अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 58
यद्वदा॑मि॒ मधु॑म॒त्तद्व॑दामि॒ यदीक्षे॒ तद्व॑नन्ति मा। त्विषी॑मानस्मि जूति॒मानवा॒न्यान्ह॑न्मि॒ दोध॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । वदा॑मि । मधु॑ऽमत् । तत् । व॒दा॒मि॒ । यत् । ईक्षे॑ । तत् । व॒न॒न्ति॒ । मा॒ । त्विषि॑ऽमान् । अ॒स्मि॒ । जू॒ति॒ऽमान् । अव॑ । अ॒न्यान् । ह॒न्मि॒ । दोध॑त: ॥१.५८॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्वदामि मधुमत्तद्वदामि यदीक्षे तद्वनन्ति मा। त्विषीमानस्मि जूतिमानवान्यान्हन्मि दोधतः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । वदामि । मधुऽमत् । तत् । वदामि । यत् । ईक्षे । तत् । वनन्ति । मा । त्विषिऽमान् । अस्मि । जूतिऽमान् । अव । अन्यान् । हन्मि । दोधत: ॥१.५८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (6)
विषय
राज्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(यत्) जो कुछ (वदामि) मैं बोलता हूँ, (तत्) वह (मधुमत्) उत्तम ज्ञान युक्त (वदामि) बोलता हूँ, (यत्) जो कुछ (ईक्षे) मैं देखता हूँ, (तत्) उसको (मा) मुझे (वनन्ति) वे [ईश्वरनियम] सेवते हैं। मैं (त्विषिमान्) तेजस्वी, (जूतिमान्) वेगवान् (अस्मि) हूँ, (दोधतः) क्रोधी (अन्यान्) दूसरे [शत्रुओं] को (अव हन्मि) मार गिराता हूँ ॥५८॥
भावार्थ
जो मनुष्य समझ-बूझकर बोलते, देखते और काम करते हैं, वे ईश्वरनियम से प्रतापी और फुरतीले होकर विघ्नों को मिटाते हैं ॥५८॥
टिप्पणी
५८−(यत्) यत् किञ्चित् (वदामि) कथयामि (मधुमत्) श्रेष्ठज्ञानयुक्तम् (तत्) वचनम् (वदामि) (यत्) (ईक्षे) पश्यामि (तत्) (वनन्ति) संभजन्ति परमेश्वरनियमाः (मा) माम् (त्विषिमान्) दीप्तिमान् (अस्मि) (जूतिमान्) जु रंहसि−क्तिन्। वेगवान् (अन्यान्) शत्रून् (अव हन्मि) विनाशयामि (दोधतः) दोधतिः क्रुध्यतिकर्मा−निघ० २।१२, ततः शतृ। क्रुध्यतः ॥
विषय
त्विषीमान्-जूतिमान्
पदार्थ
१. (यत् वदामि) = जो कुछ भी बोलूँ (तत् मधुमत् वदामि) = वह मिठास से भरा हुआ ही बोलूँ। (यत् ईक्षे) = जब देखें तो (तत् मा वनन्ति) = लोग मुझे प्रेम [Like, love] ही करते हैं। मेरा बोलना व देखना सब मधुर ही हो। २. मैं (त्विषीमान् अस्मि) = ज्ञान की दीतिवाला हैं, (जूतिमान) = उत्तम कर्मों में वेगवाला हूँ-उन्हें स्फूर्ति से करनेवाला हूँ। (दोधत:) = [दुधokill, injure, hurt] भूमि माता के पुत्रों का हनन करते हुए (अन्यान्) = शत्रुभूत जनों को (अवहन्मि) = सुदूर विनष्ट करता हूँ।
भावार्थ
हमारा बोलना व देखना प्रेमपूर्ण व मधुर हो। हम दीप्ति व स्फूर्तिवाले बनें। शत्रुभूत जनों को सुदूर विनष्ट करें।
भाषार्थ
(यद्) जो (वदामि) मैं बोलता हूं (मधुमत्) मधुर बोलता हूं, (तद्) वही मैं (वदामि) बोलता हूं (यद्) जोकि मैं (ईक्षे) प्रत्यक्ष देखता हूं, (तद्) यह शिक्षा (मा) मुझे (वनन्ति) गुरुजन अर्थात् माता, पिता, आचार्य आदि देते हैं। इस से (त्विषीमान् अस्मि) तेजस्वी मैं हुआ हूं, (जूतिमान्) शक्तिशाली हुआ हूं, और (अन्यान् दोधतः) अन्य क्रोधी व्यक्तियों को (अव हन्मि) पिछाड़ देता हूं।
टिप्पणी
[दोधतः, दोधति क्रुध्यतिकर्मा (निघं० २।१२)। अव हन्मि= अव (नीचे) + हन् गतौ। मधुर बोलने, परन्तु छानबीन कर सदा सत्य बोलने से व्यक्ति, तेजस्वी तथा शक्तिशाली हो कर, क्रोधी और अनृतभाषियों को लोगों की दृष्टि में नीचा करता है। गुरुजन बच्चों को मधुरभाषी होने तथा सदा सत्य बोलने की शिक्षा दिया करें।]
विषय
प्रेम, माधुर्य और पराक्रम
शब्दार्थ
(यद्) जब (वदामि) बोलूं (तत्) तब (मधुमत्) मधु, माधुर्य से युक्त, मीठे वचन ही (वदामि) बोलूं (यद्) जब (ईक्षे) देखूं (तत्) तब (मा) मुझे लोग (वनन्ति) प्रेम की दृष्टि से देखें । मैं (त्विषीमान्) कान्तिमान्, तेजस्वी और (जूतिमान्) वेगवान्, उत्साही (अस्मि) हूँ। (दोधत:) मेरे प्रति क्रोध करनेवाले (अन्यान्) अन्यों को, शत्रुओं को (अवहन्मि) नीचे गिराता हूँ ।
भावार्थ
मन्त्र में निम्न शिक्षाएँ हैं १. हम जब भी बोलें, जो कुछ भी बोलें वह मीठा, मधुर, सत्य, प्रिय एवं हितकर ही हो । २. जो कुछ भी देखें उसे प्रेममयी दृष्टि से देखना चाहिए । ३. जब हमारी वाणी में माधुर्य होगा और हमारी दृष्टि प्रेममयी होगी तब सभी मनुष्य, मनुष्य ही नहीं प्राणिमात्र हमसे प्रेम करेंगे । ४. प्रत्येक व्यक्ति को ऐसा आत्मविश्वास रखना चाहिए कि मैं तेजस्वी हूँ, पराक्रमी, पुरुषार्थी और उत्साही हूँ । ५. जो हमारे प्रति वैर, विरोध, ईर्ष्या, द्वेष एवं क्रोध की भावनाएँ रखते हैं उन्हें हम मार भगाने में समर्थ हों ।
विषय
पृथिवी सूक्त।
भावार्थ
(यद्) जब (वदामि) बोलूं (तत्) तब वह (मधुमत्) मधु से भरा हुआ, मधुर, अमृतमय, सारवान् (वदामि) बोलूं (यद् ईक्षे) जब देखूं (तत्) तब (मा) मुझे लोग (वनन्ति) प्रेम से देखें, मेरा आदर करें। मैं स्वयं (त्विषीमान्) कान्तिमान्, तेजस्वी और (जूतिमान्) वेगवान्, पराक्रमशाली, उत्साही (अस्मि) रहूं। और (दोधतः) मेरे प्रति क्रोध करनेहारे (अन्यान्) अन्य शत्रुओं को मैं (अव हन्मि) नीचे गिरा मारूं।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘तद्वदन्तु मा’ इति पैप्प० सं०। ‘वदन्ति’, ‘वहन्ति’ इति क्वचित् पाठः। (च०) ‘दोधत’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(यत् वदामि तत्-मधुमत्-वदामि) जो मैं बालू मधुमत् बोलू (यत्-ईक्षे तत्-मा-वनन्ति) यत्-जिससे कि मैं 'मधुमत्' मीठा देखता हूँ। तत्-तिससे मुझे भी सम्भक्ति से अपनाते हैं (त्विषीमान्) मैं दीप्तिमान् (जूतिमान्) वेग पराक्रम वाला (अस्मि) हूँ । (अन्यान्-दोधतः-हन्मि) अन्य क्रोधियों का "दोधति क्रव्यतिकर्मा” (निघ० २।२२) हनन करता हूँ ॥५८॥
विशेष
ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Mother Earth
Meaning
Whatever I speak, that is sweet as honey, whatever or whoever I see and meet, they love and honour me. Brilliant and dynamic with a drive, I throw out all those others who are angry with me and hostile toward the motherland.
Translation
What I speak, rich in honey I speak it; what I view, that they win me; brilliant am I, possessed of swiftness; I smite down others that are violent.
Translation
Whatever I speak, I speak honey sweet, whatever I see, Divine laws serve it out to me. I am brilliant, and quick and I strike down those enemies who are fierely disposed towards me.
Translation
Whenever I speak of my country, I speak with honey-sweetness. Whenever I look upon my countrymen they love me in return, Dazzling, impetuous am I. I slay others who attack my country.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५८−(यत्) यत् किञ्चित् (वदामि) कथयामि (मधुमत्) श्रेष्ठज्ञानयुक्तम् (तत्) वचनम् (वदामि) (यत्) (ईक्षे) पश्यामि (तत्) (वनन्ति) संभजन्ति परमेश्वरनियमाः (मा) माम् (त्विषिमान्) दीप्तिमान् (अस्मि) (जूतिमान्) जु रंहसि−क्तिन्। वेगवान् (अन्यान्) शत्रून् (अव हन्मि) विनाशयामि (दोधतः) दोधतिः क्रुध्यतिकर्मा−निघ० २।१२, ततः शतृ। क्रुध्यतः ॥
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