अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 50
ये ग॑न्ध॒र्वा अ॑प्स॒रसो॒ ये चा॒रायाः॑ किमी॒दिनः॑। पि॑शा॒चान्त्सर्वा॒ रक्षां॑सि॒ तान॒स्मद्भू॑मे यावय ॥
स्वर सहित पद पाठये । ग॒न्ध॒र्वा: । अ॒प्स॒रस॑: । ये । च॒ । अ॒राया॑: । कि॒मी॒दिन॑: । पि॒शा॒चान् । सर्वा॑ । रक्षां॑सि । तान् । अ॒स्मत् । भू॒मे॒ । य॒व॒य॒ ॥१.५०॥
स्वर रहित मन्त्र
ये गन्धर्वा अप्सरसो ये चारायाः किमीदिनः। पिशाचान्त्सर्वा रक्षांसि तानस्मद्भूमे यावय ॥
स्वर रहित पद पाठये । गन्धर्वा: । अप्सरस: । ये । च । अराया: । किमीदिन: । पिशाचान् । सर्वा । रक्षांसि । तान् । अस्मत् । भूमे । यवय ॥१.५०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राज्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(ये) जो (गन्धर्वाः) दुखदायी हिंसक (अप्सरसः) विरुद्ध चलनेवाले हैं, (च) और (ये) जो (अरायाः) कंजूस (किमीदिनुः) दूसरे पुरुष हैं। (भूमे) हे भूमि ! (तान्) उन (पिशाचान्) पिशाचों [मांसभक्षकों, पीड़ाप्रदों] और (सर्वा) सब (रक्षांसि) राक्षसों को (अस्मत्) हम से (यावय) अलग रख ॥५०॥
भावार्थ
विवेकी मनुष्यों को योग्य है कि पृथिवी पर के दुष्ट प्राणियों और रोगों का नाश करके धर्मात्माओं को सुखी रक्खें ॥५०॥
टिप्पणी
५०−(ये) (गन्धर्वाः) अ० ८।६।१९। गन्ध अर्दने−अच्+अर्व हिंसायाम्−अच्, शकन्ध्वादित्वात् पररूपम्। दुःखदायिपीडकाः (अप्सरसः) म० २३। सर्तेरप्पूर्वादसिः। उ० ४।२३७। अप्+सृ गतौ−असि उपसर्गान्त्यलोपः। अपसरणशीलान्। विरुद्धगामिनः (ये) (च) (अरायाः) अ० ११।६।१६। अदातारः (किमीदिनः) अ० १।७।१। पिशुनाः (पिशाचान्) अ० १।१६।३। मांसभक्षकान्। पीडाप्रदान् (सर्वा) सर्वाणि (रक्षांसि) राक्षसान् (तान्) (अस्मत्) (भूमे) (यावय) वियोजय ॥
विषय
अवाञ्छनीय तत्त्वों का निराकरण
पदार्थ
१. (ये) = जो लोग (गन्धर्वा:) = [गन्धं अर्वति-अर्व गती] (इतर) = फुलेल आदि गन्धों में ही खेलनेवाले हैं (अप्सरसा) = और जो स्त्रियाँ स्वर्गलोक की वेश्याएँ ही प्रतीत होती हैं वेशभूषा की चमक-दमक ही जिनका जीवन है, (ये च) = और जो (अरायाः) = एकदम अदान की वृत्तिवाले हैं [रा दाने] (किमीदिन:) = अब क्या खाएँ और अब क्या हड़प करें [किम् इदानीम्, किम् इदानीम्] यही जिनकी वृत्ति है। हे (भूमे) = भूमिमात:! (तान्) = उनको (अस्मत् यावय) = हमसे पृथक्क कर । २. (पिशाचान्) = मांस खानेवाली क्रूरवृत्तिवाले पुरुषों को तथा (सर्वा रक्षांसि) = सब राक्षसों को-अपने रमण के लिए औरों का क्षय करनेवालों को हमसे पृथक् कर।
भावार्थ
हमारे मध्य में 'भोगप्रधान जीवनवाले [गन्धर्व+अप्सरस्], कृपण, औरों का धन हड़प करनेवाले, पिशाच व राक्षस' न हों, हमारे समाज से ये दूर ही रहें, जिससे इनका कुप्रभाव समाज को दूषित करनेवाला न हो।
भाषार्थ
(ये) जो (गन्धर्वाः) हिंसा करने के निमित्त घूमते रहते हैं, (अप्सरसः) तथा धर्मापेतगतिवाले हैं, (ये च) और जो (अरायाः) अदानी, अर्थात् कंजूस स्वार्थी हैं, तथा (किमीदिनः) “किम्, इदानीमिति चरते; किमिदं किमिदमिति वा” (निरु० ६।३।११), कि “अब क्या होगा, यह क्या है, यह क्या है",—इस प्रकार प्रश्नपूर्वक दूसरों की गतिविधि की टोह में बिचरते रहते हैं (तान्) उन्हें; तथा (पिशाचान्) मांस-भक्षकों और (सर्वा रक्षांसि) सब राक्षसी स्वभावों वाले मनुष्यों को (भूमे) हे भूमि (अस्मत्) हम से (यावय) पृथक् कर।
टिप्पणी
[समग्र पृथिवी के अधिष्ठाता (मन्त्र ११) से यह याचना की गई है। गन्धर्वाः= गन्ध, अर्दने + अर्व (गतौ)। अप्सरसः;– यह पद स्त्रीलिङ्ग नहीं। क्योंकि इन का भी "ये" पद द्वारा निर्देश किया है। अरायाः= अ + रा (दाने)। पिशाचाः = पिश = पिशित (मांस) + अच१ (याचने या अञ्च् गतौ)"। रक्षांसि =रक्षितव्यमस्मादिति रक्षः (निरुक्त ४।३।१८); रहसि क्षणोतीति वा (निरुत ४।३।१८)]। [१. जो मांस की याचना करते या मांस के लिये विचरते रहते हैं।]
विषय
पृथिवी सूक्त।
भावार्थ
(ये) जो (गन्धर्वाः) गन्धर्व, गन्ध के पीछे चलने वाले, विलासी लोग और (अप्सरसः) विलासिनी स्त्रियां और (ये च) जो (अरायाः) निर्धन, (किमीदिनः) निकम्मे या दूसरों के जान माल को तुच्छ समझने वाले हैं (तान्) उनको और (पिशाचान्) मांसभक्षी लोगों और (रक्षांसि) राक्षस वृत्त वाले (सर्वान्) सब लोगों को हे (भूमे) भूमे ! (अस्मद्द् यवय) हम से दूर कर।
टिप्पणी
(प्र०) ‘गन्धर्वाऽप्स’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(ये गन्धर्वाः-अप्सरसः) जो कामी पुरुष "स्त्रीकामा वै गन्धर्वा:" (ऐ० १।२७) विलासिनी स्त्रियों "किन्तु अस्मासु-अप्सरसइति हसो मे क्रीड़ा मे मिथुनं मे" (जै० उ० ३।२५।८) (च ये-अरायाः) और जो कृपण जन (किमीदनः) क्या इस समय मेरे लिये देगा ऐसा वञ्चना करने वाले जनों "किमिदिनेकिमिदानीमिति चरते" (निरु० ६।११) (सर्वान् पिशाचान्) सब मांसभक्षकों (रक्षांसि) घातकों को (तान्) उनको (भूमे अस्मत्-यावय) हे भूमि ! हमसे अलग करदे ॥५०॥
विशेष
ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Mother Earth
Meaning
Mother Earth, pray throw out and keep away from us all those demons and violent forces which are negative, destructive, selfish, exploitative, and blood thirsty.
Translation
What Gandharvas, Apsarases (there are), and what arayas, kimidins: the pisacas, all demons -- them do thou keep away from us, O earth.
Translation
May the mother earth remove from our midst those whose nature is to hurt others, those who work against others, welfare, the stingy and ignoble as well as the flesh eaters and all others injurious beings.
Translation
O Motherland, keep far from us all libidinous men and women, misers, worthless persons who care not for the life and property of others, meateaters, and men of violent nature!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५०−(ये) (गन्धर्वाः) अ० ८।६।१९। गन्ध अर्दने−अच्+अर्व हिंसायाम्−अच्, शकन्ध्वादित्वात् पररूपम्। दुःखदायिपीडकाः (अप्सरसः) म० २३। सर्तेरप्पूर्वादसिः। उ० ४।२३७। अप्+सृ गतौ−असि उपसर्गान्त्यलोपः। अपसरणशीलान्। विरुद्धगामिनः (ये) (च) (अरायाः) अ० ११।६।१६। अदातारः (किमीदिनः) अ० १।७।१। पिशुनाः (पिशाचान्) अ० १।१६।३। मांसभक्षकान्। पीडाप्रदान् (सर्वा) सर्वाणि (रक्षांसि) राक्षसान् (तान्) (अस्मत्) (भूमे) (यावय) वियोजय ॥
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