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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 40
    ऋषिः - सिन्धुद्वीप ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    सुजा॑तो॒ ज्योति॑षा स॒ह शर्म॒ वरू॑थ॒मास॑द॒त् स्वः। वासो॑ऽअग्ने वि॒श्वरू॑प॒ꣳ संव्य॑यस्व विभावसो॥४०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सुजा॑त॒ इति॒ सुऽजा॑तः। ज्योति॑षा। स॒ह। शर्म्म॑। वरू॑थम्। आ। अ॒स॒द॒त्। स्व᳖रिति॒ स्वः᳖। वासः॑। अ॒ग्ने॒। वि॒श्वरू॑प॒मिति॑ वि॒श्वऽरू॑पम्। सम्। व्य॒य॒स्व॒। वि॒भा॒व॒सो॒ इति॑ विभाऽवसो ॥४० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुजातो ज्योतिषा सह शर्म वरूथमासदत्स्वः । वासोऽअग्ने विश्वरूपँ सँव्ययस्व विभावसो ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सुजात इति सुऽजातः। ज्योतिषा। सह। शर्म्म। वरूथम्। आ। असदत्। स्वरिति स्वः। वासः। अग्ने। विश्वरूपमिति विश्वऽरूपम्। सम्। व्ययस्व। विभावसो इति विभाऽवसो॥४०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 40
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - (पत्नीचे वचन पतिप्रती) हे श्रेष्ठ प्रकाशमान (पवित्र धनाचे स्वामी), (अग्ने) अग्निवत् तेजस्वी (पतिराज), आपण (ज्योतिषा) विद्येने प्रकाशमान आणि (सुजात:) सुप्रसिद्ध आहात. (स्व:) आपण या सुखदायक (वरूथम्) उत्तम (शर्म्म) घरात (आसदत्) यात निवास करा. तसेच (विश्वरुपम्) विविध सौन्दर्यपूर्ण रंग-छटादींनी युक्त (वास:) वस्त्र (संव्ययस्व) धारण करा. ॥40॥

    भावार्थ - भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. विवाहित स्त्री-पुरुषांचे कर्तव्य आहे की जसे सूर्य आपल्या प्रकाशाने सर्व जगाला प्रकाशित करतो, तद्वत पति-पत्नीनी सुंदर मनोहर वस्त्र आभूषणादींनी आपले शरीर अलंकृत सुशोभित करावे आणि घर, तसेच घरातील वस्तू पवित्र व स्वच्छ ठेवाव्यात ॥40॥

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