अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 21
ऋषिः - अथर्वा
देवता - भूमिः
छन्दः - एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप्
सूक्तम् - भूमि सूक्त
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अ॒ग्निवा॑साः पृथि॒व्यसित॒ज्ञूस्त्विषी॑मन्तं॒ संशि॑तं मा कृणोतु ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निऽवा॑सा: । पृ॒थि॒वी । अ॒सि॒त॒ऽज्ञू: । त्विषि॑ऽमन्तम् । सम्ऽशि॑तम् । मा॒ । कृ॒णो॒तु॒ ॥१.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निवासाः पृथिव्यसितज्ञूस्त्विषीमन्तं संशितं मा कृणोतु ॥
स्वर रहित पद पाठअग्निऽवासा: । पृथिवी । असितऽज्ञू: । त्विषिऽमन्तम् । सम्ऽशितम् । मा । कृणोतु ॥१.२१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राज्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(अग्निवासाः) अग्नि के साथ निवास करनेवाली [अथवा अग्नि के वस्त्रवाली], (असितज्ञूः) बन्धनरहित कर्म को [जतानेवाली] (पृथिवी) पृथिवी (मा) मुझ को (त्विषिमन्तम्) तेजस्वी और (संशितम्) तीक्ष्ण [फुरतीला] (कृणोतु) करे ॥२१॥
भावार्थ
जैसे भूमि भीतर और बाहिर सूर्यताप से बल पाकर अपने मार्ग पर बेरोक चलती रहती है, वैसे ही मनुष्य भीतरी और बाहिरी बल बढ़ाकर सुमार्ग में बढ़ता चले ॥२१॥
टिप्पणी
२१−(अग्निवासाः) वसेर्णित्। उ० ४।११८। वस निवासे आच्छादने च−असुन्। अग्निना तापेन सह निवासो यस्याः सा। यद्वा, तापो वस्त्रं यस्याः सा (पृथिवी) (असितज्ञूः) षिञ् बन्धने−क्त+ अन्दूदृम्फूजम्बू०। उ० १।९३। ज्ञा विज्ञापने−कू। अबद्धं कर्म ज्ञापयति बोधयति नियोजयति वा सा (त्विषिमन्तम्) दीप्तिमन्तम् (संशितम्) तीक्ष्णीकृतम् (मा) माम् (कृणोतु) करोतु ॥
विषय
असित-ज्ञुः
पदार्थ
१. (पृथिवी) = यह भूमि (अग्निवासा:) = अग्निरूप वस्त्र को धारण किये हुए है तथा इसमें अग्नि का वास है-पृथिवी के अन्दर भी अग्नि तत्त्व है और बाहर भी। (असित-ज्ञुः) = यह 'अग्निवासा: पृथिवी' उस अबद्ध, [अ सक्त] प्रभु का ज्ञान दे रही है। इसपर उत्पन्न एक-एक पत्र-पुष्प उस प्रभु की महिमा का प्रतिपादन कर रहा है। २. यह पृथिवी (मा) = मुझे (त्विषीमन्तम्) = ज्ञान की दीप्ति वाला व (संशितम्) = तेजस्वी (कृणोतु) = करे। इसका एक-एक पदार्थ मेरी उत्सुकता को बढ़ाता हुआ मेरी ज्ञानवृद्धि का कारण बने और इसके पदार्थ मुझसे ठीक उपयुक्त हुए-हुए मुझे तेजस्वी बनाएँ।
भावार्थ
यह अग्निवासा पृथिवी मुझे भी ज्ञानाग्नि व तेजस्विता की अनिवाला बनाए।
भाषार्थ
(अग्निः, दिवः, आ तपति) अग्नि अर्थात् सौराग्नि द्युलोक से आ कर ताप देती है, (उरु, अन्तरिक्षम्) विस्तृत अन्तरिक्ष (देवस्य अग्नेः) द्योतमान अग्नि अर्थात् विद्युत् का स्थान है, (हव्यवाहम्) हवियों को वहन करने वाली, (घृतप्रियम्) घृत की प्यारी अग्नि को (मर्तासः) मनुष्य (इन्धते) यज्ञों में प्रदीप्त करते हैं ॥२०॥ (पृथिवी अग्निवासाः) पृथिवी में अग्नि बसी हुई है, (असितज्ञूः) यह पृथिवी बन्धन को नहीं जानती, पृथिवी (मा) मुझ प्रत्येक पृथिवी वासी के (त्विषीमन्तम्) दीप्तिमान् तथा (संशितम्) सम्यक् उग्ररूप (कृणोतु) करे।
टिप्पणी
[मन्त्र १९ - २१; भूम्याम्= पार्थिव अग्नि ज्वालामुखी पर्वतों में प्रायः प्रकट होती है। ओषधियों में निहित अग्नि ओषधियों के जलाने पर प्रकट होती है। आपः अर्थात् जल में अग्नि रहती है, यथा "अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा। अग्निं च विश्वशम्भुवम्" (अथर्व० १।६।२)। विश्वशम्भुवम्= सब रोगों को शान्त करने वाली अग्नि। अश्मा अर्थात् पत्थर पर पत्थर की चोट मारने पर अग्नि प्रकट होती है, और मेघों में विद्युत् रूप में अग्नि प्रकट होती है। पुरुषों, अश्वों तथा गौओं में जाठराग्नि तथा शारीरिक तापमान के रूप में organic अग्नियां होती हैं (मन्त्र १९)। अग्नेः, देवस्य = अन्तरिक्ष व्यापी Ionic sphere; असितज्ञूः= अ+ षिञ् बन्धने+ज्ञा अव=बोधने। पृथिवी स्वतन्त्रता को जानती है, बन्धन को नहीं। परतन्त्र हुए देश भी समय पा कर स्वतन्त्र हो जाते हैं। संशितम्= स्वतन्त्रता की प्राप्ति तथा स्वतन्त्रता की रक्षा के लिये उग्रता। अन्तरिक्ष के अल्पस्थान में वायु और जल विद्यमान हैं। शेष विस्तृत अन्तरिक्ष में सूर्य से निकले विद्युत् से आविष्ट सौर-कण व्याप्त हैं, जिन्हें कि आयोनिकस्तर कहते हैं]
विषय
पृथिवी सूक्त।
भावार्थ
उक्त मन्त्रों का अभिप्राय यह है कि (अग्निवासाः) अग्नि से बाहर भीतर और सर्वत्र आच्छादित (पृथिवी) पृथिवी (असितज्ञः) उस बन्धनरहित, व्यापक परमेश्वर रूप अग्नि को जतलाने वाली है। वह (मा) मुझको (त्विषीमन्तम्) दीप्तिमान् (संशितम्) अति तीक्ष्ण तेजस्वी (कृणोतु) करे। ‘प्राचीदिगग्निरधिपतिरसितो रक्षिता’।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘त्विषीवन्तं’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
('अग्निवासाः-असितज्ञ्'-पृथिवी) अग्नि है वासस्वस्त्रावरण जिसका अग्नि तत्र के आवरण वाली- आग्नेय पदार्थों से भरपूर, असित-कृष्ण पदार्थ जिससे अग्नि प्रादुर्भूत होती है उस इन्धन कोयले द्रव्य वायव्य पदार्थों की जननी "जन धातोः कुः, उपधालोपश्छान्दसः पुनः ऊङ्गतः स्त्रियाम् ।" यह पृथिवी (मा त्विषीमन्तं संशितं कृणोतु) मुझे दीप्तिमान् तीव्र शक्ति वाला बना दें ॥२१॥
विशेष
ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Mother Earth
Meaning
The Earth, wrapped in fire, unbound with limitations, may, I pray, vest me in light and fire and turn me sharp and refined.
Translation
Let the earth, fire-clad, black-kneed, make me sharpened, brilliant.
Translation
May this Mother Earth clothed in heat and adding unfettered voluntary effort in living creatures make me powerful (or brilliant and agile).
Translation
O Motherland, thou art invested with a fiery mouth, thou art the displayer unto us of the unfettered God. Make me noble and energetic.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२१−(अग्निवासाः) वसेर्णित्। उ० ४।११८। वस निवासे आच्छादने च−असुन्। अग्निना तापेन सह निवासो यस्याः सा। यद्वा, तापो वस्त्रं यस्याः सा (पृथिवी) (असितज्ञूः) षिञ् बन्धने−क्त+ अन्दूदृम्फूजम्बू०। उ० १।९३। ज्ञा विज्ञापने−कू। अबद्धं कर्म ज्ञापयति बोधयति नियोजयति वा सा (त्विषिमन्तम्) दीप्तिमन्तम् (संशितम्) तीक्ष्णीकृतम् (मा) माम् (कृणोतु) करोतु ॥
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