अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 4
ऋषिः - अथर्वा
देवता - भूमिः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा जगती
सूक्तम् - भूमि सूक्त
211
यस्या॒श्चत॑स्रः प्र॒दिशः॑ पृथि॒व्या यस्या॒मन्नं कृ॒ष्टयः॑ संबभू॒वुः। या बिभ॑र्ति बहु॒धा प्रा॒णदेज॒त्सा नो॒ भूमि॒र्गोष्वप्यन्ने॑ दधातु ॥
स्वर सहित पद पाठयस्या॑: । चत॑स्र: । प्र॒ऽदिश॑: । पृ॒थि॒व्या: । यस्या॑म् । अन्न॑म् । कृ॒ष्टय॑: । स॒म्ऽब॒भू॒वु: । या । बिभ॑र्ति । ब॒हु॒ऽधा । प्रा॒णत् । एज॑त् । सा । न॒: । भूमि॑: । गोषु॑ । अपि॑ । अन्ने॑ । द॒धा॒तु॒ ॥१.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्याश्चतस्रः प्रदिशः पृथिव्या यस्यामन्नं कृष्टयः संबभूवुः। या बिभर्ति बहुधा प्राणदेजत्सा नो भूमिर्गोष्वप्यन्ने दधातु ॥
स्वर रहित पद पाठयस्या: । चतस्र: । प्रऽदिश: । पृथिव्या: । यस्याम् । अन्नम् । कृष्टय: । सम्ऽबभूवु: । या । बिभर्ति । बहुऽधा । प्राणत् । एजत् । सा । न: । भूमि: । गोषु । अपि । अन्ने । दधातु ॥१.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राज्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(यस्याः पृथिव्याः) जिस पृथिवी की (चतस्रः) चारों (प्रदिशः) बड़ी दिशाएँ हैं, (यस्याम्) जिस में (अन्नम्) अन्न और (कृष्टयः) खेतियाँ (संबभूवुः) उत्पन्न हुई हैं। (या) जो (बहुधा) अनेक प्रकार से (प्राणत्) श्वास लेते हुए और (एजत्) चेष्टा करते हुए [जगत्] को (बिभर्ति) पोषती है, (सा भूमिः) वह भूमि (नः) हमें (गोषु) गौओं में (अपि) और भी (अन्ने) अन्न में (दधातु) रक्खे ॥४॥
भावार्थ
जो मनुष्य सब ओर दृष्टि फैलाकर अन्न आदि पदार्थ प्राप्त करके सब प्राणियों की रक्षा करते हैं, वे इस भूमि पर गौ, बैल, अश्व आदि और अन्न आदि पदार्थों से परिपूर्ण रहते हैं ॥४॥
टिप्पणी
४−(यस्याः) (चतस्रः) (प्रदिशः) महादिशाः (पृथिव्याः) भूमेः (या) (बिभर्ति) पोषयति (बहुधा) अनेकप्रकारेण (प्राणत्) श्वासं कुर्वत् (एजत्) चेष्टायमानं जगत् (सा) (नः) अस्मान् (भूमिः) (गोषु) धेनुषु (अपि) (अन्ने) (दधातु) धरतु। अन्यत् पूर्ववत्−म० ३ ॥
विषय
गोदुग्ध+अन्न
पदार्थ
१. (यस्याः पृथिव्या:) = जिस पृथिवी की (चतस्त्र: प्रदिश:) = चारों दिशाएँ प्रकर्षवाली हैं जिससे सब ओर विविध सौन्दर्य है। (यस्याम्) = जिसमें (कृष्टयः) = श्रमशील मनुष्य (अन्नं संबभूवुः) = अन्न को सम्यक उत्पन्न करते हैं। ३. (या) = जो पृथिवी (बहुधा) = बहुत प्रकार से (प्राणत् एजत्) = प्राणधारण करनेवाले गतिशील प्राणियों का (बिभर्ति) = भरण व पोषण करती है। (सा भूमिः) = वह भूमि (न:) = हमें (गोषु) = गौओं में (अन्ने अपि) = तथा अन्न में भी (दधातु) = स्थापित करे । गोदुग्ध हमारे लिए सदा सुलभ बना रहे तथा अन्न की हमें कमी न हो।
भावार्थ
इस पृथिवी की सभी दिशाएँ उत्तम हैं। यहाँ श्रमशील कृषकजन अन्न का उत्पादन करते हैं। यह सभी प्राणियों का धारण करती है। हमारे यहाँ गोदुग्ध व अन्न सदा सुलभ हों।
भाषार्थ
(यस्याः पृथिव्याः) जिस पृथिवी की (चतस्रः प्रदिशः) चार विस्तृत दिशाएं हैं, (यस्याम्) जिस में (अन्नम्, कृष्टयः) अन्न और खेतियां या नाना विध कृषि कर्म (संबभूवुः) होते रहे है, (सा) यह (बहुधा) बहुत प्रकार के (प्राणत् एजत्) चलते फिरते प्राणी जगत् का (बिभर्त्ति) धारण पोषण करती है, (सा भूमिः) वह भूमि (नः) हमें (गोषु) गौओं में (अपि अन्ने) तथा अन्न में (दधातु) स्थापित करे।
विषय
पृथिवी सूक्त।
भावार्थ
(यस्याः पृथिव्याः) जिस पृथिवी के चारों ओर (चतस्रः) चार (प्रदिशः) विशाल दिशाएं दूर तक फैली हैं। (यस्याम्) जिस पर(कृष्टयः) मनुष्य लोग कृषि द्वारा (अन्नं संबभूवुः) अन्न उत्पन्न करते हैं अथवा (यस्यां अन्नम्) जिस पर अन्न और नाना (कृष्टयः) खेतियां (सं बभूवुः) उत्पन्न होती हैं। (या) जो (प्राणत् एजत्) प्राण लेने हारे, जीते जागते और चलते फिरते चराचर संसार का (बहुधा) बहुत से प्रकारों से (बिभर्त्ति) पालन पोषण करती है, (सा) वह हमारी (भूमिः) भूमि (नः) हमें (गोषु) गउओं और (अन्ने अपि) अन्नादि सम्पत्ति में (दधातु) धारण करे। हमें बहुत से पशु और बहुतसा अन्न दे।
टिप्पणी
(प्र०) ‘यस्यां पृथिव्यां’ (द्वि०) ‘गृष्टयः’ (तृ० च०) ‘बहुधा प्राणिने जांगनो भूमिर्गोष्वश्वेषु पिन्वे कृणोतु’ इति पैप्प० सं०। (च०) ‘गोष्वप्यन्ये’ इति।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(यस्याः पृथिव्याः चतस्त्र: प्रदिशः) जिस पृथिवी की चार प्रधान दिशाएं हैं (यस्याम्-अन्नं कृष्टयः सम्बभूवुः) जिस्क पृथिवी पर "अन्नाय चतुध्यर्थे प्रथमा सुपां सु०" छान्न के लिये कृषियां खेतियां होती हैं (या बहुधा प्राणत्-एजत्-बिभर्ति) जो अन्नखेतियों से बहुत प्रकारों से प्राण धारण करते हुए गति करते हुए का पोषण करती है (सा भूमिः नः-गोषु अपि अन्ने दधातु) वह भूमि हमें गौओं में और अन्न में धारण करें, समृद्ध करें ॥४॥
विशेष
ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Mother Earth
Meaning
The earth mother whose four quarters extend far and wide in space, where food is plenty and farmers and other people grow happy, which bears and sustains her living breathing children vibrant and happy in a variety of ways, may that motherland establish us in plenty of the wealth of cows and food.
Translation
Whose, the earth’s (are) the four quarters on — food, plowings, came into being; who bears manifoldly what breaths, what stirs -- let that earth set us among kine, also in inexhaustibleness.
Translation
The earth (mother land) of ours has her four main (and four subordinate) quarters, in each of which food and farms abound, and she by various means supports this whole world endowed with life and motion. May that earth establish us in a plenty of (milch) cows and also of food.
Translation
She who has got four vast regions, in whom cultivators produce food through agriculture. She who protects the breathing and moving creatures, may this motherland vouchsafe us kine and food.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(यस्याः) (चतस्रः) (प्रदिशः) महादिशाः (पृथिव्याः) भूमेः (या) (बिभर्ति) पोषयति (बहुधा) अनेकप्रकारेण (प्राणत्) श्वासं कुर्वत् (एजत्) चेष्टायमानं जगत् (सा) (नः) अस्मान् (भूमिः) (गोषु) धेनुषु (अपि) (अन्ने) (दधातु) धरतु। अन्यत् पूर्ववत्−म० ३ ॥
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