अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 57
ऋषिः - अथर्वा
देवता - भूमिः
छन्दः - पुरोऽतिजागता जगती
सूक्तम् - भूमि सूक्त
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अश्व॑ इव॒ रजो॑ दुधुवे॒ वि ताञ्जना॒न्य आक्षि॑यन्पृथि॒वीं यादजा॑यत। म॒न्द्राग्रेत्व॑री॒ भुव॑नस्य गो॒पा वन॒स्पती॑नां॒ गृभि॒रोष॑धीनाम् ॥
स्वर सहित पद पाठअश्व॑:ऽइव । रज॑: । दु॒धु॒वे॒ । वि । तान् । जना॑न् । ये । आ॒ऽअक्षि॑यन् । पृ॒थि॒वीम् । यात् । आजा॑यत । म॒न्द्रा । अ॒ग्र॒ऽइत्व॑री । भुव॑नस्य । गो॒पा: । वन॒स्पती॑नाम् । गृभि॑: । ओष॑धीनाम् ॥१.५७॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्व इव रजो दुधुवे वि ताञ्जनान्य आक्षियन्पृथिवीं यादजायत। मन्द्राग्रेत्वरी भुवनस्य गोपा वनस्पतीनां गृभिरोषधीनाम् ॥
स्वर रहित पद पाठअश्व:ऽइव । रज: । दुधुवे । वि । तान् । जनान् । ये । आऽअक्षियन् । पृथिवीम् । यात् । आजायत । मन्द्रा । अग्रऽइत्वरी । भुवनस्य । गोपा: । वनस्पतीनाम् । गृभि: । ओषधीनाम् ॥१.५७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राज्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(यात्) जब से (अजायत) वह उत्पन्न हुई है [तब से], (अश्वः इव) जैसे घोड़ा (रजः) धूलि को, [वैसे ही] (मन्द्रा) हर्षदायिनी, (अग्रेत्वरी) अग्रगामिनी, (भुवनस्य) संसार की (गोपाः) रक्षाकारिणी, (वनस्पतीनाम्) वनस्पतियों [पीपल आदि] और (ओषधीनाम्) ओषधियों [सोमलता अन्न आदि] की (गृभिः) ग्रहण स्थान उस [पृथिवी] ने (तान् जनान्) उन मनुष्यों को (वि दुधुवे) हिला दिया है, (ये) जिन्होंने (पृथिवीम्) पृथिवी को (आक्षियन्) सताया है ॥५७॥
भावार्थ
जिन अभिमानियों ने पृथिवी पर अत्याचार करके मस्तक उठाया है, वे ईश्वरनियम से सदा नष्ट हुए हैं, जैसे घोड़ा थकावट उतारने को पृथिवी पर लोटकर शरीर की मलिन धूलि हिलाकर गिरा देता है ॥५७॥
टिप्पणी
५७−(अश्वः) तुरङ्गः (इव) यथा (रजः) धूलिम् (दुधुवे) धुञ्, धूञ् कम्पने−लिट्। कम्पितवती (वि) विविधम् (तान्) (जनान्) (ये) (आ−अक्षियन्) क्षि क्षये हिंसायां च−लङ्, तुदादित्वं छान्दसम्। अक्षयन्। हिंसितवन्तः (पृथिवीम्) (यात्) यत्कालमारभ्य (अजायत) उत्पन्ना अभूत् (मन्द्राः) स्फायितञ्चि०। उ० २।१३। मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु-रक्। मोदयित्री (अग्रेत्वरी) शीङ्क्रुशिरुहिजि०। उ० ४।११४। अग्र+इण् गतौ−क्वनिप्। वनो र च। पा० ४।१।७। ङीब्रेफौ। अग्रगामिनी (भुवनस्य) संसारस्य (गोपाः) गोपायतीति गोपाः, गुपू रक्षणे−विच्, अतो लोपः, यलोपः। रक्षिका (वनस्पतीनाम्) अश्वत्थादिवृक्षाणाम् (गृभिः) भ्रमेः सम्प्रसारणं च। उ० ४।१२१। ग्रह उपादाने−इन्, स च कित्। ग्रहणस्थानम् (ओषधीनाम्) सोमलतान्नादीनाम् ॥
विषय
नित्य नव सर्जन
पदार्थ
१. (इव) = जैसे (अश्वः) = घोड़ा (रज: दुधवे) = धूलि को कम्पित करके दूर कर देता है, उसी प्रकार ये जो लोग (पृथिवीं आक्षियन्) = पृथिवी पर समन्तात् बसे हैं, (तान् जनान्) = उन सब मनुष्यों को, (यात् अजायत) = जब से यह पृथिवी हुई है तब से वि [दुधवे] कम्पित करके दूर करती आयी है। इस पृथिवी पर कोई भी प्राणी स्थिर नहीं है। सभी के ये शरीर नश्वर हैं। २. यह पृथिवी (मन्द्रा) = पुराने को समाप्त करके निरन्तर नये को जन्म देती हुई सचमुच प्रशंसनीय [Praisewor thy] है, (अग्र इत्वरी) = आगे और आगे चलनेबाली है, (भुवनस्य गोपा:) = सब लोकों का-अपने पर होनेवाले प्राणियों का रक्षण करनेवाली है। रक्षण के लिए ही सब (वनस्पतीनाम् ओषधीना गभिः) वनस्पतियों व ओषधियों का अपने में ग्रहण करनेवाली है।
भावार्थ
यह पृथिवी पुराने शरीरों को समाप्त करके नयों को जन्म दे रही है। यह प्रशंसनीय पृथिवी निरन्तर आगे चलती हुई सब प्राणियों की रक्षक है-रक्षण के लिए ही सब वनस्पतियों को अपने में धारण किये हुए है।
भाषार्थ
(ये) जिन्होंने (पृथिवीम्) पृथिवी का (आक्षियन्) क्षय किया है, (यात्) जब से (अजायत) पैदा हुई है पृथिवी (तान् जनान्) उन जनों को (वि दुधुवे) विविध कालों में कम्पाती रही है, (इव) जैसे कि (अश्वः) घोड़ा (रजः) धूली को कम्पाता है। (मन्द्रा१) पृथिवी मन्दगति वाली है, परन्तु है (अग्रेत्वरी) आगे-आगे बढ़ने वाली, (भुवनस्य) उत्पन्न प्राणिजगत् की (गोपाः) रक्षिका है, (वनस्पतीनाम्, ओषधीनाम्) वनस्पतियों और ओषधियों को (गृभिः) ग्रहण किये हुई है।
टिप्पणी
[यह स्वाभाविक नियम है कि आततायिओं का अन्ततोगत्वा पराजय होता है। "सत्यमेव जयते", सत्य की ही विजय होती है। परक्षय,– सदाचार, धर्म, न्याय के विरुद्ध है, अतः सत्य नहीं। संसार की उत्पत्ति का अन्तिम उद्देश्य है जीवात्माओं का मोक्ष। भोग द्वारा प्राणियों का सुधार होता रहता है ताकि प्राणी मोक्ष के लिये अग्रसर होते रहें। पृथिवी पर यह क्रिया मन्द गति से हो रही है, परन्तु हो रही है आगे की ओर, उन्नति की ओर, मोक्ष की ओर; क्योंकि पृथिवी प्राणियों की रक्षिका है, विनाशिका नहीं। रक्षिका होने के कारण ही प्राणियों के लिये पृथिवी वनस्पतियों तथा ओषधियों को ग्रहण किये हुए है। यात्= यस्मात् कालात्, छान्दस प्रयोग। अग्रेत्वरी; त्वरा = पंजाबी भाषा में "टुरना" या तुरना' चलना, गति करना। अश्व जैसे शरीरलग्न धूली को, शरीर कम्पा कर झाड़ फैंकता है, वैसे पृथिवी अपने पर बसे आततायियों को, भूचाल आदि द्वारा झाड़ फैंकती है। आक्षियन् = क्षि क्षये। दुधुवे = धूञ् कम्पने]। [१. "भूगोल विद्या" की दृष्टि से पृथिवी अपने कक्षावृत्त पर आगे-आगे गति करती रहती है। परन्तु उस की गति हमें अनुभूत नहीं होती, अतः उसकी गति को मन्द्रा अर्थात् मन्द कहा है।]
विषय
पृथिवी सूक्त।
भावार्थ
(अश्वः इव) अश्व जिस प्रकार (रजः दुधुवे) अपने शरीर को कंपाकर धूल को झाड़ फेंकता है उसी प्रकार (ये) जो लोग (पृथिवीम्) पृथिवी पर (आक्षियन्) आकर बसे (यात् अजायत) जब से उत्पन्न हुई तब से अब तक (तान् जनान्) उन सब मनुष्यों को इस पृथिवी ने (दुधुवे) झाड़ फेंका है। यह पृथिवी सदा (मन्द्रा) सुप्रसन्न और औरों को प्रसन्न करने हारी (अग्रेत्वरी) आगे आगे शीघ्रता से चलने वाली (भुवनस्य गोपा) समस्त उत्पन्न होने वाले पदार्थों की रक्षा करनेहारी (वनस्पतीनाम् ओषधीनाम्) वनस्पतियों और ओषधियों को (गृभिः) अपने भीतर ग्रहण, धारण करने वाली है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(यात्-अजायत) “यं कालमारभ्य अजायत-ल्यब्लोपे पञ्चम्युपसंख्यानम्” ‘यस्मात् कालात्' "यात् सर्वनाम संज्ञाया अमावश्छान्दसः" जिस समय से यह पृथिवी प्रादुर्भूत हुई तब से (ये पृथिवीम्-वि-आक्षियन्) जो मनुष्य विविध रूप से पृथिवी को घेरकर बसे सर्वाधिकार जमा बसे गर्वित राजा महाराजा बने कि यह पृथिवी सदा हमारी बनी रहेगी (तान्जनान्) उन ऐसे गर्वित जनों को (अश्वः-इव रज:-दुधुवे) घोडा जैसे धूल को झाड देता है वैसे उनको झाड देती है अस्त व्यस्त कर देती है (मन्द्रा-अग्र इत्वरी) यह पृथिवी वैसे सब प्राणों को हर्ष देने वाली है उन्हें आगे प्रेरित करने वाली है। (भुवनस्य गोपा) उत्पन्न होने वाले प्राणी मात्र की रक्षिका है (वनस्पतीनाम्-औषधीनाम्-गृभिः) वनस्पतियों-वृक्षों और फलपाकान्त गेहूँ आदि ओषधियों की गर्भ देने वाली है आश्रय देने वाली है ॥५७॥
विशेष
ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Mother Earth
Meaning
Happy, calm, and moving forward at a pleasant, undisturbing pace, protector of her earthly world, bearer and sustainer of herbs and trees, ever since she was bom, the Earth Mother, like a horse that shakes off dust from its body, shakes off those people who live but presume to possess and over-ride her as masters.
Translation
As a horse the dust, she has shaken apart those people who dwelt upon the earth since she was born -- pleasing, going at the head, keeper of creation, container of forest trees, of herbs.
Translation
Since her birth this mother earth which is the source of all cheers and advanced marches, and which protects the whole populace, keeps the trees and plants, shakes off all those people that oppress her as a horse shakes off dust.
Translation
Just as the horse scattereth the dust, so the motherland since its creation hath scattered all those persons who have tormented it. This motherland is full of delight, leader and head of all the world, the protector of the universe, the trees, protectoress and the plants upholder.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५७−(अश्वः) तुरङ्गः (इव) यथा (रजः) धूलिम् (दुधुवे) धुञ्, धूञ् कम्पने−लिट्। कम्पितवती (वि) विविधम् (तान्) (जनान्) (ये) (आ−अक्षियन्) क्षि क्षये हिंसायां च−लङ्, तुदादित्वं छान्दसम्। अक्षयन्। हिंसितवन्तः (पृथिवीम्) (यात्) यत्कालमारभ्य (अजायत) उत्पन्ना अभूत् (मन्द्राः) स्फायितञ्चि०। उ० २।१३। मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु-रक्। मोदयित्री (अग्रेत्वरी) शीङ्क्रुशिरुहिजि०। उ० ४।११४। अग्र+इण् गतौ−क्वनिप्। वनो र च। पा० ४।१।७। ङीब्रेफौ। अग्रगामिनी (भुवनस्य) संसारस्य (गोपाः) गोपायतीति गोपाः, गुपू रक्षणे−विच्, अतो लोपः, यलोपः। रक्षिका (वनस्पतीनाम्) अश्वत्थादिवृक्षाणाम् (गृभिः) भ्रमेः सम्प्रसारणं च। उ० ४।१२१। ग्रह उपादाने−इन्, स च कित्। ग्रहणस्थानम् (ओषधीनाम्) सोमलतान्नादीनाम् ॥
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