यन्तः। अस्थुः॥५६॥
विषय - यज्ञ और युद्ध का समान वर्णन ।
भावार्थ -
( देवा: ) देव, विज्ञान पुरुष, ( देवेभ्यः ) विद्वानों के हित के लिये ही ( अध्वर्यन्तः ) अपने हिंसा रहित आचरण एवं यज्ञादि श्रेष्ठ कर्मों की कामना करते ( अस्थुः ) रहते हैं । वे विद्वान् लोग जो ( देवश्रीः ) राजा के समान लक्ष्मी से युक्त, अथवा देवों, विद्वानों के निमित्त अपने धन वैभव को व्यय करने हारा, उदार, ( श्रीमनाः ) अपने चित्त में सेवनीय शुभ वृत्ति या पूज्य प्रभु को धारण करने वाला या लक्ष्मी शोभा को चाहने वाला, और ( शतपया: ) सैकड़ों दूध या दूधार गौवों वाला, या सैकड़ों पुष्टि कारक अन्न आदि के सम्पन्न होता है उस सम्पन्न पुरुष को ( दैव्याय ) दिव्य गुणों में सम्पन्न ( धर्त्रे ) जगत् के धारक, पोषक और ( जोष्ट्रे ) सबको प्रेम करने वाले परमेश्वर की स्तुति के लिये ही ( परिगृह्य ) आश्रय करके ( यज्ञम् आयन् ) यज्ञ करने के लिये आते हैं। शत० ९ । २ । ३ । १o ॥
उसी प्रकार राष्ट्र पक्ष में- जो ( देवश्रीः ) राजा के समान वैभव वाला ( श्रीमनाः ) राज्य वैभव को चाहने वाला, और ( शतपयाः ) सैकड़ों पोषण पदार्थों और बलों से युक्त होता है उसका (परिगृह्य ) आश्रय लेकर ( देवाः ) विजिगीषु वीर जन ( दैव्याय ) देवों के हितकारी, ( धर्त्रे ) सब के धारक ( जोष्टे ) सब के प्रेमी पुरुष की वृद्धि या ऐसी राष्ट्र की वृद्धि के लिये ( यज्ञम् आयन् ) संग्राम में आते हैं । ( देवाः देवेभ्यः ) विजयी लोग विजेताओं की उन्नति के लिये ही ( अध्वर्यन्तः अस्थुः ) संग्राम चाहते रहते हैं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निर्देवता । विराडार्षी पंक्तिः । पञ्चमः ॥
इस भाष्य को एडिट करेंAcknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal