अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 2
ऋषिः - अथर्वा
देवता - भूमिः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - भूमि सूक्त
373
अ॑संबा॒धं ब॑ध्य॒तो मा॑न॒वानां॒ यस्या॑ उ॒द्वतः॑ प्र॒वतः॑ स॒मं ब॒हु। नाना॑वीर्या॒ ओष॑धी॒र्या बिभ॑र्ति पृथि॒वी नः॑ प्रथतां॒ राध्य॑तां नः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स॒म्ऽबा॒धम् । म॒ध्य॒त: । मा॒न॒वाना॑म् । यस्या॑: । उ॒त्ऽवत॑: । प्र॒ऽवत॑: । स॒मम् । ब॒हु । नाना॑ऽवीर्या: । ओष॑धी: । या । बिभ॑र्ति । पृ॒थि॒वी । न॒: । प्र॒थ॒ता॒म् । राध्य॑ताम् । न॒: ॥१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
असंबाधं बध्यतो मानवानां यस्या उद्वतः प्रवतः समं बहु। नानावीर्या ओषधीर्या बिभर्ति पृथिवी नः प्रथतां राध्यतां नः ॥
स्वर रहित पद पाठअसम्ऽबाधम् । मध्यत: । मानवानाम् । यस्या: । उत्ऽवत: । प्रऽवत: । समम् । बहु । नानाऽवीर्या: । ओषधी: । या । बिभर्ति । पृथिवी । न: । प्रथताम् । राध्यताम् । न: ॥१.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राज्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(मानवानाम्) मानवालों वा मननशीलों के (असंबाधम्) गति रोकनेवाले व्यवहार को (बध्यतः) मिटाती हुई (यस्याः) जिस [पृथिवी] के [मध्य] (उद्वतः) ऊँचे और (प्रवतः) नीचे देश और (बहु) बहुत से (समम्) सम स्थान हैं। (या) जो (नानावीर्याः) अनेकवीर्य [बल]वाली (ओषधीः) ओषधियों [अन्न, सोमलता आदि] को (बिभर्ति) रखती है, (पृथिवी) वह पृथिवी (नः) हमारे लिये (प्रथताम्) चौड़ी होवे और (नः) हमारे लिये (राध्यताम्) सिद्धि करे ॥२॥
भावार्थ
विचारशील मनुष्य पृथिवी पर ऊँचे, नीचे और सम स्थानों में विघ्नों को मिटाकर अन्न आदि पदार्थ प्राप्त करके कार्यसिद्धि करते जाते हैं ॥२॥ (बध्यतः) शब्द के स्थान पर गवर्नमेन्ट बुक् डिपो बम्बई के पदपाठ में [मध्यतः] शब्द है। हम ने अजमेर वैदिक यन्त्रालय और सेवकलाल कृष्णदास के संहितापाठ के अनुसार (बध्यतः) पद मानकर अर्थ किया है ॥
टिप्पणी
२−(असंबाधम्) अस गतिदीप्त्यादानेषु−अच्+संज्ञायां भृतॄवृजिधारि०। पा० ३।२।४६। बाधृ विलोडने−खच्, खित्वाद् मुम्। असं गतिं बाधते यः सः, असंबाधः। तं गतिनिरोधकं व्यवहारम् (बध्यतः) वर्तमाने पृषद्बृहन्महज्जगच्छतृवच्च। उ० २।८४। बध हिंसायाम्−अति, शतृवत्, छान्दसो यकारः। हिंसन्त्याः (मानवानाम्) अ० ४।२२।५। मनु−अण्, यद्वा मान−व प्रत्ययो मत्वर्थे। मननशीलानां मानवताम् (यस्याः) पृथिव्याः (उद्वतः) उपसर्गाच्छन्दसि धात्वर्थे। पा० ५।१।११८। उत्−वतिप्रत्ययः। प्रवत उद्वतो निवत इत्यवतिर्गतिकर्मा−निरु० १०।२०। उन्नतदेशाः (प्रवतः) पूर्ववत् सिद्धिः। प्रणतदेशाः (समम्) अविषमं स्थानम् (बहु) (नानावीर्याः) अनेकबलाः (ओषधीः) अ० १।३०।३। अन्नसोमलतादिपदार्थान् (या) (बिभर्ति) धरति (पृथिवी) (नः) अस्मभ्यम् (प्रथताम्) विस्तीर्यताम् (राध्यताम्) सिध्यतु (नः) अस्मभ्यम् ॥
विषय
पथिवी माता की विशाल गोद
पदार्थ
१. पृथिवी 'पृथिवी' है-सचमुच पर्याप्त विस्तारवाली है। यह अपनी गोद में मानवों के लिए पर्याप्त स्थान रखती है। उनके परस्पर सम्बाध-टकराने की यहाँ आवश्कता ही नहीं। सामान्यतः एक देश व दूसरे देश के मध्य में पर्वत व नदी, सिन्धु आदि की इसप्रकार की एक स्वाभाविक सीमा-सी बनी हुई है कि एक-दूसरे से लड़ने की सुविधा व सम्भावना ही कम हो जाती है। इसप्रकार (मानवानाम्) = मनुष्यों के (असम्बाधम् मध्यत:) = परस्पर न टकराने की व्यवस्था करती हुई, (यस्या:) = जिस पृथिवी के (उद्वतः) = [Height, elevatives, declivity, precipice] उच्चस्थल, (प्रवत:) = [Declivity, precipice] ढलान व (समम्) = समस्थल (बहु) = बहुत हैं। (या) = जो प्रथिवी (नानावीर्यः) = विविध शक्तियोंवाली (ओषधीः) = ओषधियों को (बिभर्ति) = धारण करती है, वह पृथिवी (नः प्रथताम्) = हमारी शक्तियों का विस्तार करे और (नः राध्यताम्) = हमारे लिए कार्यों में सिद्धि को प्राप्त करानेवाली हो।
भावार्थ
पृथिवी विशाल है-समझदार व्यक्त्यिों को यहाँ परस्पर टकराने [सम्बाध] को आवश्यकता नहीं। पृथिवी के उच्चस्थल, ढलान व समस्थल बहुत हैं। वे भिन्न-भिन्न स्वभाववाले व्यक्तियों के रहने के लिए पर्याप्त हैं। यह पृथिवी विविध ओषधियों को जन्म देती हुई हमें शक्ति सम्पन्न बनाती है और सफल करती है।
भाषार्थ
(मानवानाम्) मननशील मनुष्यों१ की (असंबाधम्२) अल्प-भी-सामूहिक-बाधा का (वध्यतः) वध करने वाली, हटा देने वाली (यस्याः) जिस पृथिवी के (उद्वतः) ऊंचे (प्रवतः) ढलवे तथा (समम्) समतल प्रदेश (बहु) बहुत है। (या) जो (नानावीर्याः ओषधीः) विविध शक्तियों वाली ओषधियों को (बिभर्ति) धारण करती है (पृथिवी) वह पृथिवी, (नः) हमारा (प्रथताम्) विस्तार करे, (नः) और हमारे प्रयत्नों को (राध्यताम्) सिद्ध तथा सफल करें।
टिप्पणी
[जो मननशील मनुष्य है, उन के सामूहिक प्रयत्नों में यदि कोई बाधा उपस्थित होती है तो वे, निज मनन शक्ति द्वारा, उस बाधा का निराकरण कर सकते हैं, और पार्थिव साधनों के सहारे सफलता प्राप्त कर सकते है। इस दृष्टि से पृथिवी, उन की बाधाओं के निराकरण में, सहायक होती है। पृथिवी में ऊंचे, नीचे तथा समतल प्रदेश बहुत है, अतः इन प्रदेशों में रहने वाले मनुष्य-समुदायों में, परिस्थितियों के भेद के कारण, सभ्यता में भेद का होना भी अनिवार्य है।] [१. मत्वा कर्माणि सिव्यन्ति (निरुक्त ३।१।७)। २. अ (नञ्, अल्पार्थे), यथा "अनुदरी कन्या"।]
विषय
पृथिवी सूक्त।
भावार्थ
(मानवानाम्) मनुष्यों, मनुष्यों की बस्तियों के (मध्यतः) बीच में (असंबाधम्) बिना एक दूसरे के पीड़ा दिये ही अर्थात् बे आबाद पड़ी हुई (यस्याः) जिस भूमि के (उद्वतः) ऊंचे और (प्रवतः) लम्बे चौड़े या नीचे बहुत से भाग हैं और (बहु) बहुत सा भाग (समम्) समान भी है। (या पृथिवी) जो पृथिवी (नानावीर्या) नाना प्रकार के वीर्यौ वाली (ओषधीः) ओषधियों को (बिभर्त्ति) धारण करती, अपने में पालती पोषती है, वह (नः प्रथताम्) हमारे लिये विशाल रूप में प्राप्त हो, हमारी भूमि सम्पत्ति खूब बढ़े और (नः राध्यताम्) हमें खूब अन्न, फल आदि सम्पत्ति प्राप्त करावे।
टिप्पणी
(प्र०) ‘असंवाधं मध्यतः’ इति बहुत्र। ‘वध्यतो मानवेषु’ इति पैप्प० सं०। ‘असंवाधाया मध्यतो मानवेभ्यो’ (द्वि०) ‘समं महत्’ (तृ०) ‘नानारूपाः बिभ्रती’ इति मै० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(मानवानां मध्यत: असम्बाधम्) मनु-प्रजापति परमात्मा की प्रजाओं मनुष्यादि प्राणियों के 'प्रजापति वै मनुः स हीदं-सर्वममनुत' (शत० ६।६।१।१९) मध्य में असम्बाध, सम्बाध-सम्पीडन करने में आशक्त-न सम्बाध न-सम्पीडन करने योग्य अवकाश को करती हुई + (यस्या:-उद्वतः प्रवतः समं बहु) जिस पृथिवी पर ऊंचे नीचे स्थान तथा बहुत समान स्थान है (या पृथिवी नः-नानावीर्याः ओषधीः-विभति) जो पृथिवी हमारे लिए भिन्न-भिन्न गुण वालो ओषधियों को धारण करती हैं (न: प्रथतां राध्यताम्) पृथिवी हमारे लिए विशाल हो और सुख को सम्यक् सिद्ध करने वाली हो ॥२॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Mother Earth
Meaning
Among whose intelligent people there is freedom from bondage and perfect equanimity and balance between high and low, who bears many herbs and trees of varied vigour and vitality, may that Earth provide ample room for expansion and growth and possibilities of higher success and progress.
Translation
Unoppressedness in the midst of men (mānava); whose are the ascents (udvat), the advances (pravat), the much plain (sama), who bears the herbs of various virtue (nanavirya) - let the earth be spread out for us, be prosperous for us.
Translation
This earth (the mother land) though herself chequered by high, and low places and many plains does remove all causes that impede the progress of the thoughtful. She stores (in her basom) herbs of multifarious powers of effectuality. May she afford us ample room for progress and accomplish our happiness.
Translation
Amongst the wise persons of our motherland, though worldly high and low, there reigns intense feeling of equality and comradeship. May our motherland which bears plants endowed with many healing powers, expand and grow more food for us.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(असंबाधम्) अस गतिदीप्त्यादानेषु−अच्+संज्ञायां भृतॄवृजिधारि०। पा० ३।२।४६। बाधृ विलोडने−खच्, खित्वाद् मुम्। असं गतिं बाधते यः सः, असंबाधः। तं गतिनिरोधकं व्यवहारम् (बध्यतः) वर्तमाने पृषद्बृहन्महज्जगच्छतृवच्च। उ० २।८४। बध हिंसायाम्−अति, शतृवत्, छान्दसो यकारः। हिंसन्त्याः (मानवानाम्) अ० ४।२२।५। मनु−अण्, यद्वा मान−व प्रत्ययो मत्वर्थे। मननशीलानां मानवताम् (यस्याः) पृथिव्याः (उद्वतः) उपसर्गाच्छन्दसि धात्वर्थे। पा० ५।१।११८। उत्−वतिप्रत्ययः। प्रवत उद्वतो निवत इत्यवतिर्गतिकर्मा−निरु० १०।२०। उन्नतदेशाः (प्रवतः) पूर्ववत् सिद्धिः। प्रणतदेशाः (समम्) अविषमं स्थानम् (बहु) (नानावीर्याः) अनेकबलाः (ओषधीः) अ० १।३०।३। अन्नसोमलतादिपदार्थान् (या) (बिभर्ति) धरति (पृथिवी) (नः) अस्मभ्यम् (प्रथताम्) विस्तीर्यताम् (राध्यताम्) सिध्यतु (नः) अस्मभ्यम् ॥
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