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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 75
    ऋषिः - शङ्ख ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - भुरिगतिजगती स्वरः - निषादः
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    अन्ना॑त् परि॒स्रुतो॒ रसं॒ ब्रह्म॑णा॒ व्यपिबत् क्ष॒त्रं पयः॒ सोमं॑ प्र॒जाप॑तिः। ऋ॒तेन॑ स॒त्यमि॑न्द्रि॒यं वि॒पानंꣳ शु॒क्रमन्ध॑स॒ऽइन्द्र॑स्येन्द्रि॒यमि॒दं पयो॒ऽमृतं॒ मधु॑॥७५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अन्ना॑त्। प॒रि॒स्रुत॒ इति॑ परि॒ऽस्रुतः॑। रस॑म्। ब्रह्म॑णा। वि। अ॒पि॒ब॒त्। क्ष॒त्रम्। पयः॑। सोम॑म्। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। ऋ॒तेन॑। स॒त्यम्। इ॒न्द्रि॒यम्। वि॒पान॒मिति॑ वि॒ऽपान॑म्। शु॒क्रम्। अन्ध॑सः। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒यम्। इ॒दम्। पयः॑। अ॒मृत॑म्। मधु॑ ॥७५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्नात्परिस्रुतो रसम्ब्रह्मणा व्यपिबत्क्षत्रम्पयः सोमम्प्रजापतिः । ऋतेन सत्यमिन्द्रियँविपानँ शुक्रमन्धसऽइन्द्रस्येन्द्रियमिदम्पयोमृतम्मधु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अन्नात्। परिस्रुत इति परिऽस्रुतः। रसम्। ब्रह्मणा। वि। अपिबत्। क्षत्रम्। पयः। सोमम्। प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः। ऋतेन। सत्यम्। इन्द्रियम्। विपानमिति विऽपानम्। शुक्रम्। अन्धसः। इन्द्रस्य। इन्द्रियम्। इदम्। पयः। अमृतम्। मधु॥७५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 75
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - जो माणूस (ब्रह्मणा) चतुर्वेदज्ञाता विद्वानांसह राहून (आणि) (प्रजापतिः) प्रजारक्षक सभापती राजाच्या (आश्रयात राहून) (परिस्रुतः) पूर्ण परिपक्व अशा (अन्नात्‌) जव आदी धान्याच्या (पयः) रसाचे (सेवन करतो, तो उत्तम हितकारक कार्य करतो, कारण की) तो (रसम्‌) अन्नाचा साररूप रस (वयः) दुधाप्रमाणे (सोमम्‌) ऐश्वर्य वा शक्तिदायक असतो. त्या रसाचे (क्षत्रम्‌) क्षत्रियकुळातील लोक वा राजा (व्यपिबत्‌) सेवन करतात (तो मनुष्य सुखी होतो की जो) (ऋतेन) विद्या, विनय आणि न्यायाने वागत (अंधसः) अंधकाररूप अन्यायाचे निवारण करतो. तसेच (शुक्रम्‌) पराक्रमी (विपानम्‌) आणि विविध प्रकारे रक्षण करणारा (सत्यम्‌) सदा सत्याचरण करणारा राजा (इन्द्रियम्‌) इन्द्र म्हणजे परमेश्वराने दिलेल्या (इन्द्रस्य) समग्र ऐश्वर्यशाली राज्य (उपभोगतो) तसेच (इदम्‌) या (पयः) पिण्यास योग्य आणि (अमृतम्‌) अमृताप्रमाणे आनंददायी आणि (मधु) मधुर रसाचा पान करणारा मनुष्य (इन्द्रियम्‌) राजा आदी महान पुरूषांनी स्थापित केलेल्या राज्यात न्यायाने आचरण करीत जीवन जगतो व सदा सुखी असतो. ॥75॥

    भावार्थ - भावार्थ - जे (राजे) विद्वानांच्या मंत्रणेप्रमाणे राज्याच्या प्रगतीसाठी यत्न करतात, तेच (राज्यातील) अन्याय दूर करण्यात आणि राज्याची प्रगती करण्यात समर्थ होतात ॥75॥

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