अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 51
ऋषिः - अथर्वा
देवता - भूमिः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदानुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी
सूक्तम् - भूमि सूक्त
66
यां द्वि॒पादः॑ प॒क्षिणः॑ सं॒पत॑न्ति हं॒साः सु॑प॒र्णाः श॑कु॒ना वयां॑सि। यस्यां॒ वातो॑ मात॒रिश्वेय॑ते॒ रजां॑सि कृ॒ण्वंश्च्या॒वयं॑श्च वृ॒क्षान्। वात॑स्य प्र॒वामु॑प॒वामनु॑ वात्य॒र्चिः ॥
स्वर सहित पद पाठयाम् । द्वि॒ऽपाद॑: । प॒क्षिण॑: । स॒म्ऽपत॑न्ति । हं॒सा: । सु॒ऽप॒र्णा: । श॒कु॒ना: । वयां॑सि । यस्या॑म् । वात॑: । मा॒त॒रिश्वा॑ । ईयते॑ । रजां॑सि । कृ॒ण्वन् । च्य॒वय॑न् । च॒ । वृ॒क्षान् । वात॑स्य । प्र॒ऽवाम् । उ॒प॒ऽवान् । अनु॑ । वा॒ति॒ । अ॒र्चि: ॥१.५१॥
स्वर रहित मन्त्र
यां द्विपादः पक्षिणः संपतन्ति हंसाः सुपर्णाः शकुना वयांसि। यस्यां वातो मातरिश्वेयते रजांसि कृण्वंश्च्यावयंश्च वृक्षान्। वातस्य प्रवामुपवामनु वात्यर्चिः ॥
स्वर रहित पद पाठयाम् । द्विऽपाद: । पक्षिण: । सम्ऽपतन्ति । हंसा: । सुऽपर्णा: । शकुना: । वयांसि । यस्याम् । वात: । मातरिश्वा । ईयते । रजांसि । कृण्वन् । च्यवयन् । च । वृक्षान् । वातस्य । प्रऽवाम् । उपऽवान् । अनु । वाति । अर्चि: ॥१.५१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राज्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(याम्) जिस पर (द्विपादः) दो पाँववाले (पक्षिणः) पक्षी [अर्थात्] (हंसाः) हंस, (सुपर्णाः) बड़े उड़नेवाले, [गरुड़ आदि], (शकुनाः) शक्तिवाले [गिद्ध चील आदि] (वयांसि) पक्षीगण (संपतन्ति) उड़ते रहते हैं। (यस्याम्) जिस पर (मातरिश्वा) आकाश में चलनेवाला (वातः) वायु (रजांसि) जलवाले बादलों को (कृण्वन्) बनाता हुआ (च) और (वृक्षान्) वृक्षों को (च्यावयन्) हिलाता हुआ (ईयते) चलता है। और (अर्चिः) प्रकाश (वातस्य) वायु के (प्रवाम्) फैलाव और (उपवाम् अनु) संकोच के साथ-साथ (वाति) चलता है ॥५१॥
भावार्थ
मनुष्य पक्षियों, वायु, मेघ, प्रकाश आदि के ज्ञान और गुणों से लाभ उठाकर आनन्दित होवें−इस मन्त्र का अन्वय अगले मन्त्र ५२ के साथ है ॥५१॥ इस मन्त्र का दूसरा पाद अ० ११।२।२४। के दूसरे पाद में आया है ॥
टिप्पणी
५१−(याम्) पृथिवीम् (द्विपादः) पादद्वयोपेताः (पक्षिणः) (संपतन्ति) उड्डीयन्ते (हंसाः) पक्षिविशेषाः (सुपर्णाः) शोभनपतना गरुडादयः (शकुनाः) शक्तिमन्तो गृध्रचिल्लादयः (वयांसि) पक्षिणः (यस्याम्) (वातः) वायुः (मातरिश्वा) अ० ५।१०।८। अन्तरिक्षगामी (ईयते) गच्छति (रजांसि) अ० ४।१।४। उदकं रज उच्यते−निरु० ४।१९। उदकवतो मेघान् (कृण्वन्) कुर्वन्। रचयन् (च्यवयन्) सांहितिको दीर्घः। गमयन्। कम्पयन् (च) (वृक्षान्) (वातस्य) वायोः (प्रवाम्) वा गतौ−क्विप्। प्रकृष्टां गतिम्। प्रसृतिम्। (उपवाम्) समीपगतिम्। संकोचम् (अनु) अनुसृत्य (वाति) गच्छति (अर्चिः) प्रकाशः ॥
विषय
विविध पक्षी-वायु, आँधी व लू
पदार्थ
१. (याम्) = जिस पृथिवी पर (द्विपादः) = ये दो पाँववाले अथवा पृथिवी व अन्तरिक्ष पर दोनों स्थानों में गतिवाले [द्वयोः पद्यन्ते] (पक्षिण:) = पक्षी (संपतन्ति) = सम्यक् गतिवाले होते हैं, (हंसा:) = हंस, (सुपर्णा:) = गरुड़, (शकुना:) = गिद्ध या चील [Vulture or kite] तथा (वासि) = कौवे [Crow] जिसपर उड़ा करते हैं, वह यह हमारी भूमिमाता है। २. (यस्याम्) = जिसमें (मातरिश्वा) = अन्तरिक्ष में निरन्तर गतिवाला यह (वात:) = वायु (ईयते) = चलता है। (रजांसि कृण्वन) = सारे अन्तरिक्ष में धूल ही-धूल फैलाता हुआ, (च) = और (वृक्षान् च्यावयन्) = वृक्षों को अपने स्थान से च्युत करता हुआ यह वायु आँधी के रूप में चलता है। इस (वातस्य प्रवाम् उपवाम् अनु) = वायु के प्रबलवेग [प्रवा] व निरन्तर बहने [उपवा] के साथ (अर्चिः) = गर्मी की ज्वाला [ल] भी वाति चलती है। यह प्रचण्ड लू भी दुर्गन्ध की समाप्ति व क्रिमियों के विनाश के लिए आवश्यक ही होती है।
भावार्थ
इस पृथिवी पर नाना प्रकार के पक्षियों का सम्पतन होता है। यहाँ अन्तरिक्ष में वाय निरन्तर बहती है-कभी वह आँधी के रूप में होती है और वृक्षों को उखाड रही होती है और कभी-कभी यह प्रचण्ड लू के रूप में चलती हुई सब रोगकृमियों व दुर्गन्ध का विनाश करती है।
भाषार्थ
(याम्) जिस की ओर (द्विपादः पक्षिणः) दो पैरों वाले पक्षी, अर्थात् (हंसाः) हंस, (सुपर्णाः) गरुड़, (शकुनाः) शक्तिशाली गीध-चील, (वयांसि) कौए (सं पतन्ति) संपात करते हैं। (यस्याम्) जिस में (मातरिश्वा) वायु, माता अर्थात् अन्तरिक्ष में बढ़ने वाली वायु,– (रजांसि कृण्वन्) धूलि उड़ाती हुई, (वृक्षान् च च्यावयन्) और वृक्षों को गिराती हुई (ईयते) गति करती है, तथा (वातस्य) वायु के (प्रवाम, उपवाम्, अनु) परे-हटने और समीप आने के अनुसार (अर्चिः) अग्नि की ज्वाला (वाति) परे-हटती और समीप-आती है।
टिप्पणी
[प्रबल वायु के प्रवाह में वृक्षों में रगड़ के कारण अग्नि के प्रज्वलित हो जाने पर वायु के अनुसार ज्वाला की गति का वर्णन हुआ है। संपतन्ति= पक्षी स्वच्छन्दता से अन्तरिक्ष में विहार करते हैं, परन्तु थक कर पुनः पृथिवी पर संपात करते हैं। इस प्रकार पृथिवी पक्षियों के लिये भी विश्राम भूमि है।]
विषय
पृथिवी सूक्त।
भावार्थ
(याम्) जिस पृथिवी पर (द्विपादः) दो पैर वाले, मनुष्य, (पक्षिणः) पक्षी, (हंसाः) हंस आदि (सुपर्णाः) सुन्दर पंखों से युक्त (शकुनाः) शक्ति शाली गरुड़ आदि (वयांसि) पक्षी (संपतन्ति) उड़ते हैं और (यस्यां) जिसमें (मातरिश्वा) अन्तरिक्ष में बड़े वेग से चलने वाला (वातः) प्रचण्ड वायु (रजांसि कृण्वत्) धूलियां उड़ाता हुआ, आकाश में धूलि के गुब्बार उड़ाता हुआ और (वृक्षान्) बड़े बड़े वृत्तों को (च्यावयन्) गिराता हुआ (ईयते) चलता है और जहां (वातस्य प्रवाम्) प्रचण्ड वायु के प्रबल वेग और (उपवाम् अनु) निरन्तर बहने के साथ साथ (अर्चिः) आग की ज्वाला या लू भी (वाति) बहा करती हैं।
टिप्पणी
‘यस्यां वातयते मातरिश्वा रजांसि’ इति (पं०) ‘वातस्यनु भ्रात्यर्चिषो’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(यां द्विपादः पक्षिणः सम्पतन्ति) जिस पृथिवी के ऊपर दो पैर वाले पक्षी उडते फिरते हैं (हंसाः सुपर्णाः शकुनाः वयांसि) जो हंस आदि जलचर, सुपर्ण-गरुड़ आदि सुन्दर पर वाले, शकुन-दूर तक ऊंचे उडने में शक्त चील आदि और छोटे पक्षी चिडिया तितली आदि उडते फिरते बैठते हैं (यस्यां मातरिश्वा रजांसि कृण्वन् वृक्षान्-च यावयन्-ईयते) जिस पृथिवी पर मातरिश्वा नाम का वात-मंझावात धूलियों को ऊपर करता हुआ और वृक्षों को छिन्न भिन्न करता हुआ गिराता गति करता है (अर्चिः-वातस्य प्रवाम्-उपवान् अनुवाति) और जिस पर अत्रि ज्वलनधारा-लू वात के नीचे ऊपर वृत्ति के साथ बहती है ॥५१॥
विशेष
ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Mother Earth
Meaning
On which bipeds, birds, swans, eagles, hawks and others fly and land (on lakes and trees), where winds and storms blow raising dust, shaking trees and beating the clouds, where light and shade alternate in response to the strength and calm of the winds, that is Mother Earth.
Translation
She,to whom two-footed winged-ones fly together, swans, eagles, hawks, birds; on whom the wind, Mātariśvan, goes about, making clouds of dust and setting in motion the trees — flame blows after the forth-blowing, the toward-blowing, of the wind.
Translation
To which fly together the winged bipeds such as the swan, the high flying eagle and strong birds, on whom the wind moving in the intermediate region raises dust shakes trees and the flame of fire moves backward and forward along with the movement of the wind.
Translation
On whom the winged bipeds, the swans, the eagles, and birds of various kinds fly together. On whom the Wind from heaven comes rushing, rousing the dust and uprooting trees. Fire kindles brighter by the blowing of air hither and thither.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५१−(याम्) पृथिवीम् (द्विपादः) पादद्वयोपेताः (पक्षिणः) (संपतन्ति) उड्डीयन्ते (हंसाः) पक्षिविशेषाः (सुपर्णाः) शोभनपतना गरुडादयः (शकुनाः) शक्तिमन्तो गृध्रचिल्लादयः (वयांसि) पक्षिणः (यस्याम्) (वातः) वायुः (मातरिश्वा) अ० ५।१०।८। अन्तरिक्षगामी (ईयते) गच्छति (रजांसि) अ० ४।१।४। उदकं रज उच्यते−निरु० ४।१९। उदकवतो मेघान् (कृण्वन्) कुर्वन्। रचयन् (च्यवयन्) सांहितिको दीर्घः। गमयन्। कम्पयन् (च) (वृक्षान्) (वातस्य) वायोः (प्रवाम्) वा गतौ−क्विप्। प्रकृष्टां गतिम्। प्रसृतिम्। (उपवाम्) समीपगतिम्। संकोचम् (अनु) अनुसृत्य (वाति) गच्छति (अर्चिः) प्रकाशः ॥
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