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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 24
    ऋषिः - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती सूक्तम् - भूमि सूक्त
    83

    यस्ते॑ ग॒न्धः पुष्क॑रमावि॒वेश॒ यं सं॑ज॒भ्रुः सू॒र्याया॑ विवा॒हे। अम॑र्त्याः पृथिवि ग॒न्धमग्रे॒ तेन॒ मा सु॑र॒भिं कृ॑णु॒ मा नो॑ द्विक्षत॒ कश्च॒न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । ते॒ । ग॒न्ध: । पुष्क॑रम् । आ॒ऽवि॒वेश॑ । यम् । स॒म्ऽज॒भ्रु: । सू॒र्याया॑: । वि॒ऽवा॒हे । अम॑र्त्या: । पृ॒थि॒वि॒ । ग॒न्धम् । अग्रे॑ । तेन॑ । मा॒ । सु॒र॒भिम् । कृ॒णु॒ । मा । न॒: । द्वि॒क्ष॒त॒ । क: । च॒न ॥१.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्ते गन्धः पुष्करमाविवेश यं संजभ्रुः सूर्याया विवाहे। अमर्त्याः पृथिवि गन्धमग्रे तेन मा सुरभिं कृणु मा नो द्विक्षत कश्चन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । ते । गन्ध: । पुष्करम् । आऽविवेश । यम् । सम्ऽजभ्रु: । सूर्याया: । विऽवाहे । अमर्त्या: । पृथिवि । गन्धम् । अग्रे । तेन । मा । सुरभिम् । कृणु । मा । न: । द्विक्षत । क: । चन ॥१.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 24
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राज्य की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (पृथिवी) हे पृथिवी ! (यः) जो (ते) तेरा (गन्धः) [अंश] (पुष्करम्) पोषक पदार्थ [वा कमल] में (आविवेश) प्रविष्ट हुआ है, (यं गन्धम्) जिस गन्ध को (सूर्यायाः) सूर्य की चमक के (विवाहे) ले चलने में (अमर्त्याः) अमर [पुरुषार्थी] लोगों ने (अग्रे) पहिले (संजभ्रुः) समेटा है, (तेन) उसी [अंश] से (मा) मुझको (सुरभिम्) ऐश्वर्यवान् (कृणु) तू कर, (कश्चन) कोई भी [प्राणी] (नः) हम से (मा द्विक्षत) न वैर करे ॥२४॥

    भावार्थ

    पृथिवी का गन्ध अर्थात् अंश प्रविष्ट होकर पदार्थों को पुष्ट करता और सूर्य के ताप द्वारा देश-देशान्तरों में पहुँचता है। उस पृथिवी से तत्त्ववेत्ता लोग उपकार लेकर प्रसन्न होते हैं ॥२४॥

    टिप्पणी

    २४−(यः) (ते) तव (गन्धः) म० २३ (पुष्करम्) पूषः कित्। उ० ४।४। पुष्णातेः−करन्। पोषकं पदार्थम्। कमलम् (आविवेश) प्रविष्टवान् (यम्) (संजभ्रुः) हृञ् हरणे−लिट्, हस्य भः संजह्रुः। संगृहीतवन्तः (सूर्यायाः) अ० ९।४।१४। सूर्यदीप्तेः (विवाहे) प्रवाहे। प्रापणे (अमर्त्याः) अमरधर्माणः। पुरुषार्थिनो जनाः (पृथिवी) (गन्धम्) (अग्रे)। अन्यत् पूर्ववत् म० २३ ॥

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    विषय

    कमल-गन्ध

    पदार्थ

    १. (यः) = जो, हे पृथिवि! (ते गन्धः) = तेरा गन्ध (पुष्करम् आविवेश) = कमल में प्रविष्ट हुआ - है तथा (यं गन्धम्) = जिस गन्ध को (अमा:) = ये अमरधर्मा वायु आदि देव (सूर्यायाः) = उषाकाल के विवाहे-विशिष्टरूप से प्राप्त होने पर (अग्रे संजभः) = आगे और आगे प्राप्त कराते हैं। सूर्योदय के अवसर पर कमल खिलते हैं और उनपर से बहनेवाला वायु उनके पराग-गन्ध को अपने साथ आगे ले-जाता है। हे (पृथिवि) = भूमिमातः! मा मुझे भी (तेन सुरभिं कृणु) = उस गन्ध से सुगन्धित जीवनवाला बना। २. जिस प्रकार वायुप्रवाह के साथ कमलगन्ध सर्वत्र प्रसृत होता है, उसी प्रकार मेरा जीवन सर्वत: यशोगन्ध से पूर्ण हो। उत्तमकों को करता हुआ मैं यशस्वी बन्। (कश्चन) = कोई भी (नः मा द्विक्षत) = हमारे साथ द्वेष न करे ।

    भावार्थ

    कमल-गन्ध की तरह हमारा जीवन उत्तम कर्मों की यशोगन्धवाला हो। हम सब के प्रिय बनें-किसी से हमारा द्वेष न हो। हम संसार-सरोवर में कमल की तरह अलिप्तभाव से रहें।

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    भाषार्थ

    हे पृथिवी ! (यः) जो (ते) तेरा (गन्धः) गन्ध (पुष्करम्) अन्तरिक्ष में (आ विवेश) आविष्ट हुआ है, (यम्) जिस (अग्रे) श्रेष्ठ गन्ध को (अमर्त्याः) अमानुष अर्थात् दिव्य शक्तियों ने, (सूर्यायाः विवाहे) सूर्या के विवाह में (संजभ्रुः) परस्पर मिले कर हरण अर्थात् प्राप्त किया है, (तेन) उस गन्ध द्वारा (मा) मुझ प्रत्येक पृथिवीवासी को (सुरभिम्) यशःसौरभ से सुरभित (कृणु) कर, ताकि (नः) हम में से (कश्चन) कोई भी (मा द्विक्षत) परस्पर द्वेष न करे।

    टिप्पणी

    [पुष्करम् = अन्तरिक्षम् (निघं० १।३)। सूर्यायाः विवाहे= सूर्या अर्थात् सूर्य की दुहिता अर्थात् रश्मि के विवाह में। अमावास्या में सूर्य और चन्द्रमा इकट्ठे अर्थात् परस्पर साथ रहते हैं, "आमा सह वसतः सूर्याचन्द्रमसौ यस्यां तिथौ सा अमावास्या। प्रतिपद्-तिथि में सूर्य की अल्परश्मियां चन्द्रमा पर पड़ती हैं जिस से चन्द्रमा अमावास्या की रात्रि के पश्चात् प्रकाशित होता है। इस घटना को सूर्या का विवाह कहा है, मानो रश्मिरूपी सूर्यकन्या विवाहित हो कर चन्द्रमा के घर गई है। इस घटना को निम्नलिखित मन्त्र में भी दर्शाया है। यथा—अत्रा ह गोरमम्वत नाम त्वष्टुरपीच्यम्। इत्या चन्द्रमसो गृहे। (ऋ० १।८४।१५)॥ अर्थात् "चन्द्रमा के इस घर में सूर्यरश्मि का नमन अर्थात् गमन, अवशिष्ट सूर्यरश्मियों ने मान लिया, स्वीकार कर लिया। यह नमन है त्वष्टा अर्थात् रूपाधिपति सूर्य से सौररश्मि का अपीच्य अर्थात् अपगत होना, सूर्य से हट का चन्द्रमा के घर जाना"। अथवा "पुष्करम्" कमल। अथर्ववेद में, माघमास में विवाह सम्बन्धी वचन प्रदान और फाल्गुन अर्थात् वसन्त में विवाह करने का निर्देश किया है, यथा “मघासु हन्यन्ते गावः फल्गुनीषु व्युह्यते" (२१।१।१३); गावः हन्यन्ते वचनानि दीयन्ते। वसन्त में प्राकृतिकदृश्य अतिसुहावने हो जाते हैं। वृक्षों में नव किसलय तथा पुष्प विकसित होते और पुष्पों की गन्ध को लेकर वायु प्रवाहित होने लगती है,— यह दृश्य पृथिवी के कारण होता है। इस लिये मानुष्य तथा सूर्या के विवाह के इस काल में सर्वत्र पृथिवी के सौरभ का विस्तार होता है]।

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    विषय

    पृथिवी सूक्त।

    भावार्थ

    (यः) जो (ते) तेरा (गन्धः) गन्ध (पुष्करम्) नील कमल में (आविवेश) प्रविष्ट है, (यं) जिस (गन्धम्) गन्ध को (सूर्यायाः विवाहे) सूर्या अर्थात् वर वीर्णनी कन्या के विवाह में या प्रातः उषा के प्राप्त होने के अवसर पर (अमर्त्याः) अमरण-धर्मा, विद्वान् पुरुष या वायु आदि दिव्य पदार्थ भी (अग्रे) सबसे पूर्व (संजभ्रुः) धारण करते हैं, (पृथिवि) पृथिवि ! (तेन) उससे (मा) मुझे भी (सुरभिम्) सुगन्धित (कृणु) कर और (नः) हम से (कश्चन) कोई (मा द्विक्षत) द्वेष न करे।

    टिप्पणी

    ‘तेनास्मान सुरभिः कृणु’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (पृथिवि ते यः-गन्धः पुष्करम्-अविवेश) हे पृथिवी ! जो तेरा गन्ध पुष्कर में- कमल में अविष्ट है (यं जघ्रः सूर्यायाः विवाहे) जिस गन्ध को सूर्या के विवाह में नवकन्या के शृंगारार्थ ग्रहण किया (अमर्त्याः-गन्धम्-अयं अमर्त्य देवजनों ने जिस गन्ध को ग्रहण किया (तेन पूर्ववत्) ॥२४॥

    विशेष

    ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Song of Mother Earth

    Meaning

    Mother Earth, that fragrance of yours which has entered the lotus flower, which, since time immemorial, the immortals bear and bring in radiation of the solar rays and their contact with the earth, with that fragrance make me fragrant. Let none of us hate any one, let no one hate us.

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    Translation

    What odor of thine entered into the blue lotus; which they brought together at Surya’s wedding — the immortals, O earth, what odor in the beginning — with that do thou make me odorous; let no one soever hate us.

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    Translation

    May the earth by that fragrance of herbs which has entered in to nutrient objects, which the enterprising noble-minded men have gathered from the diffused light of the sun, make me powerful. May no body bear us any ill will.

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    Translation

    Thy scent which entered and possessed the lotus, the scent which the immortal forces of nature like air assumed early in the morning, at the time of the rising of Dawn, O Earth! therewith make thou me sweet: let none hate me.

    Footnote

    Usha, Dawn, being the daughter of Sun is spoken of as सूर्या (विवाह) प्रवाहे। प्रापणे

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २४−(यः) (ते) तव (गन्धः) म० २३ (पुष्करम्) पूषः कित्। उ० ४।४। पुष्णातेः−करन्। पोषकं पदार्थम्। कमलम् (आविवेश) प्रविष्टवान् (यम्) (संजभ्रुः) हृञ् हरणे−लिट्, हस्य भः संजह्रुः। संगृहीतवन्तः (सूर्यायाः) अ० ९।४।१४। सूर्यदीप्तेः (विवाहे) प्रवाहे। प्रापणे (अमर्त्याः) अमरधर्माणः। पुरुषार्थिनो जनाः (पृथिवी) (गन्धम्) (अग्रे)। अन्यत् पूर्ववत् म० २३ ॥

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