अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 31
यास्ते॒ प्राचीः॑ प्र॒दिशो॒ या उदी॑ची॒र्यास्ते॑ भूमे अध॒राद्याश्च॑ प॒श्चात्। स्यो॒नास्ता मह्यं॒ चर॑ते भवन्तु॒ मा नि प॑प्तं॒ भुव॑ने शिश्रिया॒णः ॥
स्वर सहित पद पाठया: । ते॒ । प्राची॑: । प्र॒ऽदिश॑: । या: । उदी॑ची: । या: । ते॒ । भू॒मे॒ । अ॒ध॒रात् । या: । च॒ । प॒श्चात् । स्यो॒ना: । ता: । मह्य॑म् । चर॑ते । भ॒व॒न्तु॒ । मा । नि । प॒प्त॒म् । भुव॑ने । शि॒श्रि॒याण: ॥१.३१॥
स्वर रहित मन्त्र
यास्ते प्राचीः प्रदिशो या उदीचीर्यास्ते भूमे अधराद्याश्च पश्चात्। स्योनास्ता मह्यं चरते भवन्तु मा नि पप्तं भुवने शिश्रियाणः ॥
स्वर रहित पद पाठया: । ते । प्राची: । प्रऽदिश: । या: । उदीची: । या: । ते । भूमे । अधरात् । या: । च । पश्चात् । स्योना: । ता: । मह्यम् । चरते । भवन्तु । मा । नि । पप्तम् । भुवने । शिश्रियाण: ॥१.३१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राज्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(भूमे) हे भूमि ! (याः) जो (ते) तेरी (प्राचीः) सन्मुखवाली (प्रदिशः) बड़ी दिशाएँ, (याः) जो (उदीचीः) ऊपरवाली, (याः) जो (ते) तेरी (अधरात्) नीचे की ओर (च) और (याः) जो (पश्चात्) पीछे की ओर हैं। (ताः) वे सब (मह्यम् चरते) मुझ विचरते हुए के लिये (स्योनाः) सुख देनेवाली (भवन्तु) होवें, (भुवने) संसार में (शिश्रियाणः) ठहरा हुआ मैं (मा नि पप्तम्) न गिर जाऊँ ॥३१॥
भावार्थ
जो मनुष्य चलते-फिरते रहकर पुरुषार्थ करते रहते हैं, वे पृथिवी पर सब दिशाओं में सुख भोगते हैं ॥३१॥
टिप्पणी
३१−(याः) (ते) तव (प्राचीः) अ० ३।२६।१। प्राच्यः। स्वाभिमुखीभूताः (प्रदिशः) प्रकृष्टा दिशः (याः) (उदीचीः) अ० ३।२६।४। उदीच्यः। उपरिवर्तमाना दिशाः (याः) (ते) (भूमे) (अधरात्) अधस्तात् (याः) (च) (पश्चात्) (स्योनाः) सुखदाः (ताः) (मह्यम्) (चरते) विचरणशीलाय (भवन्तु) (मा नि पप्तम्) पत्लृ गतौ−लुङ्। अहं न निपतानि (भुवने) संसारे (शिश्रियाणः) अ० १।१२।२। श्रिञ्−कानच्। आश्रयं गृह्णानः ॥
विषय
पुरुषार्थ व अपतन
पदार्थ
१. हे (भूमे) = प्राणियों की निवास-स्थानभूत भूमे ! (या:) = जो (ते) = तेरे (प्राची: प्रदिश:) = पूर्व दिशा में होनेवाले प्रदेश हैं, (याः उदीची:) = जो प्रदेश उत्तर दिशा में हैं, (याः) = जो (ते) = तेरे प्रदेश (अधरात्) = दक्षिण दिशा में [नीचे] हैं, (च या:) = और जो (पश्चात्) = पश्चिम दिशा में हैं, (ता:) = वे सब प्रदेश (चरते मह्यम्) = चलते हुए-अम करते हुए मेरे लिए (स्योना: भवन्तु) = सुखद हो। २. (भुवने) = इस लोक में (शिश्रियाण:) = अपने कर्तव्य-कर्मों का खूब ही सेवन करता हुआ मैं (मा निपतम्) = पतन को न प्राप्त होऊँ।
भावार्थ
पुरुषार्थी के लिए सब भू-प्रदेश सुखद हैं। कर्तव्य-कर्मों का सेवन करता हुआ व्यक्ति कभी पतन को प्रास नहीं होता।
भाषार्थ
(याः) जो (ते) तेरी (प्राचीः प्रदिशः) पूर्व की फैली दिशाएं हैं, (याः उदीचीः) जो उत्तर की, (भूमे) हे पृथिवी ! (याः ते अधराद) जो तेरी दक्षिण की (च याः पश्चात्) और जो कि पश्चिम की फैली दिशाएं हैं, (ताः) वे सब (चरते मह्यम्) चलते फिरते मेरे लिये (स्योनाः भवन्तु) सुखकारी हों। (भुवने) उत्पन्न जगत् में (शिश्रियाणः) आश्रय पाया हुआ मैं (मा निपप्तम्) अधः पतित न होऊं।
टिप्पणी
[स्योनाः, स्योनं सुखनाम (निघं० ३।६)। या प्राचीः= प्राची आदि दिशाओं में बहुवचन है। प्रत्येक दिशा भिन्न-भिन्न प्रदेशों की अपेक्षा से नाना हो जाती हैं। मा नि पप्तम् = मन्त्र ३०में पवित्र कर्मों द्वारा पवित्र होने का वर्णन है, उसी की पुष्टि "मा निपप्तम्” द्वारा की है। अतः पादस्खलन द्वारा पतन का वर्णन मन्त्र में नहीं]।
विषय
पृथिवी सूक्त।
भावार्थ
हे (भूमे) पृथिवि ! (याः) जो तेरे (प्रदिशः) प्रदेश (प्राची:) प्राची, पूर्व दिशा में विद्यमान हैं (याः उदीचीः) जो प्रदेश उत्तर दिशा में, (याः ते अधरात्) जो प्रदेश तेरे नीचे हैं और (याः च पश्चात्) जो प्रदेश पीछे हैं (ताः) वे सब प्रदेश (चरते मह्यं) विचरण करनेहारे मुझे (स्योनाः भवन्तु) सुखकारी हों। मैं (भुवने) इस लोक में (शिश्रियाणः) समस्त पदार्थों का सेवन करता हुआ भी (मा निपप्तम्) कभी नीचे न गिरूं।
टिप्पणी
‘यश्च भूभ्यधराग् यश्च पश्चा’, '’शिवास्ता’ इति मै० सं०। (द्वि०) ‘भौभेऽघ’ (च०) ‘शुश्रियाणे’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(भूमे ते याः प्राची:-या:-उदीची प्रदिशः) हे भूमि ! जो तेरी पूर्व जो उत्तर सीमाएं हैं (ते याः-अधरात्-याः-चपश्चात) तेरी जो नीचे की स्थलियाँ जो पश्चिम सीमाएं हैं (ताः-मह्यं चरते त्योनाः-भवन्तु ) वे मुझ-विचरण करते हुए के लिए सुखकारी होवें (भुवने शिश्रियमाण:-मा नि-पप्तम्) तेरा अत्यन्त आश्रय लेता हुआ जीवनसंसार में न गिरू ॥३१॥
विशेष
ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Mother Earth
Meaning
May your regions in front or at the back, up or down, O Mother Earth, all directions and sub-directions, where I live and move, be good and auspicious to me. As long as I live with your support in the world, let me never stumble and never fall down.
Translation
What forward directions are thine, what upward, what are thine, O earth, down ward, and what behind, let those be pleasant to me going about; let me not fall down supported on creation (Bhuvana).
Translation
May the eastern and the northern regions of the mother earth, those lying southward and those westward be propitious unto me who am living and moving in her. As long as I tread upon her ground or surface may I not stumble.
Translation
O Motherland! be thine eastern and thy northern regions, those lying southward and those lying eastward, propitious unto me in all my movements. Living in my country may I never suffer moral degradation
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३१−(याः) (ते) तव (प्राचीः) अ० ३।२६।१। प्राच्यः। स्वाभिमुखीभूताः (प्रदिशः) प्रकृष्टा दिशः (याः) (उदीचीः) अ० ३।२६।४। उदीच्यः। उपरिवर्तमाना दिशाः (याः) (ते) (भूमे) (अधरात्) अधस्तात् (याः) (च) (पश्चात्) (स्योनाः) सुखदाः (ताः) (मह्यम्) (चरते) विचरणशीलाय (भवन्तु) (मा नि पप्तम्) पत्लृ गतौ−लुङ्। अहं न निपतानि (भुवने) संसारे (शिश्रियाणः) अ० १।१२।२। श्रिञ्−कानच्। आश्रयं गृह्णानः ॥
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