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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 63
    ऋषिः - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - भूमि सूक्त
    124

    भूमे॑ मात॒र्नि धे॑हि मा भ॒द्रया॒ सुप्र॑तिष्ठितम्। सं॑विदा॒ना दि॒वा क॑वे श्रि॒यां मा॑ धेहि॒ भूत्या॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भूमे॑ । मा॒त॒: । नि । धे॒हि॒ । मा॒ । भ॒द्रया॑ । सुऽप्र॑तिस्थितम् । स॒म्ऽवि॒दा॒ना । दि॒वा । क॒वे॒ । श्रि॒याम् । मा॒ । धे॒हि॒ । भूत्या॑म् ॥१.६३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भूमे मातर्नि धेहि मा भद्रया सुप्रतिष्ठितम्। संविदाना दिवा कवे श्रियां मा धेहि भूत्याम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भूमे । मात: । नि । धेहि । मा । भद्रया । सुऽप्रतिस्थितम् । सम्ऽविदाना । दिवा । कवे । श्रियाम् । मा । धेहि । भूत्याम् ॥१.६३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 63
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राज्य की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (भूमे मातः) हे धरती माता ! (मा) मुझ को (भद्रया) कल्याणा मति के साथ (सुप्रतिष्ठितम्) बड़ी प्रतिष्ठावाला (नि धेहि) बनाए रख। (कवे) हे गतिशीले ! [जो चलती है वा जिस पर हम चलते हैं] (दिवा) प्रकाश के साथ (संविदाना) मिली हुई तू (मा) मुझ को (श्रियाम्) श्री [सम्पत्ति] में और (भूत्याम्) विभूति [ऐश्वर्य] में (धेहि) धारण कर ॥६३॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य उत्तम भाव से पृथिवी पर अपना कर्तव्य पालते हैं, वे बड़ी प्रतिष्ठा पाकर ऐश्वर्यवान् और श्रीमान् होते हैं ॥६३॥ इति प्रथमोऽनुवाकः ॥

    टिप्पणी

    ६३−(भूमे) हे धरित्रि (मातः) हे निर्मात्रि (नि धेहि) स्थापय (भद्रया) कल्याण्या मत्या (सुप्रतिष्ठितम्) सुप्रतिष्ठायुक्तम् (संविदाना) म० ४८। संगच्छमाना (दिवा) प्रकाशेन (कवे) अ० ४।१।७। कुङ् गतिशोषणयोः हृञ्। कवते, गतिकर्मा−निघ० २।१४। हे गतिशीले (श्रियाम्) सेवनीयायां सम्पत्तौ (मा) माम् (धेहि) धारय (भूत्याम्) प्रापणीयायां विभूतौ। ऐश्वर्ये ॥

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    विषय

    श्री+भूति

    पदार्थ

    १. हे (भूमे मातः) = मातृवत् हितकारिणि भूमे! तू (मा) = मुझे (भद्रया) = गौ के द्वारा (सप्रतिष्ठितम् धेहि) = घर में सम्यक स्थापित कर । गौ के होने पर घर में 'स्वास्थ्य, शान्ति व दीसि' बनी रहती है। गोदुग्ध हमें शरीर से स्वस्थ, मन से शान्त तथा मस्तिष्क से ज्ञानदीप्त बनाता है। २. हे (कवे) = प्रशंसनीय [Praise-worthy] (मातः) = ! दिवा (संविदाना) = प्रकाशमय इस द्युलोक से [द्यौष्पिता, पृथिवी माता] संज्ञान-[ऐकमत्य]-बाली होती हुई तू (मा) = मुझे (श्रियाम्) = श्री में तथा (भूत्याम्) = भूति में-ऐश्वर्य में धेहि स्थापित कर। हम श्रीवाले बनें-धनों को प्राप्त करें और भूतिसम्पन्न हों ऐश्वर्यवाले हों, उन धनों के स्वामी बनकर आनन्द को प्राप्त करें।

    भावार्थ

    हे भूमिमातः ! मैं तेरे पृष्ठ पर गौ के साथ में सम्यक् प्रतिष्ठित होऊँ। यह पृथिवी माता, पिता धुलोक के साथ, मुझे श्री और भूति में स्थापित करे। में आवश्यक धनों को प्राप्त करके जीवन को आनन्दमय बना पाऊँ।

    इस भूमिमाता की गोद में रहता हुआ जो भी व्यक्ति अपना ठीक प्रकार से परिपाक करता है, वह 'भृगु [भ्रस्ज पाके] बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है। यह क्रव्याद् अग्नि को [न केवलं क्रव्यात् शवदाहे शवमासम् अनति अपितु घोरत्वात् यक्ष्मादीन बहन रोगान् मृत्यु च बहुविधम् आवहति । तथैव नाना प्रकारको भवति-सा०] रोग, आपत्ति व मृत्यु की कारणभूत अग्नि को सम्बोधन करते हुए कहता है कि -

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    भाषार्थ

    (भूमे मातः) हे सर्वोत्पादिके माता ! (भद्रया) कल्याणकारिणी और सुखदायिनी बुद्धि के कारण उत्तमप्रतिष्ठा वाले या उत्तमदृढ़ स्थिति वाले (मा) मुझ को, (निधेहि) अपनी निधि जानकर, धारित तथा परिपुष्ट कर। (कवे)१ हे वेद-काव्य की कवि ! (संविदाना) सम्यक् ज्ञान वाली तू (दिवा) प्रतिदिन (मा) मुझे (श्रियाम्) शोभा में तथा (भूत्याम्) सम्पत्ति में (धेहि) स्थापित कर।

    टिप्पणी

    [भूमिः, संविदाना, माता,—ये तीनों पद स्त्रीलिङ्ग में हैं। स्त्रीलिङ्ग पदों द्वारा वाच्य व्यक्ति को "कवि" कहा है। वर्तमान प्रचलित हिन्दी साहित्य में, स्त्री कवि के लिये, कवि शब्द का प्रयोग न कर "कवयित्री" शब्द का प्रयोग किया जाता है, जोकि अग्राह्य है]। [१. कविपद के संनिधान से मन्त्र में पारमेश्वरी माता का वर्णन प्रतीत होता है। अथवा भूमिष्ठ कवियों के कारण, गौणरूप में भूमि को कवि कहा है।]

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    विषय

    पृथिवी सूक्त।

    भावार्थ

    हे (भूमे) भूमे ! (मातः) हे मातः ! (मा) मुझे (भद्रया) कल्याण और सुखकारिणी लक्ष्मी से (सुप्रतिष्ठितम् धेहि) उत्तम रीति से प्रतिष्टित कर। हे (कवे) क्रान्तदार्शनि ! अन्तर्यामिनि ! देवि ! तू (दिवा) द्यौलोक या प्रकाशमान सूर्य से (संविदाना) सुसंगत होकर (मां) मुझे (श्रियां) श्री, लक्ष्मी और (भूत्याम्) धन सम्पत्ति, विभूति में (धेहि) स्थापित कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (भूमे मातः-भद्रया सुप्रतिष्ठितं मा निधेहि) हे पृथिवि माता ! त् कल्याण भावना से सुप्रतिष्ठित मुझ को अपने आश्रय मैं धारण कर (कवे दिवा संविदाना) हे दूर तक पहुँची हुई गई हुई "कवते-मतिकर्मा" (नि० २।१४) द्युमण्डल-मेघ के साथ या सूर्यप्रकाश के साथ सहयोग को प्राप्त हुई (श्रियां भूत्यामाधेहि) लक्ष्मी शोभा सम्पत्ति में और-भूति-विभूति विशेष जीवन सिद्धि में धर स्थापित कर ॥६३॥

    विशेष

    ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Song of Mother Earth

    Meaning

    Earth Mother, creative, dynamic and one with me, sustain and support me with light and all that is good. Keep me established firmly in wealth, honour and excellence, blest in prosperity and grace.

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    Translation

    O mother earth, do thou kindly set me down well established; in concord with the heaven, O sage, do thou set me in fortune, in prosperity.

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    Translation

    May the mother earth keep me safe with an understanding leading to happiness. May she who ever moves in unison with the sun established us in wealth and prosperity ?

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    Translation

    O Motherland, set thou me happily in a position of honour. Of one accord with the Sun, O revolving Earth, set me in glory and in wealth.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६३−(भूमे) हे धरित्रि (मातः) हे निर्मात्रि (नि धेहि) स्थापय (भद्रया) कल्याण्या मत्या (सुप्रतिष्ठितम्) सुप्रतिष्ठायुक्तम् (संविदाना) म० ४८। संगच्छमाना (दिवा) प्रकाशेन (कवे) अ० ४।१।७। कुङ् गतिशोषणयोः हृञ्। कवते, गतिकर्मा−निघ० २।१४। हे गतिशीले (श्रियाम्) सेवनीयायां सम्पत्तौ (मा) माम् (धेहि) धारय (भूत्याम्) प्रापणीयायां विभूतौ। ऐश्वर्ये ॥

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