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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 10
    ऋषिः - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा जगती सूक्तम् - भूमि सूक्त
    149

    याम॒श्विना॒वमि॑मातां॒ विष्णु॒र्यस्यां॑ विचक्र॒मे। इन्द्रो॒ यां च॒क्र आ॒त्मने॑ऽनमि॒त्रां शची॒पतिः॑। सा नो॒ भूमि॒र्वि सृ॑जतां मा॒ता पु॒त्राय॑ मे॒ पयः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याम् । अ॒श्विनौ॑ । अमि॑माताम् । विष्णु॑: । यस्या॑म् । वि॒ऽच॒क्र॒मे । इन्द्र॑: । याम् । च॒क्रे । आ॒त्मने॑ । अ॒न॒मि॒त्राम् । शची॒ऽपति॑: । सा । न॒: । भूमि॑: । वि । सृ॒ज॒ता॒म् । मा॒ता । पु॒त्राय॑ । मे॒ । पय॑: ॥१.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यामश्विनावमिमातां विष्णुर्यस्यां विचक्रमे। इन्द्रो यां चक्र आत्मनेऽनमित्रां शचीपतिः। सा नो भूमिर्वि सृजतां माता पुत्राय मे पयः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याम् । अश्विनौ । अमिमाताम् । विष्णु: । यस्याम् । विऽचक्रमे । इन्द्र: । याम् । चक्रे । आत्मने । अनमित्राम् । शचीऽपति: । सा । न: । भूमि: । वि । सृजताम् । माता । पुत्राय । मे । पय: ॥१.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राज्य की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (याम्) जिस [भूमि] को (अश्विनौ) दिन और राति ने (अमिमाताम्) नापा है, (यस्याम्) जिस [भूमि] पर (विष्णुः) व्यापक सूर्य ने (विचक्रमे) पाँव रक्खा है। (याम्) जिस [भूमि] को (शचीपतिः) वाणियों, कर्मों और बुद्धियों में चतुर (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] ने (आत्मने) अपने लिये (अनमित्राम्) शत्रुरहित (चक्रे) किया है। (सा भूमिः) वह भूमिः (नः) हमारे [हम सब के] हित के लिये (मे) मुझ को (पयः) अन्न [वा दूध] (वि) विविध प्रकार (सृजताम्) देवे, [जैसे] (माता) माता (पुत्राय) पुत्रको [अन्न वा दूध देती है] ॥१०॥

    भावार्थ

    जिस पृथिवी को दिन और राति अपने गुणों से उपजाऊ बनाते हैं, जिस को सूर्य अपने आकर्षण, प्रकाश और वृष्टि आदि कर्म से स्थिर रखता है, और जिस पर यथार्थवक्ता, यथार्थकर्मा और यथार्थज्ञाता पुरुष विजय पाते हैं, उस पृथिवी को उपयोगी बनाकर प्रत्येक मनुष्य सब का हित करे ॥१०॥

    टिप्पणी

    १०−(याम्) भूमिम् (अश्विनौ) अ० २।२९।६। अहोरात्रौ−निरु० १२।१। (अमिमाताम्) माङ् माने शब्दे च−लङ्। परिमितां कृतवन्तौ (विष्णुः) व्यापकः सूर्यः (यस्याम्) भूम्याम् (विचक्रमे) पादविक्षेपं कृतवान् (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् जीवः (याम्) (चक्रे) कृतवान् (आत्मने) स्वहिताय (अनमित्राम्) शत्रुरहिताम् (शचीपतिः) अ० ३।१०।१२। शची=वाक्−निघ० १।११, कर्म−२।१, प्रज्ञा−३।९। शचीनां वाचां कर्मणां प्रज्ञानां वा पालकः (सा) (नः) अस्मभ्यम्। अस्माकं सर्वेषां हिताय (भूमिः) (वि) विविधम् (सृजताम्) ददातु (माता) जननी (पुत्राय) (मे) मह्यम् (पयः) अन्नम्। दुग्धम् ॥

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    विषय

    शचीपति इन्द्र

    पदार्थ

    १. (याम्) = जिस पृथिवी को (अश्विनौ) = सूर्य व चन्द्र (अमिमाताम्) = मापने में लगे है-पूर्व से पश्चिम की ओर जाते हुए सूर्य व चन्द्र मानो पृथिवी को माप ही रहे हैं। (यस्याम्) = जिस पृथिवी पर (विष्णुः) = [आदित्यानामहं विष्णुः] सर्वाधिक देदीप्यमान विष्णु नामक आदित्य (विचक्रमे) = विशिष्ट गतिवाला व पुरुषार्थवाला होता है। अथवा (विष्णुः) =  सर्वव्यापक प्रभु (यस्याम्) = जिस प्रथिवी पर विचक्रमे विविध सृष्टि [पदार्थों] को उत्पन्न करता है। २. (याम्) = जिस भूमि को (इन्द्र:) = जितेन्द्रिय, (शचीपतिः) = शक्ति व प्रज्ञान का स्वामी पुरुष (आत्मने) = अपने लिए (अनमित्राम्) = शत्ररहित (चक्रे) = करता है। जितेन्द्रिय बनकर, शक्ति व प्रज्ञान के साथ विचरने पर, यहाँ कोई भी पदार्थ हमारे लिए हानिकर नहीं होता। (सा न: भूमि:) = वह हमारी भूमिमाता मे मेरे लिए (पयः विसृजताम्) = दूध दे, जैसेकि (माता पुत्राय) = माता पुत्र के लिए दुग्ध देती है।

    भावार्थ

    सूर्य और चन्द्र से इस पृथिवी का मानो मापन हो रहा है। इन सूर्य-चन्द्र के द्वारा सर्वव्यापक प्रभु पृथिवी पर विविध वनस्पतियों को जन्म दे रहे हैं। यह पृथिवी शक्ति व प्रज्ञान के स्वामी जितेन्द्रिय पुरुष की मित्र है। यह भूमि हम पुत्रों के लिए आप्यायन के साधनभूत दुग्ध आदि पदार्थों को दे।

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    भाषार्थ

    (याम्) जिस भूमि को (अश्विनौ) रात-और-दिन ने (अमिमाताम्) मापा है, (यस्याम्) जिस में (विष्णुः) रश्मियों से व्याप्त सूर्य ने (विचक्रमे) विशेषतया या विविध स्थानों में पादविक्षेप१ किया है। (शचीपतिः) प्रज्ञा तथा कर्मों के अधिपति (इन्द्रः = इन्द्रेन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सम्राटों२ के सम्राट् ने (याम्) जिस भूमि को (आत्मने) अपने लिये (अनमित्राम्) शत्रुरहित (चक्रे) किया है (सा नः भूमिः माता) वह हमारी भूमिमाता (मे पुत्राय) मुझ प्रत्येक पुत्र के लिये (पयः) दुग्धादि पदार्थ (विसृजताम्) प्रदान करे।

    टिप्पणी

    [अश्विनौ-अहोरात्रावित्येके (निरुक्त १२।१।१)। दिन-और-रात चक्कर लगा रहे हैं मानो भूमि को माप रहे हैं। भूमिः माता = समग्र अखण्डित भूमि माता है, खण्डित भूमियां अर्थात् राष्ट्र, मातृभूमि नहीं कही जा सकतीं। अखण्डित भूमि का सार्वभौमशासन ही भूमि माता के प्रत्येक पुत्र को दुग्ध आदि पदार्थ प्रदान कर सकता है। दूध पिलाने वाली माता, निज समग्र शरीर रूप में माता है, निज खण्डित अवयवों में माता नहीं। मन्त्र में "अमिमाताम्" द्वारा भूगोल शास्त्र के एक विषय का निर्देश किया है। शचीपतिः; शची = प्रज्ञा तथा कर्म (निघं० ३।९; तथा ८।१]। तथा अश्विनौ = अश्वारोही दो survey officers, जो कि भूमि को नापते हैं। इन्द्रः= सम्राट्। यथा “इन्द्रश्च सम्राट् वरुणश्च राजा" (यजु० ८।३७)। इन्द्र अर्थात् सम्राट्३ है, संयुक्त राष्ट्रशासक; तथा वरुण है प्रदेशशासक, राष्ट्रशासक]। [१. पाद विक्षेप= चरणन्यास, रश्मिपात। २. इन्द्रः= इन्द्रेन्द्रः, सम्राटों का सम्राट्। मन्त्रों में जहां समग्र भूमि के सम्बन्ध में सार्वभौम शासक का वर्णन प्रतीत हों वहाँ इन्द्र पद द्वारा इन्द्रेन्द्र का वर्णन जानना चाहिये। इन्द्रेन्द्रः= इन्द्रः, यथा देवदत्तः= देवः या दत्तः। इन्द्रेन्द्र= यथा "इन्द्रेन्द्र मनुष्याः परेहि” (अथर्व० ३।४।६) मन्त्र में इन्द्रेन्द्र को मनुष्य कहा है। ३. इन्द्र का अर्थ यद्यपि सम्राट् है परन्तु "सार्वभौम शासन के प्रकरण में इन्द्र द्वारा इन्द्रेन्द्र का वर्णन अभिप्रेत है। सम्राट् = सम् (संयुक्त राष्ट्र) + राट् (राजा)। अतः साम्राज्य = संयुक्त-राष्ट्र शासन। Federation या confederation। पृथिवी में संयुक्तराष्ट्र नाना हो सकते हैं। मन्त्रों के अनुसार नाना राष्ट्रशासनों पर एक "सार्वभौमशासन" चाहिये। इस के शासक को "इन्द्रेन्द्र" कहा है (अथर्व० ३।४।६)। अतः संयुक्त राष्ट्रशासन को साम्राज्य, सम्राट्शासन तथा ऐन्द्रशासन कह सकते हैं, और सार्वभौमशासन को "ऐन्द्रेन्द्रशासन"। मन्त्र ११ में इन्द्रगुप्ताम् तथा अध्यष्ठाम् द्वारा सम्राटों के सम्राट् को अधिष्ठाता भी कहा है। अधिष्ठाता = अधिराट्, यथा "अधिराजो राजसु राजयातै" (अथर्व० ६।९८।१,२)। इसे "एकराट्" (अथर्व० ३।४।१) भी कहा है, तथा "विशांपतिः” भी।]

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    विषय

    पृथिवी सूक्त।

    भावार्थ

    (याम्) जिसको (अश्विनौ) अश्विगण, दिन और रात्रि, सूर्य और चन्द्र दोनों मानो (अमिमातां) मापा करते हैं। और (विष्णु:) व्यापक परमात्मा (यस्यां) जिसमें (विचक्रमे) नाना प्रकार की सृष्टि उत्पन्न करता है। और (शचीपतिः) शची अर्थात् शक्ति और सेना का स्वामी (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् राजा (यां) जिसको (आत्मने) अपने लिये (अनमित्रां) शत्रु से रहित (चक्रे) करता है (सा भूमिः) वह सबकी जननी भूमि, (माता) माता जिस प्रकार पुत्र के लिये स्वयं प्रेम से दूध पिलाती है उसी प्रकार (मे पुत्राय) मुझ पुत्र के लिये अपना (पयः) जल, अन्न रस आदि नाना पुष्टिकारक पदार्थ (वि सृजताम्) प्रदान करे।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘चक्रात्मनेनमित्रान् च्छची’ (च०) ‘नः पयः’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (याम्-अश्विनौ-अमिमाताम्) जिस पृथिवी को अश्वि युगल-सूर्य चन्द्र ने माप लिया-मापते हैं सूर्य अपने चारों ओर इसे घुमाने से माप लेता है और चन्द्रमा इसके चारों ओर घूमने से इसे माप लेता है, दिन रात भी इसे मापते हैं- कितने काल तक यह पृथिवी आकाश में ठहरती है (यस्यां विष्णु:विचक्रमे) जिस पर व्यापक परमात्मा ने अपना उत्पादन विक्रम प्रदर्शित किया है-करता रहता है या सूर्य तपाने का विक्रम करता है (यां शचीपतिः-इन्द्रः-आत्मने-अनमित्रां-चक्रे) जिस पृथिवी को शक्तियों के स्वामी इन्द्र-विद्यदुदेव या विद्यदेव के समान राजा ने अपने लिये शत्रुरहित कर दिया (सा नः-भूमि:माता मे पुत्राय पय:-विसृजताम्) वह भूमि हमारी माता मुझ पुत्र के लिये दूध-दूध समान पेय जल आदि विसर्जन करे ॥१०॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Song of Mother Earth

    Meaning

    Earth Mother which Ashvins, day and night, have wrapped in light and shade, which Vishnu, the sun, covers in a single step, which Indra, Lord Supreme, renders free from enemy powers, may that mother land release milk and water in plenty for me, her child.

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    Translation

    Whom the Asvins measured; on whom Visnu strode out; whom Indra, lord of might, made free from enemies for himself -- let that earth to us, a mother to a son, release milk.

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    Translation

    May the Mother Earth whom the day and night measure, on whom the pervading sun places its feet in form of morning, meridian and evening, whom for his own sake, the soul, the lord of speech (deeds and intellect) renders free from foes provide me as her child, with milk.

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    Translation

    She whom the learned scientists measured out, upon whom the All Pervading God creates different kinds of creation, whom the glorious king, Lord of speech, action, and intellect, freed from all foemen for himself, may that motherland of ours pour out her milk for me, as a mother does unto her son.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(याम्) भूमिम् (अश्विनौ) अ० २।२९।६। अहोरात्रौ−निरु० १२।१। (अमिमाताम्) माङ् माने शब्दे च−लङ्। परिमितां कृतवन्तौ (विष्णुः) व्यापकः सूर्यः (यस्याम्) भूम्याम् (विचक्रमे) पादविक्षेपं कृतवान् (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् जीवः (याम्) (चक्रे) कृतवान् (आत्मने) स्वहिताय (अनमित्राम्) शत्रुरहिताम् (शचीपतिः) अ० ३।१०।१२। शची=वाक्−निघ० १।११, कर्म−२।१, प्रज्ञा−३।९। शचीनां वाचां कर्मणां प्रज्ञानां वा पालकः (सा) (नः) अस्मभ्यम्। अस्माकं सर्वेषां हिताय (भूमिः) (वि) विविधम् (सृजताम्) ददातु (माता) जननी (पुत्राय) (मे) मह्यम् (पयः) अन्नम्। दुग्धम् ॥

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