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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 32
    ऋषिः - भारद्वाज ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    पु॒री॒ष्योऽसि वि॒श्वभ॑रा॒ऽअथ॑र्वा त्वा प्रथ॒मो निर॑मन्थदग्ने। त्वाम॑ग्ने॒ पुष्क॑रा॒दध्यथ॑र्वा॒ निर॑मन्थत॥ मू॒र्ध्नो विश्व॑स्य वा॒घतः॑॥३२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒री॒ष्यः᳖। अ॒सि॒। वि॒श्वभ॑रा॒ इति॑ वि॒श्वऽभ॑राः। अथ॑र्वा। त्वा॒। प्र॒थ॒मः। निः। अ॒म॒न्थ॒त्। अ॒ग्ने॒। त्वाम्। अ॒ग्ने॒। पुष्क॑रात्। अधि॑। अथ॑र्वा। निः। अ॒म॒न्थ॒त॒। मू॒र्ध्नः। विश्व॑स्य। वा॒घतः॑ ॥३२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुरीष्योसि विश्वभराऽअथर्वा त्वा प्रथमो निरमन्थदग्ने । त्वामग्ने पुष्करादध्यथर्वा निरमन्थत । मूर्ध्ना विश्वस्य वाघतः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पुरीष्यः। असि। विश्वभरा इति विश्वऽभराः। अथर्वा। त्वा। प्रथमः। निः। अमन्थत्। अग्ने। त्वाम्। अग्ने। पुष्करात्। अधि। अथर्वा। निः। अमन्थत। मूर्ध्नः। विश्वस्य। वाघतः॥३२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 32
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे (अग्ने) क्रिया-कौशल्यात निपुण वा तज्ञ असलेले (तंत्रज्ञ) विद्वान, तुम्ही (वाघत:) शास्त्रज्ञ आहात. (पुरीष्य:) (आपल्या शोध व अविष्कारांदीद्वारे) पशूंना सुख देणारे (असि) आहात. (त्वा) तुम्हाला (अथर्वा) अहिंसक व रक्षक (प्रथम:) उत्तम (विश्वभरा:) आणि सर्वांना पोषक असा तो विद्वान, (विश्वस्म) समस्त जगाचा (मूर्घ्न:) शिराप्रमाणे म्हणजे सर्वोच्च आहे, तो (पुष्करात्) अंतरिक्षापासून (अधि) जवळ असणार्‍या (वा त्यात असणार्‍या) अग्नीला (विद्युतेला) निरमन्थत्) नित्य मंथन करून ग्रहण करतो, म्हणून त्यास ऐश्वर्य प्राप्त होते. (तुम्हीही त्याच्याप्रमाणे कार्य करून विद्युत प्राप्त करा) ॥32॥

    भावार्थ - भावार्थ - या संसारात जे जे विद्यावान पुरुष आहेत, त्यांनी आपल्या चिंतन व उत्तम विचारशक्तीद्वारे तसे श्रम पुरुषार्थाद्वारे अग्नी आदींची पदार्थ विद्या (भौतिकशास्त्र) प्रकट करावी आणि ती विद्या सर्व मनुष्यांना सांगावी वा शिकवावी ॥32॥

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