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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 17
    ऋषिः - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - त्र्यवसाना पञ्चपदा शक्वरी सूक्तम् - भूमि सूक्त
    142

    वि॑श्व॒स्वं मा॒तर॒मोष॑धीनां ध्रु॒वां भूमिं॑ पृथि॒वीं धर्म॑णा धृ॒ताम्। शि॒वां स्यो॒नामनु॑ चरेम वि॒श्वहा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒श्व॒ऽस्व᳡म् । मा॒तर॑म् । ओष॑धीनाम् । ध्रु॒वाम् । भूमि॑म् । पृ॒थि॒वीम् । धर्म॑णा । धृ॒ताम् । शि॒वाम् । स्यो॒नाम् । अनु॑ । च॒रे॒म॒ । वि॒श्वहा॑ ॥१.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वस्वं मातरमोषधीनां ध्रुवां भूमिं पृथिवीं धर्मणा धृताम्। शिवां स्योनामनु चरेम विश्वहा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वऽस्वम् । मातरम् । ओषधीनाम् । ध्रुवाम् । भूमिम् । पृथिवीम् । धर्मणा । धृताम् । शिवाम् । स्योनाम् । अनु । चरेम । विश्वहा ॥१.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 17
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राज्य की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (विश्वस्वम्) सब उत्पन्न करनेवाली, (ओषधीनाम्) ओषधियों [अन्न सोमलता आदि] की (मातरम्) माता, (ध्रुवाम्) दृढ़, (भूमिम्) आश्रय स्थान, (धर्मणा) धर्म [धरने योग्य स्वभाव वा कर्म] से (धृताम्) धारण की गयी, (शिवाम्) कल्याणी, (स्योनाम्) मनभावनी (पृथिवीम् अनु) पृथिवी के पीछे (विश्वहा) अनेक प्रकार (चरेम) हम चलें ॥१७॥

    भावार्थ

    मनुष्य धर्म के साथ भूमि का शासन करके समस्त उत्तम गुणों और पदार्थों से सुख प्राप्त करें ॥१७॥

    टिप्पणी

    १७−(विश्वस्वम्) षूङ् प्राणिगर्भविमोचने−क्विप्। सर्वस्य प्रसवित्रीम्, उत्पादयित्रीम् (मातरम्) जननीम् (ओषधीनाम्) अन्नसोमलतादीनाम् (ध्रुवाम्) दृढाम् (भूमिम्) निवासस्थानम् (पृथिवीम्) (धर्मणा) धरणीयेन स्वभावेन कर्मणा वा (धृताम्) धारिताम् (शिवाम्) कल्याणीम् (स्योनाम्) सुखदाम् (अनु) अनुसृत्य (चरेम) गच्छेम (विश्वहा) विश्वधा। अनेकप्रकारेण ॥

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    विषय

    'विश्व-सू' पृथिवी

    पदार्थ

    १. (विश्वस्वम्) = [सः] सम्पूर्ण धनों को उत्पन्न करनेवाली, (ओषधीनां मातरम्) = ओषधियों को मातृभूत (ध्रुवाम्) = मर्यादा में स्थित, (पृथिवीम्) = अतिशयेन विस्तारवाली (भूमिम्) = इस भूमि पर (विश्वहा) = सदा (अनुचरेम्) = अनुकूलता से विचरण करें। यह पृथिवी इतनी विशाल है कि यहाँ परस्पर संघर्ष की आवश्यकता ही नहीं। २. इस पृथिवी पर हम विचरण करें जोकि (धर्मणा धृताम्) = धर्म से धारण की गई है, अर्थात् जब तक यहाँ रहनेवाले मनुष्य धर्म का पालन करते हैं तब तक यह पृथिवी भी सबका धारण करती हुई सुन्दर बनती है। (शिवाम्) = यह कल्याणकारिणी है और (स्योनाम्) = सुख-दा है। अध्यात्म दृष्टिकोण से व भौतिक दृष्टिकोण से दोनों ही दृष्टिकोणों से यह हमारा शुभ करती है।

    भावार्थ

    यह पृथिवी सब धनों को उत्पन्न करती है, ओषधियों को जन्म देती है। यह हमारे लिए मातृवत् कल्याणकारिणी है। धर्म के द्वारा इसका धारण होता है [धर्मों धारयते प्रजाः]।

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    भाषार्थ

    (विश्वस्वम्) सब प्रकार के पदार्थों की उत्पादिका, (ओषधीनां मातरम) ओषधियों की माता, (ध्रुवाम्) स्थिर, (भूमिम्) अन्नोत्पादिका, (धर्मणा धृताम्) बृहत्सत्य आदि धारकगुणों या धर्मों द्वारा धारित-पोषित, (शिवाम्) कल्याणकारिणी, (स्योनाम्) तथा सुखदायिनी (पृथिवीम्) विस्तृत पृथिवी पर, (विश्वहा) सब दिन, (अनु) परस्पर की अनुकूलता में (चरेम) हम विचरें।

    टिप्पणी

    [धर्मणा = अथर्व० (१२।१।१)। धर्म का परिणाम है; पृथिवी का शिवरूपा तथा स्योनरूपा होना। विश्वहा = विश्वाहा।]

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    विषय

    पृथिवी सूक्त।

    भावार्थ

    (विश्वस्वं) हमारी सर्वस्व या समस्त धनों को धारण और उत्पन्न करने वाली (ओषधीनां मातरम्) ओषधियों की उत्पन्न करने वाली, उनकी माता, (ध्रुवाम्) स्थिर (धर्मणा धृताम्) परस्पर के सत्य और धर्म, प्रेम और परोपकार द्वारा परिपालित, (शिवाम्) कल्याणकारिणी, (स्योनाम्) सुखकारिणी, (भूमिम्) सब के उत्पन्न करने हारी (पृथिवीम्) पृथिवी में हम (विश्वहा) सदा और सब प्रदेशों में सब प्रकारों से (अनुचरेम) विचरण करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (विश्वस्वं) विश्व को उत्पन्न करने वाली-या सर्व स्वरूप (ओषधीनां मातरम्) ओषधियों की माता (ध्रुवां भूमिं पृथिवीम्) ध्रुव भूमि उत्पत्तिस्थान पृथिवी (धर्मणा धृताम्) धर्म नियम से सम्भाली हुई (शिवां स्योनां विश्वहा-अनुचरेम् ) शिव-कल्याणकारी सुख रूप को हम सदा अनुष्टित करें सुरक्षित सेवन करें ॥१७॥

    विशेष

    ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Song of Mother Earth

    Meaning

    O children of the earth, let us all together and always serve and live in accord with the universal love, unity and generosity of Mother Earth, vast and wide, mother of all herbs and trees, firm, established in Dharma, blissfully peaceful, beautiful and gracious beyond bounds.

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    Translation

    The all-producing mother of herbs, the fixed earth, the earth maintained by ordinance, the auspicious, the pleasant, may we go about over always.

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    Translation

    May we, in all the ways follow (the natural law working in) that motherland who produces and possesses all terrestrial objects is the mother of all herbs who affords firm stand to all creatures, who is upheld by righteousness, and who is auspicious, charming and spacious.

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    Translation

    Sacrificing our all, for "all the days of our life, we will serve our motherland, the producer of plants and herbs, steadfast, vast in extent, sustained through truth, knowledge and valour, gracious, and the giver of joy.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १७−(विश्वस्वम्) षूङ् प्राणिगर्भविमोचने−क्विप्। सर्वस्य प्रसवित्रीम्, उत्पादयित्रीम् (मातरम्) जननीम् (ओषधीनाम्) अन्नसोमलतादीनाम् (ध्रुवाम्) दृढाम् (भूमिम्) निवासस्थानम् (पृथिवीम्) (धर्मणा) धरणीयेन स्वभावेन कर्मणा वा (धृताम्) धारिताम् (शिवाम्) कल्याणीम् (स्योनाम्) सुखदाम् (अनु) अनुसृत्य (चरेम) गच्छेम (विश्वहा) विश्वधा। अनेकप्रकारेण ॥

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