अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 26
शि॒ला भूमि॒रश्मा॑ पां॒सुः सा भूमिः॒ संधृ॑ता धृ॒ता। तस्यै॒ हिर॑ण्यवक्षसे पृथि॒व्या अ॑करं॒ नमः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठशि॒ला । भूमि॑: । अश्मा॑ । पां॒सु: । सा । भूमि॑: । सम्ऽधृ॑ता । धृ॒ता । तस्यै॑ । हिर॑ण्यऽवक्षसे । पृ॒थि॒व्यै । अ॒क॒र॒म् । नम॑: ॥२.२६॥
स्वर रहित मन्त्र
शिला भूमिरश्मा पांसुः सा भूमिः संधृता धृता। तस्यै हिरण्यवक्षसे पृथिव्या अकरं नमः ॥
स्वर रहित पद पाठशिला । भूमि: । अश्मा । पांसु: । सा । भूमि: । सम्ऽधृता । धृता । तस्यै । हिरण्यऽवक्षसे । पृथिव्यै । अकरम् । नम: ॥२.२६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राज्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(भूमिः) भूमि (शिला) शिला, (अश्मा) पत्थर और (पांसुः) धूलि है, (सः) वह (संधृता) यथावत् धारण की गयी (भूमिः) भूमि (धृतः) धरी हुई है। (तस्यै) उस [हिरण्यवक्षसे] सुवर्ण आदि धन छाती में रखनेवाली (पृथिव्यै) पृथिवी के लिये (नमः अकरम्) मैंने अन्न किया [खाया] है ॥२६॥
भावार्थ
जिस भूमि पर अनेक बड़े-छोटे पदार्थ हैं और जिस में अनेक रत्न भरे हैं, उस पृथिवी के हित के लिये मनुष्य अन्न जल आदि पदार्थ खावें ॥२६॥
टिप्पणी
२६−(शिला) क्षुद्रपाषाणः (भूमिः) (अश्मा) प्रस्तरः (पांसुः) धूलिः (सा) (भूमिः) (संधृता) सम्यग् धारिता (धृता) स्थिरा (तस्यै) (हिरण्यवक्षसे) हिरण्यानि सुवर्णादीनि रत्नानि वक्षसि−मध्ये यस्यास्तस्यै (पृथिव्यै) (अकरम्) कृतवानस्मि (नमः) अन्नम्−निघ० २ ॥
विषय
शिला, भूमिः, अश्मा, पांसुः
पदार्थ
१. यह पृथिवी कहीं (शिला) = शिला के रूप में है। ये शिलाएँ मकान आदि बनाने में उपयुक्त होती हैं। (भूमिः) = कहीं मैदानों के रूप में है, जहाँ कृषि से विविध अन्न उत्पन्न होते हैं। (अश्मा) = कहीं यह पत्थर-ही-पत्थर है, जिन्हें तोड़कर सड़कों व फर्श आदि के निर्माण में उपयुक्त किया जाता है। (पांसुः) = कहीं यह भूमि धूल के रूप में है, जिसे तेज वायु उड़ाकर आकाश में पहुँचा देती है और वहाँ यह मेघ के जलबिन्दुओं का केन्द्र बनती है। (सा भूमि:) = यह प्राणियों का निवासस्थानरूप पृथिवी (संधृता) = सम्यक् धारण की गई है, (धृता) = प्रभु ने इसे मर्यादा में स्थापित किया है। २. (तस्मै) = उस (हिरण्यवक्षसे) = हिरण्य को वक्षस्थल में लिये हुई, (पृथिव्यै) = पृथिवी के लिए (नमः अकरम्) = हम आदर करते हैं। 'इसको माता समझना तथा इससे दिये गये वानस्पतिक पदार्थों का ही प्रयोग करना' इसका आदर है।
भावार्थ
यह पृथिवी 'शिलाओं, मैदानों, पत्थरों व धूलि' के भिन्न-भिन्न रूपों में है। प्रभु से धारित व मर्यादा में स्थापित की गई है। इस हिरण्यवक्षा पृथिवी के लिए हम नमस्कार करते हैं।
भाषार्थ
(शिला) पत्थर, (अश्मा) कीमती पत्थर, (पांसुः) रेता और धूल, (भूमिः) भूमि है। (सा भूमिः) वह भूमि (संधृता) सम्यक् साधनों द्वारा धारित हुई (धृता) धारित होती है। (हिरण्यवक्षसे) छाती में सुवर्ण वाली (तस्यै पृथिव्यै) उस पृथिवी के लिये (नमः अकरम्) मैंने नमस्कार किया है।
टिप्पणी
[भूमिः = यह शब्द पृथिवी की उत्पादक शक्ति को सूचित करता है। शिला= वे पत्त्थर जिन से शैल अर्थात् पर्वत बने हैं। संधृता= सम्यक् साधन, देखो (अथर्व० १२।१।१)। हिरव्यवक्षसे द्वारा यह दर्शाया है कि हिरण्य की खानें बहुत गहरी नहीं होतीं]।
विषय
पृथिवी सूक्त।
भावार्थ
(शिला) शिला आदि पदार्थ यह (भूमिः) भूमि ही है। (अश्मा पांसुः) पत्थर और धूलि यह भी (सा भूमिः) वह भूमि ही है। ये सब पदार्थ उस भूमि ने (संघृता) भली प्रकार धारण किये हैं इसीसे (घृता) वे यहां स्थिरता से पड़े हैं। (तस्यै) उस (हिरण्य-वक्षसे पृथिव्यै) सुवर्णादि धातुओं को अपने गर्भ धारण में करने वाली पृथिवी को (नमः अकरम्) हम नमस्कार करते हैं। उसे प्रेम और आदर की दृष्टि से देखते हैं। शिला, पत्थरों और धूलि तक में स्वर्ण है और वह भी पृथ्वी ही है अतः पृथ्वी की समस्त छाती स्वर्ण-मय है। उस सबको हम आदर और प्रेम और विज्ञान की दृष्टि से देखें।
टिप्पणी
(प्र० द्वि०) ‘पास्वर्या भूमिस्तृता धृता’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(शिला भूमिः) चट्टानस्तर भूमि है- पृथिवी है (अश्मा पांसुः सा भूमिः) पत्थर और धूलि भी वही पृथिवी है, इस प्रकार पृथिवी के तीन स्तर ऊपर हैं भूगोलविज्ञान की दृष्टि से - मानव के ज्ञान के ये तीन ही स्तर हैं वै से भूगोल के भी सात स्तर हैं जैसे खगोल- आकाशीय पिण्ड गोल के सात स्तर हैं 'भूः, भुवः, स्व:, मह:, जनः तपः, सत्यम्' परन्तु मानवज्ञान के विषय तीन ही लोक स्तर हैं 'भू, भुवः स्वः' - पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्युलोक' (सन्धृता धृता) संसक्ता-संहिताशिला पत्थर धूलि से संसक्त मिली जुली पिण्ड बनी हुई आकाश क्षेत्र में अपने अक्ष पर धरी हुई- दृढ़ है (तस्यै पृथिव्या हिरण्यवक्षसे नमः-अकरम्) उस हिरण्यगर्भाइन्हीं शिला पत्थर धूलि भागों में सुवर्ण आदि धातु हीरे आदि रत्न होते हैं अतः ऐसी पृथिवी के लिये स्वागत करता हूँ स्वागत मचन बोलता हूँ ॥२६॥
विशेष
ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Mother Earth
Meaning
The slab and stone, dust and mountain, all is earth. That earth is placed in position, firmly in place in orbit. To that Earth Mother and to her golden expanse like the mother’s bosom, I do homage of obeisance.
Translation
Rock is earth, stone, dust; this earth (is) held together, held; to that earth, gold-backed have I paid homage.
Translation
The earth appears in the shape of small and big stones and dust, She is standing firmly held together only because of the qualities. I nourish my body with food provided by this earth to render her service who keeps gold in her bosom.
Translation
Rock, stone and dust constitute our Motherland, which being well guarded by us, retains its independence. To this gold-breasted motherland, mine adoration do I pay.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२६−(शिला) क्षुद्रपाषाणः (भूमिः) (अश्मा) प्रस्तरः (पांसुः) धूलिः (सा) (भूमिः) (संधृता) सम्यग् धारिता (धृता) स्थिरा (तस्यै) (हिरण्यवक्षसे) हिरण्यानि सुवर्णादीनि रत्नानि वक्षसि−मध्ये यस्यास्तस्यै (पृथिव्यै) (अकरम्) कृतवानस्मि (नमः) अन्नम्−निघ० २ ॥
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