अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 33
याव॑त्ते॒ऽभि वि॒पश्या॑मि॒ भूमे॒ सूर्ये॑ण मे॒दिना॑। ताव॑न्मे॒ चक्षु॒र्मा मे॒ष्टोत्त॑रामुत्तरां॒ समा॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठयाव॑त् । ते॒ । अ॒भि । वि॒ऽपश्या॑मि । भूमे॑ । सूर्ये॑ण । मे॒दिना॑ । ताव॑त् । मे॒ । चक्षु॑: । मा । मे॒ष्ट॒ । उत्त॑राम्ऽउत्तराम् । समा॑म् ॥१.३३॥
स्वर रहित मन्त्र
यावत्तेऽभि विपश्यामि भूमे सूर्येण मेदिना। तावन्मे चक्षुर्मा मेष्टोत्तरामुत्तरां समाम् ॥
स्वर रहित पद पाठयावत् । ते । अभि । विऽपश्यामि । भूमे । सूर्येण । मेदिना । तावत् । मे । चक्षु: । मा । मेष्ट । उत्तराम्ऽउत्तराम् । समाम् ॥१.३३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राज्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(भूमे) हे भूमि ! (यावत्) जब तक (मेदिना) स्नेही (सूर्येण) सूर्य के साथ (अभि) सब ओर (ते विपश्यामि) तेरा विविध प्रकार दर्शन करूँ। (तावत्) तब तक (मे) मेरी (चक्षुः) दृष्टि (उत्तरामुत्तराम्) उत्तम-उत्तम (समाम्) अनुकूल क्रिया को (मा मेष्ट) नहीं नाश करे ॥३३॥
भावार्थ
मनुष्य ऐसा प्रयत्न करें कि विद्यायत्नपूर्वक ईश्वर की अद्भुत रचनाओं से सदा उत्तम-उत्तम क्रियाएँ करते रहें, जैसे सूर्य प्रकाश आदि से उपकार करता है ॥३३॥
टिप्पणी
३३−(यावत्) यत्परिमाणम् (ते) तव (अभि) अभितः (वि पश्यामि) विविधं दर्शनं करोमि (भूमे) (सूर्येण) आदित्येन (मेदिना) स्नेहिना (तावत्) तत्परिमाणम् (मे) मम (चक्षुः) दृष्टिः (मा मेष्ट) मीञ् हिंसायाम्−लुङ्, माङि अडभावः। न हिनस्तु (उत्तरामुत्तराम्) अ० ३।१७।४। अतिशयेनोत्कृष्टाम् (समाम्) अ० ३।१०।१। समक्रियाम्। अनुकूलक्रियाम् ॥
विषय
सूर्य व दृष्टिशक्ति
पदार्थ
१. हे (भूमे) = भूमिमातः ! (मेदिना सूर्येण) = इस स्नेही मित्र सूर्य की सहायता से (यावत्) = जितना भी (ते अभिविपश्यामि) = तेरे इन सब पदार्थों को देखता हूँ (तावत्) = उतना ही में (चक्षुः) = मेरी आँख (मा मेष्ट) = हिंसित न हो। (उत्तरां उत्तरांसमाम्) = अगले और अगले वर्ष यह हिंसित न होकर अपना कार्य ठीक से करती रहे।
भावार्थ
इस पृथिवी पर हमारे स्नेही मित्र इस सूर्य की सहायता से हमारी दृष्टिशक्ति ठीक बनी रहे।
भाषार्थ
(भूमे) हे भूमि ! (सूर्येण मेदिना) स्नेही सूर्य की सहायता से (यावत्) जब तक (अभि) तेरी ओर (विपश्यामि) मैं विवेक पूर्वक देखता रहूं, (तावत्) तब तक (मे चक्षुः) मेरी आंख, (उत्तराम् उत्तराम समाम्) उत्तरोतर वर्षों में, (मा मेष्ट) नष्ट न हो।
टिप्पणी
[सांसारिक जीवन विवेक सम्पन्न होना चाहिये, भोग प्रेरित नहीं। चक्षु प्रायः मनुष्य को सांसारिक भोगों की ओर ले जाती है। मन्त्र का अभिप्राय यह है कि चक्षु यदि विवेकी जीवन में सहायक है तो इस की सत्ता शुभ है, अन्यथा इस की सत्ता अनावश्यक है। सूर्य तो मानो स्नेहपूर्वक सांसारिक दृश्यों का दर्शन हमें कराता है, परन्तु उनकी उपादेयता और अनुपादेयता में हमें विवेकदृष्टि का प्रयोग करना चाहिये, तभी दृष्टि की सार्थकता होगी। मेदी = मिद् स्नेहने। यावत्, तावत् = यावत् कालम्, तावत् कालम्]। अथवा "हे भूमि ! स्नेही सूर्य की सहायता से तेरे अभिमुख हो कर, तेरे जितने भाग को विविध रूपों में मैं देख रहा हूं तेरे उतने भाग को देखने के लिये मेरी चक्षु उत्तरोत्तर वर्षों में भी बनी रहे"। "पश्येम शरदः शतम्” के लिये यह स्वात्मबोधन (Auto-suggestion) है।
विषय
पृथिवी सूक्त।
भावार्थ
हे (भूमे) पृथिवि ! (मेदिना) मित्रभूत (सूर्येण) सूर्य की सहायता से (ते) तुझे (यावत्) जितना भी, जहां तक भी (अभि विपश्यामि) साक्षात् देखूं (तावत्) उतना, वहां तक भी (मे चक्षुः) मेरी आंखें (उत्तराम्-उत्तराम् समाम्) ज्यों ज्यों वर्ष गुज़रते जांय, त्यों त्यों (मा मेष्ट) कभी विनष्ट न हों। मैं तेरे दृश्य बराबर देखता रहूं और मेरी चक्षु की शक्ति बढ़े।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘भौमे’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(सूर्येण मेदिना भूमे यावत् ते अभिविपश्यामि) हे पृथिवी ! जब तक सूर्य तथा स्नेहवर्षक चन्द्रमा द्वारा उससे दृष्टि पाया हुआ मैं 'ते-त्वा' तुझे देखता रहूं (तावत्-मे चक्षुः माः-नेष्ट-उत्तराम्-उत्तरां समाम्) तब तक मेरा नेत्र उत्तर उत्तर वर्ष नष्ट न हो ॥३३॥
विशेष
ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Mother Earth
Meaning
O Motherland, as long as I live, look to you and watch around with the gracious light of the sun, that long let my eye and discriminative judgement never fail over time passing on with the passage of years.
Translation
How much of thee I look forth upon, O earth, with the sun for ally, so far let my sight not fail, from one year to another.
Translation
May the mother earth help me so that as long as I look around with the sun for my friend, my eyesight may not fail in successive excellent and beneficent undertakings.
Translation
Long as, O Motherland! on thee, I look around, with the help of kind Sun, so long, through each succeeding year, may not my power of vision fail.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३३−(यावत्) यत्परिमाणम् (ते) तव (अभि) अभितः (वि पश्यामि) विविधं दर्शनं करोमि (भूमे) (सूर्येण) आदित्येन (मेदिना) स्नेहिना (तावत्) तत्परिमाणम् (मे) मम (चक्षुः) दृष्टिः (मा मेष्ट) मीञ् हिंसायाम्−लुङ्, माङि अडभावः। न हिनस्तु (उत्तरामुत्तराम्) अ० ३।१७।४। अतिशयेनोत्कृष्टाम् (समाम्) अ० ३।१०।१। समक्रियाम्। अनुकूलक्रियाम् ॥
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