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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 27
    ऋषिः - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - भूमि सूक्त
    63

    यस्यां॑ वृ॒क्षा वा॑नस्प॒त्या ध्रु॒वास्तिष्ठ॑न्ति वि॒श्वहा॑। पृ॑थि॒वीं वि॒श्वधा॑यसं धृ॒ताम॒च्छाव॑दामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्या॑म् । वृ॒क्षा: । वा॒न॒स्प॒त्या: । ध्रु॒वा: । तिष्ठ॑न्ति । वि॒श्वहा॑ । पृ॒थि॒वीम् । वि॒श्वऽधा॑यसम् । धृ॒ताम् । अ॒च्छ॒ऽआव॑दामसि ॥१.२७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्यां वृक्षा वानस्पत्या ध्रुवास्तिष्ठन्ति विश्वहा। पृथिवीं विश्वधायसं धृतामच्छावदामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्याम् । वृक्षा: । वानस्पत्या: । ध्रुवा: । तिष्ठन्ति । विश्वहा । पृथिवीम् । विश्वऽधायसम् । धृताम् । अच्छऽआवदामसि ॥१.२७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 27
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राज्य की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (यस्याम्) जिस [पृथिवी] पर (वानस्पत्याः) वनस्पतियों [बड़े-बड़े पेड़ों] से उत्पन्न हुए (वृक्षाः) वृक्ष (ध्रुवाः) दृढ़ होकर (विश्वहा) अनेक प्रकार (तिष्ठन्ति) ठहरते हैं (विश्वधायसम्) [उस] सब की धारण करनेवाली, (धृताम्) [वीरों से] धारण की गयी (पृथिवीम्) पृथिवी को (अच्छावदामसि) स्वागत करके हम आवाहन करते हैं ॥२७॥

    भावार्थ

    जिस पृथिवी पर हमारे उपकार के लिये फल फूल पत्र आदिवाले वृक्ष उत्पन्न होते हैं, उसकी सावधानी हम सदा करते रहें ॥२७॥

    टिप्पणी

    २७−(यस्याम्) पृथिव्याम् (वृक्षाः) वृक्ष वरणे−अच्। स्वीकरणीयास्तरवः (वानस्पत्याः) अ० ३।६।६। वनस्पति-ण्य। वनस्पतिभ्योऽश्वत्थादिभ्य उत्पन्नाः (ध्रुवाः) दृढाः सन्तः (तिष्ठन्ति) (विश्वहा) अनेकधा (पृथिवीम्) (विश्वधायसम्) अ० ३।˜२२।२। सर्वधारयित्रीम् (धृताम्) वीरपुरुषैर्धारिताम् (अच्छावदामसि) अ० ६।५९।३। अच्छ सुष्ठु स्वागतेन आवदामः आह्वयामः ॥

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    विषय

    विश्वधायाः पृथिवी

    पदार्थ

    १. (यस्याम्) = जिसमें (वृक्षा:) = वृक्ष, (वानस्पत्या:) = और नाना प्रकार के वनस्पति, (विश्वहा) = सदा (भुवा:) = ध्रुव रूप से-निश्चल रूप से (तिष्ठिन्ति) = स्थित हैं, उस (विश्वधायसं पृथिवीम्) = समस्त पदार्थों का धारण करनेहारी (धृताम्) = प्रभु से मर्यादा में स्थापित की गई भूमि को (अच्छावदामसि) = लक्ष्य करके हम परस्पर चर्चा करते हैं। २. मिलकर पृथिवी का ज्ञान प्राप्त करते हैं। उसके स्वरूप व उससे उत्पन्न वृक्षों-वनस्पतियों की चर्चा करते हैं।

    भावार्थ

    पृथिवी से उत्पन्न वृक्षों व वनस्पतियों का ज्ञान प्राप्त करके, उनका ठीक प्रयोग करते हुए हम अपना धारण करनेवाले बनते हैं।

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    भाषार्थ

    (यस्याम्) जिस में (वृक्षाः) नानाविध वृक्ष, तथा (वानस्पत्याः) वनों के पेड़ या फलदार वृक्ष (ध्रुवाः) स्थिररूप में (विश्वहा) सदा (तिष्ठन्ति) स्थित रहते हैं, उस (विश्वधायसम्) सर्वपालिका तथा (धृताम्) सत्यादिसाधनों द्वारा धारित हुई (अथर्व० १२।१।१,२६) (पृथिवीम्) पृथिवी के प्रति, (अच्छ आवदामसि) हम सब अच्छे अर्थात् प्रशंसा के वचन सर्वत्र कहते हैं।

    टिप्पणी

    [अच्छ= Pure (आप्टे); स्वच्छ। तथा अच्छाभी आभिमुख्ये। किश्वहा= विश्वाहा]।

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    विषय

    पृथिवी सूक्त।

    भावार्थ

    (यस्याम्) जिसमें (वृक्षाः) वृक्ष और (वानस्पत्याः) नाना प्रकार के वनस्पति (विश्वहा) सहस्रों प्रकार से सदा (ध्रुवाः तिष्ठन्ति) स्थिर, नित्य रूप से विराजते हैं उस (विश्वधायसं पृथिवीम्) समस्त पदार्थों और समस्त जगत् को धारण करने हारी (धृताम्) स्थिर पृथिवी की (अच्छा वदामसि) हम स्तुति करते हैं।

    टिप्पणी

    (च०) ‘भूम्यैहिरण्यवक्षसि धृतमच्छा’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (यस्यां वृक्षाः-वानस्पत्याः-विश्वहा ध्रवाः-तिष्ठन्ति) जिस पृथिवी पर वृक्ष-फलवृक्ष और फूल-फल दोनों से मिश्रित एवं सब प्रकार वाले 'यहाँ 'धा' के स्थान में छान्दस 'हा' प्रत्यय है' ध्रुव-ठहरते हैं बने रहते हैं (विश्वधायसं धृतां पृथिवीम् अच्छ वदामसि) उस सबको धारण करने वाली स्थिर पृथिवी को अच्छे-अच्छी है ऐसा प्रशंसित घोषित करते हैं ॥२७॥

    विशेष

    ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Song of Mother Earth

    Meaning

    Whereon herbs and trees of the forest stand firm and always flourish, that Mother Earth, bearer and sustainer of all things of the world, placed and held very well in her position, we praise and serve with reverence.

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    Translation

    On whom stand always fixed the trees, the forest trees, the all-supporting earth that is held (together) do we address.

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    Translation

    On whom big trees the Lords of wood evermore stand firm, that mother earth, the supporter of all and herself supported by brave men, we invoke upon and welcome,

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    Translation

    On whom the trees, plants and herbs stand evermore immovable, we pay homage to that all-supporting motherland, whose independence we firmly protect.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २७−(यस्याम्) पृथिव्याम् (वृक्षाः) वृक्ष वरणे−अच्। स्वीकरणीयास्तरवः (वानस्पत्याः) अ० ३।६।६। वनस्पति-ण्य। वनस्पतिभ्योऽश्वत्थादिभ्य उत्पन्नाः (ध्रुवाः) दृढाः सन्तः (तिष्ठन्ति) (विश्वहा) अनेकधा (पृथिवीम्) (विश्वधायसम्) अ० ३।˜२२।२। सर्वधारयित्रीम् (धृताम्) वीरपुरुषैर्धारिताम् (अच्छावदामसि) अ० ६।५९।३। अच्छ सुष्ठु स्वागतेन आवदामः आह्वयामः ॥

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