अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 23
यस्ते॑ ग॒न्धः पृ॑थिवि संब॒भूव॒ यं बिभ्र॒त्योष॑धयो॒ यमापः॑। यं ग॑न्ध॒र्वा अ॑प्स॒रस॑श्च भेजि॒रे तेन॑ मा सुर॒भिं कृ॑णु॒ मा नो॑ द्विक्षत॒ कश्च॒न ॥
स्वर सहित पद पाठय: । ते॒ । ग॒न्ध: । पृ॒थि॒वि॒ । स॒म्ऽब॒भूव॑ । यम् । बिभ्र॑ति । ओष॑धय: । यम् । आप॑: । यम् । ग॒न्ध॒र्वा: । अ॒प्स॒रस॑: । च॒ । भे॒जि॒रे । तेन॑ । मा॒ । सु॒र॒भिम् । कृ॒णु॒ । मा । न॒: । द्वि॒क्षत । क: । चन ॥१.२३॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते गन्धः पृथिवि संबभूव यं बिभ्रत्योषधयो यमापः। यं गन्धर्वा अप्सरसश्च भेजिरे तेन मा सुरभिं कृणु मा नो द्विक्षत कश्चन ॥
स्वर रहित पद पाठय: । ते । गन्ध: । पृथिवि । सम्ऽबभूव । यम् । बिभ्रति । ओषधय: । यम् । आप: । यम् । गन्धर्वा: । अप्सरस: । च । भेजिरे । तेन । मा । सुरभिम् । कृणु । मा । न: । द्विक्षत । क: । चन ॥१.२३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राज्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(पृथिवी) हे पृथिवी ! (यः) जो (ते) तेरा (गन्धः) गन्ध [अंश] (संबभूव) उत्पन्न हुआ है, (यम्) जिस [अंश] को (ओषधयः) ओषधें [अन्न, सोमलता आदि] और (यम्) जिसको (आपः) जल (बिभ्रति) धारण करते हैं। (यम्) जिसको (गन्धर्वाः) पृथिवी [के अंशः] को धारण करनेवाले [प्राणियों ने (च) और (अप्सरसः)] आकाश में चलनेवाले [जीवों और लोकों] ने (भेजिरे) भोगा है, (तेन) उस [गन्ध वा अंश] से (मा) मुझे (सुरभिम्) ऐश्वर्यवान् (कृणु) तू कर, (कश्चन) कोई भी [प्राणी] (नः) हम से (मा द्विक्षत) न वैर करे ॥२३॥
भावार्थ
गन्धवती पृथिवी का आश्रय लेकर अनेक प्रकार से सब प्राणी और सब लोक आकार धारण करके ठहरते हैं। मनुष्य उस पृथिवी के तत्त्वज्ञान से सब कार्य सिद्ध करके ऐश्वर्यवान् होवें ॥२३॥
टिप्पणी
२३−(यः) (ते) तव (गन्धः) घ्राणग्राह्यो गुणभेदः। लेशः (पृथिवी) (संबभूव) उत्पन्नो बभूव (यम्) गन्धम् (बिभ्रति) धारयन्ति (ओषधयः) अन्नसोमलतादयः (यम्) (आपः) जलानि (गन्धर्वाः) अ० ४।३७।२। कॄगॄशॄदॄभ्यो वः। उ० १।१५५। गो+धृञ् धारणे−व प्रत्ययः, गो शब्दस्य गमादेशः। गोर्भूमेर्धारकाः प्राणिनः (अप्सरसः) अ० ४।३७।२। अप्+सृ गतौ−असि। अप्सु आकाशे जले वा सरणशीला जीवा लोकाश्च (च) (भेजिरे) सेवितवन्तः (तेन) गन्धेन (मा) माम् (सुरभिम्) सुर ऐश्वर्यदीप्त्योरित्यस्माद् बाहुलकादौणादिकोऽमिच् प्रत्ययः−इति दयानन्दो यजु० १२।३५। ऐश्वर्यवन्तम् (कृणु) कुरु। अन्यद्गतम्−म० १८ ॥
विषय
गन्धवती पृथिवी
पदार्थ
१. हे (पृथिवि) = भूमे ! (यः ते गन्धः संबभूव) = जो तेरा गन्ध सर्वत्र विशेष गुणरूप से विद्यमान है। यम्-जिस गन्ध को ओषधयः बिभ्रति ओषधियाँ धारण करती हैं, और (यम् आप:) = जिसको जल धारण करते हैं। (यम्) = जिस गन्ध को गन्धर्वा: वेदवाणी के धारक ज्ञानी पुरुष (च) = तथा (अप्सरसः) = यज्ञादि कर्मों में संचरण करनेवाली स्त्रियाँ (भेजिरे) = सेवित करती हैं, (तेन) = उसी गन्ध से (मा) = मुझे (सुरभिं कृणु) = उत्तम गन्धवाला कर-मेरे जीवन को भी सुगन्धमय बना। २. मेरा जीवन इसप्रकार सुगन्धमय हो कि (कश्चन) = कोई भी (नः मा द्विक्षत) = हमसे द्वेष न करे।
भावार्थ
गन्ध पृथिवी का विशेष गुण है। सब ओषधियाँ व पृथिवी पर होनेवाले इस गन्ध को धारण किये हुए हैं। ज्ञानी पुरुष व क्रियाशील स्त्रियाँ उत्तम यशोगन्धवाले होते हैं। हमारा जीवन भी ज्ञान व कर्म से यशस्वी व सुगन्धित हो। कोई भी हमसे द्वेष न करे।
भाषार्थ
(पृथिवी) हे विस्तृत पृथिवी ! (यः गन्धः) जो गन्ध (ते) तेरा (संबभूव) तुझ में मिश्रित सत्ता वाला है, (यम्) जिस को (ओषधयः) ओषधियां, (यम्) और जिस को (आपः) जल (बिभ्रति) धारण करते है। (यम्) जिसे कि (गन्धर्वाः, अप्सराः च) गन्धर्व और अप्सराएं (भेजिरे) सेवन करती हैं, (तेन) उस गन्ध द्वारा (मा) मुझ प्रत्येक पृथिवीवासी को (सुरभिम्) सुरभित (कृणु) कर, ताकि (नः) हम में से (कश्चन) कोई भी (मा द्विक्षत्) परस्पर द्वेष न करे।
टिप्पणी
[पृथिवी का स्वाभाविक गुण है गन्ध। गन्धवती पृथिवी (तर्क संग्रह ३)। ओषधियों में, तथा उत्सों, अर्थात् चश्मों के जलों में गन्ध नैमित्तिक है, पृथिवी से उत्पन्न होने के कारण है। गन्धर्वाः अर्थात् गो (पृथिवी) पर धर्वाः (धृत) पदार्थो में, तथा अप्सरसः अर्थात् जलों में विचरने वाले जलचर प्राणियों में जो गन्ध हैं वे भी उन के पृथिवी से पैदा होने के कारण हैं। प्रत्येक पृथिवीवासी पृथिवी से यशःसौरभ की याचना करता है, जो यशःसौरभ पृथिवीवासी के क्षमाशील होने के कारण होता है, और जिस के होने पर पृथिवीवासी परस्पर में द्वेष नहीं करते। पृथिवी में एक विचित्र गन्ध भी है, वह है क्षमा शीलता, सहन शीलता, इसी लिये पृथिवी का नाम है क्षमा। क्षमा पृथिवीनाम (निघं० १।१)]
विषय
पृथिवी सूक्त।
भावार्थ
हे (पृथिवि) पृथिवि ! (ते) तुझ में (यः) जो (गन्धः) (संबभूव) सर्वत्र विशेष गुणरूप से विद्यमान है (यम्) जिसको प्रत्यक्ष रूप से (ओषधयः) ओषधियां और (यम्) जिसको (आपः) नाना प्रकार के जल और द्रव भी (बिभ्रति) धारण करते हैं (यम्) जिसको (गन्धर्वाः) पुरुष और (अप्सरसः च) स्त्रियें (भेजिरे) सेवन करती हैं (तेन) उस गन्ध से (मा) मुझ को (सुरभिम्) सुगन्धित (कृणु) कर और (नः) हमें (कश्चन) कोई भी (मा द्विक्षत) द्वेष न करे।
टिप्पणी
(तृ०) भेजिरे यस्तेगामश्वमर्हति (च०) तेनास्मान्सुरभिः कृणु। इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(पृथिवि ते यः-गन्धः सम्बभूव) हे पृथिवी ! जो तेरा गन्ध सम्यक सिद्ध है (यम्-ओषधयः-यम्-आपः-बिभ्रति) जिसे ओषधियां, जिसे जल धारण करते हैं (यं गन्धर्वाः-अप्सरसः-च भेजिरे) जिसे गन्धर्व और अप्सरसः पृथिवी के अन्दर धरे हुए पदार्थों ने और पृथिवी के बाहिर विचरने वाले पदार्थ धारण करते हैं (तेन मा सुरभिं कृणु मा नः द्विक्षत कश्चन) उससे मुझे अच्छी गन्ध वाला बनाये, उससे कोई हमारे प्रति द्वेष - घृणा न करे ॥२३॥
विशेष
ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Mother Earth
Meaning
Earth Mother, that sweet fragrance which is your very essence, which herbs and trees, and seas and streams bear, which Gandharvas and Apsaras, all those that live and play on earth and those that float and frolick and swim in waters share, with that same fragrance make me fragrant. Let none of us hate any one, let no one hate us.
Translation
What odor of thine, O earth, came into being, which the herbs, which the waters bear, which the Gandharvas and Apsarases shared -- with that do thou make me odorous; let no one soever hate us.
Translation
May the earth through that characteristic of herbs which appears as smell, borne by herbs and waters, which is shared in by creatures constituted of earthly particles and by creatures moving in water, make me powerful. May no body bear us any ill will.
Translation
Scent that hath risen from thee, O Earth! the fragrance which growing herbs and plants and waters carry, shared by men and women, therewith make thou me sweet: let no man hate me.
Footnote
Scent that hath risen: A philosophical definition of earth is gandhasvati, she who is endowed with fragrance or odor, which is regarded as its peculiar characteristic.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२३−(यः) (ते) तव (गन्धः) घ्राणग्राह्यो गुणभेदः। लेशः (पृथिवी) (संबभूव) उत्पन्नो बभूव (यम्) गन्धम् (बिभ्रति) धारयन्ति (ओषधयः) अन्नसोमलतादयः (यम्) (आपः) जलानि (गन्धर्वाः) अ० ४।३७।२। कॄगॄशॄदॄभ्यो वः। उ० १।१५५। गो+धृञ् धारणे−व प्रत्ययः, गो शब्दस्य गमादेशः। गोर्भूमेर्धारकाः प्राणिनः (अप्सरसः) अ० ४।३७।२। अप्+सृ गतौ−असि। अप्सु आकाशे जले वा सरणशीला जीवा लोकाश्च (च) (भेजिरे) सेवितवन्तः (तेन) गन्धेन (मा) माम् (सुरभिम्) सुर ऐश्वर्यदीप्त्योरित्यस्माद् बाहुलकादौणादिकोऽमिच् प्रत्ययः−इति दयानन्दो यजु० १२।३५। ऐश्वर्यवन्तम् (कृणु) कुरु। अन्यद्गतम्−म० १८ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal