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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 46
    ऋषिः - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - षट्पदानुष्टुब्गर्भा पराशक्वरी सूक्तम् - भूमि सूक्त
    56

    यस्ते॑ स॒र्पो वृश्चि॑कस्तृ॒ष्टदं॑श्मा हेम॒न्तज॑ब्धो भृम॒लो गुहा॒ शये॑। क्रिमि॒र्जिन्व॑त्पृथिवि॒ यद्य॒देज॑ति प्रा॒वृषि॒ तन्नः॒ सर्प॒न्मोप॑ सृप॒द्यच्छि॒वं तेन॑ नो मृड ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । ते॒ । स॒र्प: । वृश्चि॑क: । तृ॒ष्टऽदं॑श्मा । हे॒म॒न्तऽज॑ब्ध: । भृ॒म॒ल: । गुहा॑ । शये॑ । क्रिमि॑: । जिन्व॑त् । पृ॒थि॒वि॒ । यत्ऽय॑त् । एज॑ति । प्रा॒वृषि॑ । तत् । न॒: । सर्प॑त् । मा । उप॑ । सृ॒प॒त् । यत् । शि॒वम् । तेन॑ । न॒: । मृ॒ड॒ ॥१.४६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्ते सर्पो वृश्चिकस्तृष्टदंश्मा हेमन्तजब्धो भृमलो गुहा शये। क्रिमिर्जिन्वत्पृथिवि यद्यदेजति प्रावृषि तन्नः सर्पन्मोप सृपद्यच्छिवं तेन नो मृड ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । ते । सर्प: । वृश्चिक: । तृष्टऽदंश्मा । हेमन्तऽजब्ध: । भृमल: । गुहा । शये । क्रिमि: । जिन्वत् । पृथिवि । यत्ऽयत् । एजति । प्रावृषि । तत् । न: । सर्पत् । मा । उप । सृपत् । यत् । शिवम् । तेन । न: । मृड ॥१.४६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 46
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राज्य की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो (तृष्टदंश्मा) डंक मारने से पियास उत्पन्न करनेवाला (सर्पः) साँप [वा] (वृश्चिकः) बिच्छू (हेमन्तजब्धः) ठण्ड से ठिठरा हुआ, (भृमलः) भ्रमल [घबड़ाता हुआ] (ते) तेरे (गुहा) गढ़े में (शये) सोता है। (क्रिमिः) [जो] कीड़ा और (यद्यत्) जो-जो (प्रावृषि) वर्षा ऋतु में (जिन्वत्) प्रसन्न होता हुआ (एजति) रेंगता है, (पृथिवि) हे पृथिवि ! (तत्) वह (सर्पत्) रेंगता हुआ [जन्तु] (नः) हम पर (मा उप सृपत्) आकर न रेंगे, (यत्) जो कुछ (शिवम्) मङ्गल है, (तेन) उस से (नः) हमें (मृड) सुखी कर ॥४६॥

    भावार्थ

    मनुष्य सदा सावधान रहें कि सब ऋतुओं में दुष्ट जीव-जन्तुओं से उन्हें क्लेश न होवे ॥४६॥

    टिप्पणी

    ४६−(यः) (ते) तव (सर्पः) भुजङ्गः (वृश्चिकः) अ० १०।४।९। कीटभेदः (तृष्टदंश्मा) दंश−मनिन्। यस्य दंशनेन तृषा भवति सः (हेमन्तजब्धः) जभ हिंसायाम्−क्त। हेमन्तेन हिंसितः (भृमलः) वृषादिभ्यश्चित्। उ० १।१०६। भ्रमु अनवस्थाने−कलप्रत्ययः संप्रसारणं च। अनवस्थितमनाः (गुहा) गर्ते (शये) तलोपः। शेते (क्रिमिः) क्षुद्रजन्तुः (जिन्वत्) तृप्यत् (पृथिवि) (यद्यत्) (एजति) चेष्टते (प्रावृषि) क्विब् वचिप्रच्छिश्रि०। उ० २।५७। प्र+वृषु सेचने−क्विप् दीर्घश्च। वर्षाकाले (तत्) सत्त्वम्। जन्तुः (नः) अस्मान् (सर्पत्) सर्पणं कुर्वत् (उप) समीपे (मा सृपत्) न सर्पतु (यत्) (शिवम्) मङ्गलम् (तेन) (नः) अस्मान् (मृड) सुखय ॥

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    विषय

    'सर्प-वृश्चिक' निराकरण

    पदार्थ

    १. है (पृथिवि) = भूमिमात: ! (यः ते) = जो तेरे (सर्पः) = सांप (वृश्चिक:) = बिच्छू (तृष्टदंश्मा) = तीखे काटनेवाले हैं, अथवा अपने दंशन से प्यास लगानेवाले हैं तथा (हेमन्तजब्ध:) = हेमन्त काल के शीत से पीड़ित (भूमल:) = भौर जाति के जीव (गुहाशये) = गुहाओं में शयन करते हैं अथवा (हेमन्तजब्धः) = हिम-विनाशक, अर्थात् ज्वर के उत्पादक (भृमल:) = घुमरी पैदा करनेवाले (कृमि गुहाशये) = बिलों में पड़े सोया करते हैं। २. हे पृथिवि ! ऐसे (यत् यत्) = जो भी क्(रिमिः) = कीट (प्रावृषि) = वर्षा ऋतु में (जिन्वत्) = प्राणित होते हुए (एजति) = गतिशील होते हैं, (तत्) = वह (सर्पन्) = गति करता हुआ (न: मा उपसुपत) = हमारे समीप न आये। हे पृथिवि ! (यत् शिवम्) = जो हमारे लिए कल्याणकारी हो (तेन न: मृड) = उससे हमें सुखी कर।

    भावार्थ

    निवास स्थानों में सर्प, वृश्चिक या अन्य कृमि-कीटों का भय न हो। लोग इनके भय से रहित हुए-हुए सुखपूर्वक जीवन बिता पाएँ।

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    भाषार्थ

    (तृष्टदंश्मा) जिस का काटना प्यास लगाता है, (हेमन्तजब्धः) अतिशीत से ठिठुरा हुआ (भृमलः) भरमाया हुआ (यः) जो (सर्पः, वृश्चिकः) सांप और विच्छु (ते गुहा) तेरी गुफा में (शये) शयन करता है। (पृथिवि) हे पृथिवी! (प्रावृषि) वर्षा के आरम्भ में (यत् यत्) जो जो (जिन्वत) प्रसन्न होता (क्रिमिः) कीडा (एजति) चलता-फिरता है, (तत्) वह (सर्पत्) सर्पण करता हुआ (नः उप) हमारे समीप (मा सृपत्) न सर्पण करे। हे पृथिवि! (यत्) जो (शिवम्) कल्याणकारी है (तेन) उस द्वारा (नः) हमें (मृड) सुखी कर।

    टिप्पणी

    [सांप बिच्छु आदि से अपने आप को सुरक्षित रखने का उपदेश दिया है। वर्षाकाल में सुरक्षा पर विशेष ध्यान देना चाहिये]।

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    विषय

    पृथिवी सूक्त।

    भावार्थ

    हे (पृथिवि) पृथिवि ! (यः) जो (ते) तेरा (वृश्चिकः) बिच्छू (सर्पः) सांप जाति के जीव (तृष्टदंश्मा) तीखे काटने वाले, और जो (हेमन्तजब्धः) हेमन्त काल के शीत से पीड़ित होकर (भृमलः) भौंरे जाति के जीव (गुहाशये) गुहा, भीतर छिपी खोहों में सोया करते हैं और (क्रिमिः) कृमि, कीड़े मकौड़े आदि (यत् यत्) जो जो भी (प्रावृषि) वर्षा काल में (जिन्वत्) पुनः वर्षा जल से तृप्त या प्राणित होकर (एजति) चलते हैं (तत् सर्पत्) वे सब रेंगते हुए (नः मा उपसृपत्) हम तक न रेंग यावें। (यत् शिवं) जो मङ्गल, सुखकारी पदार्थ हों (तेन) उससे (नः) हमें (मृड) सुखी कर।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘वृश्चकः’ (द्वि०) ‘हेमन्तलब्धो भ्रमलो कृमिलिशं पृथिव्यै प्रावृषि यदेजति’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (पृथिवीयः सर्पः-वृश्चिक:) हे पृथिवि ! जो सर्प, बिच्छू (तृपदंश्मा) "तृष्टं तृष्णा दंश्मनि दंशनसाधने यस्य स तृष्टदंश्मा" प्यास दाह लगती है जिसके दंशन में डसने पर वह गोधागोह (हेमन्तः-जग्धः) "हेमन्तः शीतं शैत्यं जब्धे जम्भने-चर्वणे यस्य स हेमन्तजव्धा गोधेर ः" हेमन्त अतिशीत जिसके द्वारा अधा-चर्बित करने पर वह हेमन्तजब्ध गोहेरा-सर्प गोह से उत्पन्न प्राणी (भ्रमल:) भिरड तैतय्या (ते गुहा शये) तेरे गुद्दा- गहरे स्थान में सोता है-रहता है (यत् क्रिमिः प्रावृषि जिन्वत्-एजति) जो कृमि क्षुद्र जन्तु वर्षा ऋतु में तृप्त प्राणित होने के हेतु शीघ्र गति करता हैं तृणजलायुका-तिन की जोक (तत्-नः-मा-उपसर्पम्) वह हमारे प्रति न सर्पे-आये (यत् शिवं तेन न:-मृडय) जो कल्याण कर हो उससे हमें सुखी कर ॥४६॥

    विशेष

    ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Song of Mother Earth

    Meaning

    Whether it is a snake or a scorpion whose bite causes excessive thirst, or an insect or germ which causes fever with shivering cold or delirium, all of which could be hidden and might come out, live and roam around in rains, may all these, O Mother Earth, never come close to me. Pray bless us with that which is good.

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    Translation

    What stinging harsh-biting serpent of thine lies in secret, winter-harmed, torpid; whatever worm O earth, becoming lively, stirs in the early rainy season let that, crawling, not crawl upon us; be thou gracious to us with that which is propitious.

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    Translation

    May that mother earth of ours in whose holes the snake, the scorpion, chilled with winter-cold and bewildered lies hidden, the worm and whatever in the rain pleased moves about, bless us with all that is good. May not these, creeping come near us.

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    Translation

    Thy snake, thy sharply stinging scorpion, lying concealed, bewildered, chilled with cold of winter; the worm, O Motherland, each thing that in the rains revives and stirs, creeping, forbear to creep on us! With all things gracious bless thou us.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४६−(यः) (ते) तव (सर्पः) भुजङ्गः (वृश्चिकः) अ० १०।४।९। कीटभेदः (तृष्टदंश्मा) दंश−मनिन्। यस्य दंशनेन तृषा भवति सः (हेमन्तजब्धः) जभ हिंसायाम्−क्त। हेमन्तेन हिंसितः (भृमलः) वृषादिभ्यश्चित्। उ० १।१०६। भ्रमु अनवस्थाने−कलप्रत्ययः संप्रसारणं च। अनवस्थितमनाः (गुहा) गर्ते (शये) तलोपः। शेते (क्रिमिः) क्षुद्रजन्तुः (जिन्वत्) तृप्यत् (पृथिवि) (यद्यत्) (एजति) चेष्टते (प्रावृषि) क्विब् वचिप्रच्छिश्रि०। उ० २।५७। प्र+वृषु सेचने−क्विप् दीर्घश्च। वर्षाकाले (तत्) सत्त्वम्। जन्तुः (नः) अस्मान् (सर्पत्) सर्पणं कुर्वत् (उप) समीपे (मा सृपत्) न सर्पतु (यत्) (शिवम्) मङ्गलम् (तेन) (नः) अस्मान् (मृड) सुखय ॥

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