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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 52
    ऋषिः - शङ्ख ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - स्वराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    त्वꣳसो॑म॒ प्र चि॑कितो मनी॒षा त्वꣳ रजि॑ष्ठ॒मनु॑ नेषि॒ पन्था॑म्। तव॒ प्रणी॑ती पि॒तरो॑ नऽइन्दो दे॒वेषु॒ रत्न॑मभजन्त॒ धीराः॑॥५२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम्। सो॒म॒। प्र। चि॒कि॒तः॒। म॒नी॒षा। त्वम्। रजि॑ष्ठम्। अनु॑। ने॒षि॒। पन्था॑म्। तव॑। प्रणी॑ती। प्रनी॒तीति॒ प्रऽनी॑ती। पि॒तरः॑। नः॒। इ॒न्दो॒ऽइति॑ इन्दो। दे॒वेषु॑। रत्न॑म्। अ॒भ॒ज॒न्त॒। धीराः॑ ॥५२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वँ सोम प्र चिकितो मनीषा त्वँ रजिष्ठमनु नेषि पन्थाम् । तव प्रणीती पितरो नऽइन्दो देवेषु रत्नमभजन्त धीराः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। सोम। प्र। चिकितः। मनीषा। त्वम्। रजिष्ठम्। अनु। नेषि। पन्थाम्। तव। प्रणीती। प्रनीतीति प्रऽनीती। पितरः। नः। इन्दोऽइति इन्दो। देवेषु। रत्नम्। अभजन्त। धीराः॥५२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 52
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - (ज्ञानी पित्याप्रत श्रद्धावान पुत्राचे वचन) (सोम) ऐश्वर्यवान आणि (प्र, चिकितः) विशेषज्ञानी (हे पिता) (त्वम्‌) आपण (मनीषा) उत्तम प्रज्ञेने युक्त असून ज्या (रजिष्ठम्‌) अतिशय सुखकारक (पन्थाम्‌) मार्गाला (नेषि) प्राप्त केला आहात, त्या मार्गावर (त्वम्‌) आपण मलाही (अनु) आपल्यामागे न्या. हे (इन्दो) आनंददायी चंद्राप्रमाणे (शीतल स्वभावाचे पिता) (तव) आपल्या (प्रणीति) उत्तम नीतीप्रमाणे चालत जे (धीराः) योगिराज (पितरः) पिता आदी ज्ञानीजन (देवेषु) विद्वत्सभेमधे (नः) आमच्यासाठी (माझ्यासाठी व माझ्या बांधवासाठी) (रत्नम्‌) उत्तम धनाचे (अभजन्त) सेवन करतात (ज्ञानरूप धन व संपत्ती प्राप्त करतात, ते (आपण व आपल्यासारखे ज्ञानी विद्वान) आमच्या सत्कारास प्राप्त आहेत. (आम्ही त्या सर्वांचा सन्मान करतो) ॥52॥

    भावार्थ - भावार्थ -जी मुलें वा मुली आपल्या आई-वडिलांची सेवा करीत, विद्या आणि धर्माचे अनुष्ठान करतात, विनयाने वागतात, ते आपला मनुष्य जन्म सार्थक करतात (त्यांचे जीवन सफल होते) ॥52॥

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