अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 61
ऋषिः - अथर्वा
देवता - भूमिः
छन्दः - पुरोबार्हता त्रिष्टुप्
सूक्तम् - भूमि सूक्त
72
त्वम॑स्या॒वप॑नी॒ जना॑ना॒मदि॑तिः काम॒दुघा॑ पप्रथा॒ना। यत्त॑ ऊ॒नं तत्त॒ आ पू॑रयाति प्र॒जाप॑तिः प्रथम॒जा ऋ॒तस्य॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । अ॒सि॒ । आ॒ऽवप॑नी । जना॑नाम् । अदि॑ति: । का॒म॒ऽदुघा॑ । प॒प्र॒था॒ना । यत् । ते॒ । ऊ॒नम् । तत् । ते॒ । आ । पू॒र॒य॒ति॒ । प्र॒जाऽप॑ति: । प्र॒थ॒म॒ऽजा: । ऋ॒तस्य॑ ॥१.६१॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमस्यावपनी जनानामदितिः कामदुघा पप्रथाना। यत्त ऊनं तत्त आ पूरयाति प्रजापतिः प्रथमजा ऋतस्य ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । असि । आऽवपनी । जनानाम् । अदिति: । कामऽदुघा । पप्रथाना । यत् । ते । ऊनम् । तत् । ते । आ । पूरयति । प्रजाऽपति: । प्रथमऽजा: । ऋतस्य ॥१.६१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राज्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
[हे पृथिवी !] (त्वम्) तू (आवपनी) बड़ी उपजाऊ होकर (जनानाम्) मनुष्यों की (अदितिः) अखण्डव्रता, (कामदुघा) कामना पूरी करनेवाली (पप्रथाना) प्रख्यात (असि) है। (यत्) जो (ते) तेरा (ऊतम्) न्यून है, (ऋतस्य) यथावत् नियम का (प्रथमजाः) पहिले उत्पन्न करनेवाला (प्रजापतिः) प्रजापति [जगत्पालक परमेश्वर] (ते) तेरे (तत्) उस [न्यून भाग] को (आ) सब प्रकार (पूरयाति) पूरा करे ॥६१॥
भावार्थ
जैसे परमेश्वर ने पृथिवी में अन्न आदि से प्राणियों की पालन शक्ति दी है, वैसे ही प्राणी जो कुछ खाते-पीते हैं, वह न्यूनता ईश्वरनियम से वृष्टि आदि द्वारा पूर्ण हो जाती है ॥६१॥
टिप्पणी
६१−(त्वम्) (असि) (आवपनी) समन्ताद् बीजजनयित्री (जनानाम्) मनुष्याणाम् (अदितिः) अखण्डव्रता (कामदुघा) अ० ४।३४।८। मनोरथपूरयित्री (पप्रथाना) प्रथ प्रख्याने−कानच्। प्रख्याता (यत्) (ते) तव (ऊतम्) न्यूनम्। हीनम् (तत्) (ते) तव (आ) समन्तात् (पूरयाति) पूरयेत् (प्रजापतिः) जगत्पालकः परमेश्वरः (प्रथमजाः) अ० २।१।४। जन जनने−विट्, आत्त्वम्। प्रथमजनयिता (ऋतस्य) सत्यनियमस्य ॥
विषय
आवपनी-अदितिः
पदार्थ
१.हे भूमे! (त्वम्) = तू (जनानाम्) = लोगों की विविध कोनों में उत्पन्न मनुष्यों की आवपनी (असि) = बीज बोने की स्थली है। तू (पप्रथाना) = अत्यन्त विस्तारवाली होती हुई (कामदघा) = सब कामनाओं का प्रपूरण करनेवाली (अदितिः) = [गोनाम-नि० २.११] गौ ही है। यह पृथिवी सब अन्नों को उत्पन्न करनेवाली है-सब काम्य भोगों का दोहन करनेवाली कामधेनु ही है। २. (यत्) = जो (ते ऊनम्) = तुझमें कमी आती है-अनोत्पादन से जो तेरी शक्ति क्षीण होती है (तत् ते) = उस तेरी कमी को वृष्टि व वायुमण्डल की नत्रजन गैस के द्वारा, (ऋतस्य प्रथमजा:) = यज्ञों का सर्वप्रथम प्रादुर्भाव करनेवाला (प्रजापति:) = प्रजारक्षक प्रभु (आपूरयाति) = आपूरित कर देता है। यज्ञों के द्वारा वृष्टि होकर पृथिवी की उत्पादन-शक्ति ठीक बनी रहती है।
भावार्थ
यह पृथिवी अन्नों का उत्पादन करनेवाली व सब काम्य पदार्थों को प्राप्त करानेवाली कामधेनु है। प्रभु यज्ञादि की व्यवस्था के द्वारा पृथिवी की शक्ति को पुन:-पुन: स्थिर किये रखते हैं।
भाषार्थ
हे पृथिवी ! (त्वम्) तू (जनानाम्) प्रजाजनों की, (आवपनी) बीज बोने और कृषि काटने की स्थली हैं; (अदितिः) अखण्डरूपा तू (कामदुधा) प्रजाजनों की कामनाओं को पूर्ण करती है, (पप्रथाना) और तेरा यश की दृष्टि से विस्तार होता है। (यत) जो (ते) तेरी (ऊनम्) न्यूनता है। (ते) तेरी (तत्) उस न्यूनता को (प्रजापतिः) प्रजाओं का रक्षक राजा या अधिष्ठाता (मन्त्र ११), (आ पूरयाति) पूर्णतया पूरित करता रहे, (ऋतस्य) जो प्रजापति कि ॠत का, (प्रथमजाः) सर्वश्रेष्ठ या मुखिया होता हुआ, जनयिता है।
टिप्पणी
[आवपनी = आ + डुवप् बीजसन्ताने छेदने च। अदितिः =अ +दो (अवखण्डने) + तिः। अखण्डरूपा समग्र पृथिवी, सभी प्रजाजनों की कामनाओं को पूर्ण कर सकती है, परन्तु भिन्न-भिन्न स्वतन्त्र राष्ट्रों में खण्डित या विभक्त हो कर नहीं, क्योंकि इससे खण्डित हुए राष्ट्रों की प्रजाओं के स्वार्थ बाधक हो जाते हैं। ऊनम् = सततकृषि द्वारा पृथिवी की उपजाऊ शक्ति में न्यूनता आ जाती है। तथा बंजर भूमियों में उपजाऊ शक्ति नहीं होती। इस न्यूनता को खाद तथा अन्य उपायों द्वारा राजा लोग पूरित करते रहें। जल का न होना भी कृषिकर्म में बाधक होता है। इस न्यूनता की पूर्ति राज्याधिकारियों को करनी चाहिये। ऋतस्य उदकनाम (निघं० १।१२)। तथा ऋतस्य = नियमों का। प्रजा के लिये नियमों का निर्माण भी राज्याधिकारियों का कर्तव्य है। प्रजापतिः = A King (आप्टे); तथा (मन्त्र ४३)]।
विषय
पृथिवी सूक्त।
भावार्थ
हे पृथिवि ! (त्वम्) त् (जनानाम्) मनुष्यों और प्राणियों के (आवपनी) सब ओर बीज वपन करने और उनको उत्पन्न करने के लिये क्षेत्र के समान है। तू (अदितिः) अखण्डित, अक्षय (पप्रथाना) बड़ी भारी, विशाल (कामदुघा) प्राणियों की समस्त कामनाओं को पूरने वाली है। (ऋतस्य) उस वर्तमान संसार के भी (प्रथमजाः) पूर्व विद्यमान (प्रजापतिः) प्रजा का पालक परमेश्वर (यत् ते ऊनम्) जो तेरे में कमी आ जाती है (ते तत्) तेरी उस कमी को भी (आ पूरयति) सब प्रकार से पूर्ण कर देता है। ‘आवपनी’—ब्रह्मोद्य प्रकरण में ‘भूमिरावपनं महत्’ भूमि बीज बोने का बड़ा खेत है।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘कामदुधा विश्वरूपा’ (तृ० च०) ‘प्रजापतिः प्रजाभिः संविदानाम्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(त्वम्-आपनी-असि) तू बीज की धारण योग्य स्थली है (जनानां-कामदुघा-अदितिः-पप्रथाना) जायमान प्राणियों की कामनओं-कमनीय पदार्थों को दोहने वाली गौ “अदिति:गोनाम" (निघ० १।१) विस्तार को प्राप्त हुई है ( ते यत्-ऊनंते तत्-ऋतस्य-प्रजापतिः-प्रथमजाः-पूरयति) तेरा जो न्यून है तेरे उस न्यून भाग को ऋत-उपादान का प्रजापतिस्वामी जो प्रथम से प्रसिद्ध है वह उसे पूरा करता है ॥६१॥
विशेष
ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Mother Earth
Meaning
Earth Mother, you are Aditi, unbreakable and indivisible, giver of fulfilment, growing and expansive in living potential. You provide the field of production, growth and development for humanity. And whatever is wanted of you for such growth, Prajapati, first self¬ manifest Divinity and father creator and sustainer of life forms, in the course of creative evolution and the Law of Mutability, replenishes and fulfils.
Translation
Thou art the scatterer of people, (art) a wish-fulfilling Aditi, spreading out; what of thee is deficient, may Prajapati, firstborn of righteousness, fill that up for thee.
Translation
The mother earth, becoming very fertile is well known as the perfect observer of the vow of fulfilling the wishes of man kind, Whatever is lacking in her way the Lord of creation and creature, the first Propagator of the universal order, supply in every way.
Translation
O Motherland, thou art the field, where men are born. Thou art un¬ decaying, the fulfiller of our desires, and worthy of homage. God, Who existed before the creation of the universe, supplieth thee with whatever thou lackest!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६१−(त्वम्) (असि) (आवपनी) समन्ताद् बीजजनयित्री (जनानाम्) मनुष्याणाम् (अदितिः) अखण्डव्रता (कामदुघा) अ० ४।३४।८। मनोरथपूरयित्री (पप्रथाना) प्रथ प्रख्याने−कानच्। प्रख्याता (यत्) (ते) तव (ऊतम्) न्यूनम्। हीनम् (तत्) (ते) तव (आ) समन्तात् (पूरयाति) पूरयेत् (प्रजापतिः) जगत्पालकः परमेश्वरः (प्रथमजाः) अ० २।१।४। जन जनने−विट्, आत्त्वम्। प्रथमजनयिता (ऋतस्य) सत्यनियमस्य ॥
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