अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 48
ऋषिः - अथर्वा
देवता - भूमिः
छन्दः - पुरोऽनुष्टुप्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - भूमि सूक्त
150
म॒ल्वं बिभ्र॑ती गुरु॒भृद्भ॑द्रपा॒पस्य॑ नि॒धनं॑ तिति॒क्षुः। व॑रा॒हेण॑ पृथि॒वी सं॑विदा॒ना सू॑क॒राय॒ वि जि॑हीते मृ॒गाय॑ ॥
स्वर सहित पद पाठम॒ल्वम् । बिभ्र॑ती । गु॒रु॒ऽभृत् । भ॒द्र॒ऽपा॒पस्य॑ । नि॒ऽधन॑म् । ति॒ति॒क्षु: । व॒रा॒हेण॑ । पृ॒थि॒वी । स॒म्ऽवि॒दा॒ना । सू॒क॒राय॑ । वि । जि॒ही॒ते॒ । मृ॒गाय॑ ॥१.४८॥
स्वर रहित मन्त्र
मल्वं बिभ्रती गुरुभृद्भद्रपापस्य निधनं तितिक्षुः। वराहेण पृथिवी संविदाना सूकराय वि जिहीते मृगाय ॥
स्वर रहित पद पाठमल्वम् । बिभ्रती । गुरुऽभृत् । भद्रऽपापस्य । निऽधनम् । तितिक्षु: । वराहेण । पृथिवी । सम्ऽविदाना । सूकराय । वि । जिहीते । मृगाय ॥१.४८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राज्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(मल्वम्) धारण सामर्थ्य को और (गुरुभृत्) गुरुत्व [भारीपन] रखनेवाले सामर्थ्य को (बिभ्रती) धारण करनेवाली, (भद्रपापस्य) भले और बुरे के (निधनम्) कुल [समूह] को (तितिक्षुः) सहनेवाली, (वराहेण) मेघ के साथ (संविदाना) मिली हुई (पृथिवी) पृथिवी (सूकराय) सुन्दर [सुखद] किरणोंवाला (मृगाय) गमनशील सूर्य के लिये (वि) विविध प्रकार (जिहीते) प्राप्त होती है ॥४८॥
भावार्थ
पृथिवी अपने धारण आकर्षण से सब पदार्थों को अपने पर रखती है और सूर्य के सन्मुख चलने से जल आकाश में चढ़ता और बरसता है। उस पृथिवी को उपयोगी बनाने में मनुष्य प्रयत्न करें ॥४८॥
टिप्पणी
४८−(मल्वम्) कॄगॄशॄदॄभ्यो वः। उ० १।१५५। मल धारणे−व। धारणसामर्थ्यम् (बिभ्रती) धारयन्ती (गुरुभृत्) कृग्रोरुच्च। उ० १।२४। गॄ विज्ञापने−कु, उत्त्वं च+डुभृञ् धारणपोषणयोः−क्विप्। गुरुत्वस्य धारकं सामर्थ्यम् (भद्रपापस्य) साध्वसाधुपुरुषस्य (निधनम्) कुलम्। समूहम् (तितिक्षुः) तिज क्षमायाम्−स्वार्थे सन्−उ प्रत्ययः। सहमाना (वराहेण) अ० ८।७।२३। मेघेन−निरु० ५।४। (पृथिवी) (संविदाना) अ० २।२८।२। संपूर्वाद् वेत्तेरकर्मकाद् आत्मनेपदम्, लटः शानच्। संगच्छमाना (सूकराय) ॠदोरप्। पा० ३।३।५७। सु+कॄ विदारणे−अप्। उपसर्गस्य दीर्घः। सुष्ठु सुखदाः कराः किरणा यस्य तस्मै (वि) विविधम् (जिहीते) ओहाङ् गतौ। गम्यते। प्राप्यते (मृगाय) मृग अन्वेषणे गतौ च−क। मृगो मार्ष्टेर्गतिकर्मणः−निरु० १३।३। अन्वेषकाय गतिशीलाय वा सूर्याय ॥
विषय
'क्षमा' [सहनशीला पृथिवी]
पदार्थ
१. (मल्वम्) [मल् to hold, possess] धन को पकड़कर रखनेवाले कृपण को भी बिभ्रती-धारण करती हुई यह पृथिवी गुरुभृत्-[गुरु great] विशाल हृदयवालों को धारण करती है। (भद्रपापस्य) = भले-बुरे सभी के (निधनम्) = निवास [residence] को तितिक्षः-यह सहनेवाली है। यह 'कृपण, उदार, भद्र व पाप' सभी का धारण करती है-अपने पर सभी के निवास को सहती है। २. यह पृथिवी-भूमिमाता वराहेण-[मेघेन] मेघ के साथ संविदाना ऐकमत्य को प्राप्त हुई-हुई, अर्थात् अपने पति पर्जन्य से मिलकर-मेघ द्वारा वृष्टि होने पर मृगाय-उत्तम बीजों का अन्वेषण करनेवाले सूकराय-[सुवं प्रसवं करोति] बीजवपन करनेवाले कृषक के लिए विजिहीते-विशेषरूप से प्रास होती है। कृषक इसमें बीजवपन करते हैं और यह विविध अन्नों को जन्म देती है।
भावार्थ
इस पृथिवी पर 'कृपण, उदार व भले-बुरे' सभी रहते हैं। यह पृथिवी मेष से मिलकर कृषक के लिए विविध अन्नों को प्राप्त कराती है। इस अन्न द्वारा वह सभी का पोषण करती है।
भाषार्थ
(मल्बम्) मलिन व्यक्ति का (बिभ्रती) भरण-पोषण करती हुई, तथा (गुरुभृत्) गौरवशाली व्यक्ति का भरण-पोषण करने वाली, (भद्र पापस्य) भद्रों-और-पापियों के (निधनम्) परिवारों और कुलों का (तितिशुः) सहन करने वाली (पृथिवी) पृथिवी, (वराहेण) मेघ के साथ (संविदाना) ऐकमत्य को प्राप्त हुई, (सूकराय) उत्तम किरणों वाले (मृगाय) शोधक सूर्य के लिये (वि जिहीते) विशेषतया गति कर रही है।
टिप्पणी
[निधनम्=family race (आष्टे)। वराहेण; बराहः मेघनाम (निघं १।१०)। सूकराय= सु + उ + कर (A ray of light, beam, (आष्टे), मृगाय= मृजूष् शुद्धौ। जिहीते= ओहाङ् गतौ। संविदाना= पृथिवी जल देती है मेघ को, और मेघ जल देता है पृथिवी को। मानो ये दोनों इस दृष्टि से ऐकमत्य को प्राप्त हैं। मृगाय विजिहीते= मृगं अर्थात् सूर्य प्राप्तुं सेवितुं वा विजिहीते गच्छति ("क्रियार्थोपपदस्य" अष्टा० २।३।१४) इति कर्मणि चतुर्थी)। पृथिवी सूर्य की ओर क्यों प्रयाण कर रही है,– यह निम्नलिखित मन्त्र द्वारा स्पष्ट हो सकेगा। यथा “आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन् मातरं पुरः। पितरं च प्रयन्त्स्वः (यजु० ३।६)। इस मन्त्र में "गौ" का अर्थ है पृथिवीगोलक, इस की माता है अन्तरिक्ष, जिस की कि गोदी में यह बैठी हुई है। यह "पुरः" अर्थात् पूर्व की ओर "अक्रमीत् " पग बढ़ा रही है, गति कर रही हैं, "स्वः पितरम्" प्रकाशमान पिता अर्थात् सूर्य की ओर "प्रयन्” प्रयाण करती हुई। इस मन्त्र में लौकिक व्यवहार का भी निर्देश किया है। पृथिवी को बेटी कहा है और सूर्य को पिता। बेटियां पिता को मिलने या उस की सेवा के लिये पितृगृह में जाया ही करती हैं]।
विषय
पृथिवी सूक्त।
भावार्थ
(मल्वं) मल युक्त या कृपणं या मूर्ख पुरुष को (बिभ्रती) पालती पोसती हुई और (गुरुभृत्) भारी, उपदेशप्रद आचार्यों को भी धारण करनेहारी अथवा (मल्वं) तुच्छ को जैसे (बिभ्रती) धारण करती है उसी प्रकार (गुरुभृत्) भारी पदार्थ पर्वत आदि को भी उठाती हुई यह (पृथिवी) पृथिवी (भद्रपापस्य निधनं) भले और बुरे सबको निधन = देह को या मृत मुर्दे को (तितिक्षुः) स्वयं सहन करती है। वही (वराहेण संविदाना) मानो वराह, महाशूकर से मन्त्रणा करती हुई (मृगाय सूकराय) जंगली जानवर सूअर के लिये भी (वि जिहते) अपने को विशेष रूप से उसके लिये त्याग देती है। अर्थात् जो पृथ्वी भले बुरे मूर्ख पण्डित सबको धारती है, वह अपने ऊपर पशु सूअर आदि पशुओं को भी स्वच्छन्द विचरने देती है।
टिप्पणी
(प्र०) ‘सर्वे विभ्रती सुरभिः’ [ ? ] इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(मल्वं बिभ्रती) मलिन-मलवाले को भी 'मलं यस्मिन्न 'अकारलोपश्छान्दसः' "व प्रकरणेऽन्येभ्योऽपि दृश्यते- इति वक्तव्यम्” [अष्टा० ५।२।१०६] धारण करती हुई अर्थात् अमलिन-पवित्र को भी धारण करती हुई (गुरुभृत्) भारी पर्वत को भी अर्थात् हलके को भी धारण करती है (भद्रपापस्या निधनं तितिक्षुः) पुण्य और पाप के निधन-प्रतिष्ठान "प्रतिष्ठा वै निधनम् "(कौ० २७।६) को सहने वाली (वराहेण पृथिवी संविदानः) वराह-मेघ के साथ सहमत होती हुई- गीली होती हुई पृधिवी "वराहो मेघनाम" (निघं० १।१०) (स्नूकर या मृगाय विजिहीते) अच्छे करों-हाथों-किरणों वाले, मार्जन करने वाले सूर्य के लिये भी ताप देते हुये सूर्य के लिये भी शीट देने वाले चन्द्रमा के लिये भी विशेष रूप से प्राप्त होती है समर्पित है ॥४८॥
विशेष
ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Mother Earth
Meaning
Bearing her own gravitation, attraction and forbearance, sustaining both the virtuous and the sinful and shaping their family and family line, the earth in cooperation with the cloud, moves on in orbit doing homage to the sun, sojourner of space.
Translation
Bearing the fool, bearer of what is heavy, enduring the death of the excellent and of the evil, the earth, in concord with the boar, opens itself to the wild hog.
Translation
Having the powers to support things as well as the force of gravitation, the mother earth supports the concourse of the men of virtues as well as the men of wickedness and in unison with rain-cloud she dispose herself in various ways to the pleasant rayed sun that itself is in motion.
Translation
Earth, that supports ail things light and heavy, that bears the cor¬ pses of the good and bad, that receives ample water from the rainy cloud, revolves round the Sun, that removes dirt and impurity with its rays
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४८−(मल्वम्) कॄगॄशॄदॄभ्यो वः। उ० १।१५५। मल धारणे−व। धारणसामर्थ्यम् (बिभ्रती) धारयन्ती (गुरुभृत्) कृग्रोरुच्च। उ० १।२४। गॄ विज्ञापने−कु, उत्त्वं च+डुभृञ् धारणपोषणयोः−क्विप्। गुरुत्वस्य धारकं सामर्थ्यम् (भद्रपापस्य) साध्वसाधुपुरुषस्य (निधनम्) कुलम्। समूहम् (तितिक्षुः) तिज क्षमायाम्−स्वार्थे सन्−उ प्रत्ययः। सहमाना (वराहेण) अ० ८।७।२३। मेघेन−निरु० ५।४। (पृथिवी) (संविदाना) अ० २।२८।२। संपूर्वाद् वेत्तेरकर्मकाद् आत्मनेपदम्, लटः शानच्। संगच्छमाना (सूकराय) ॠदोरप्। पा० ३।३।५७। सु+कॄ विदारणे−अप्। उपसर्गस्य दीर्घः। सुष्ठु सुखदाः कराः किरणा यस्य तस्मै (वि) विविधम् (जिहीते) ओहाङ् गतौ। गम्यते। प्राप्यते (मृगाय) मृग अन्वेषणे गतौ च−क। मृगो मार्ष्टेर्गतिकर्मणः−निरु० १३।३। अन्वेषकाय गतिशीलाय वा सूर्याय ॥
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