अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 8
ऋषिः - अथर्वा
देवता - भूमिः
छन्दः - त्रयवसाना षट्पदा विराडष्टिः
सूक्तम् - भूमि सूक्त
151
यार्ण॒वेऽधि॑ सलि॒लमग्र॒ आसी॒द्यां मा॒याभि॑र॒न्वच॑रन्मनी॒षिणः॑। यस्या॒ हृद॑यं पर॒मे व्योमन्त्स॒त्येनावृ॑तम॒मृतं॑ पृथि॒व्याः। सा नो॒ भूमि॒स्त्विषिं॒ बलं॑ रा॒ष्ट्रे द॑धातूत्त॒मे ॥
स्वर सहित पद पाठया । अ॒र्ण॒वे । अधि॑ । स॒लि॒लम् । अग्ने॑ । आसी॑त् । याम् । मा॒याभि॑: । अ॒नु॒ऽअच॑रन् । म॒नी॒षिण॑: । यस्या॑: । हृद॑यम् । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् । स॒त्येन॑ । आऽवृ॑तम् । अ॒मृत॑म् । पृ॒थि॒व्या: । सा । न॒: । भूमि॑: । त्विषि॑म् । बल॑म् । रा॒ष्ट्रे । द॒धा॒तु॒ । उ॒त्ऽत॒मे ॥१.८॥
स्वर रहित मन्त्र
यार्णवेऽधि सलिलमग्र आसीद्यां मायाभिरन्वचरन्मनीषिणः। यस्या हृदयं परमे व्योमन्त्सत्येनावृतममृतं पृथिव्याः। सा नो भूमिस्त्विषिं बलं राष्ट्रे दधातूत्तमे ॥
स्वर रहित पद पाठया । अर्णवे । अधि । सलिलम् । अग्ने । आसीत् । याम् । मायाभि: । अनुऽअचरन् । मनीषिण: । यस्या: । हृदयम् । परमे । विऽओमन् । सत्येन । आऽवृतम् । अमृतम् । पृथिव्या: । सा । न: । भूमि: । त्विषिम् । बलम् । राष्ट्रे । दधातु । उत्ऽतमे ॥१.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राज्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(या) जो [भूमि] (अर्णवे अधि) जल से भरे समुद्र के ऊपर (सलिलम्) जल [भाप] (अग्रे) पहिले (आसीत्) थी, (मनीषिणः) मननशील लोग (मायाभिः) अपनी बुद्धियों से (यान् अन्वचरन्) जिस [भूमि] के पीछे-पीछे चले हैं [सेवा करते रहे हैं]। (यस्याः पृथिव्याः) जिस पृथिवी का (हृदयम्) हृदय [भीतरी बल] (परमे) बहुत बड़े (व्योमन्) विविध रक्षक [आकाश] में (सत्येन) सत्य [अविनाशी परमात्मा] से (आवृतम्) ढका हुआ (अमृतम्) बिना मरा [सदा उपजाऊ] है। (सा भूमिः) वह भूमि (नः) हम को (त्विषिम्) तेज और (बलम्) बल वा सेना (उत्तमे) सब से श्रेष्ठ (राष्ट्रे) राज्य के बीच (दधातु) दान करे ॥८॥
भावार्थ
सृष्टि के आदि में जल के मध्य यह पृथिवी बुदबुदे के समान थी, वह आकाश में ईश्वरनियम से दृढ़ होकर अनेक रत्नों की खानि है। पहिले विचारवानों के समान सब मनुष्य पराक्रम से पृथिवी की सेवा करके बड़े राज्य के भीतर तेजस्वी और बली होकर बढ़ती करें ॥८॥
टिप्पणी
८−(या) भूमिः (अर्णवे) जलवति समुद्रे (अधि) ऊपरि (सलिलम्) उदकम्−निघ० १।१२। वाष्परूपम् (अग्रे) सृष्ट्यादौ (आसीत्) (मायाभिः) प्रज्ञाभिः−निघ० ३।९। (अन्वचरन्) अन्वगच्छन्। सेवितवन्तः (मनीषिणः) मेधाविनः−निघ० ३।१५। (यस्याः) (हृदयम्) अन्तर्बलम् (परमे) महति (व्योमन्) अ० ९।१०।१८। विविधं रक्षके। आकाशे (सत्येन) अविनाशिना परमात्मना (आवृतम्) आच्छादितम् (अमृतम्) मरणरहितम्। उत्पादनसमर्थम् (पृथिव्याः) (सा) (नः) अस्मभ्यम् (भूमिः) (त्विषिम्) तेजः (बलम्) सामर्थ्यम् (राष्ट्रे) राज्ये (दधातु) ददातु (उत्तमे) सर्वोत्कृष्टे ॥
विषय
'सत्येनावृतम् अमृतम्' हृदयम्
पदार्थ
१. (या) = जो (अग्रे) = पहले (अर्णवे अधि) = महान् समुद्र में (सलिलम् आसीत्) = जलरूप ही थी, अर्थात् जल में ही लीन हुई-हुई थी [अद्भ्यः पृथिवी] जलों से ही तो इसकी उत्पत्ति होती है, (याम्) = जिस पृथिवी को (मनीषिणः) = ज्ञानी लोग (मायाभिः) = प्रज्ञानों के साथ (अनु अचरन्) = अनुकूलता से सेवित करते हैं। (सा भूमिः) = वह भूमि (न:) = हमारे लिए (उत्तमे राष्ट्रे) = [मनीषियों से सेवित] उत्तम राष्ट्र में (त्विषि बलं दधतु) ृ ज्ञानदीसि व बल को धारण करे। २. वह पृथिवी हमारे लिए 'विधि और बल' को धारण करे, (यस्याः पृथिव्या:) = जिस पृथिवी का-पृथिवी पर विचरण करनेवाले मनीषियों का-(हृदयम्) = हृदय (परमे व्योमन्) = परम व्योम, अर्थात् प्रभु में है [ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्] और अतएव (सत्येन आवृतम्) = सत्य से आवृत है-प्रभुस्मरण से हृदय में असत्य के प्रवेश का सम्भव नहीं रहता, अतएव (अमृतम्) = अमृत है-विषय-वासनाओं के पीछे मरनेवाला नहीं है।
भावार्थ
यह पृथिवी पहले जलरूप थी। इस पृथिवी पर मनीषी लोग ज्ञानपूर्वक विचरण करते हैं। पृथिवी पर विचरनेवाले इन मनीषियों का हृदय प्रभु में स्थित होता है-सत्य से आवृत होता है और विषय-वासनाओं के पीछे मरनेवाला नहीं होता।
भाषार्थ
(या) जो पृथिवी (अग्रे) पुराकाल में, (अर्णवेऽधि) जलवत् द्रवीभूत जगदावस्था में (सलिलम्) जलवत् द्रवीभूत अवस्था में (आसीत्) थी, (याम्) जिस पृथिवी में (मनीषिणः) मननशील मनुष्य (मायाभिः) निज प्रज्ञाओं के अनुसार (अनु अचरन्) निरन्तर विचरते रहे, (यस्याः पृथिव्याः) जिस पृथिवी [के प्रजाजनों] का (हृदयम्) एकीभूत हृदय, (परमे व्योमन्) परमरक्षक तथा आकाशवत् व्यापक परमेश्वर में (आसीत्) था, तथा (अमृतम्) वह अमृत हृदय (सत्येन आवृतम्) सच्चाई से घिरा हुआ था, (सा भूमिः) वह उपजाऊ पृथिवी (नः) हमारे (उत्तमे राष्ट्र) उत्तम राष्ट्र में (त्विषिम्, बलम्) तेज और बल (दधातु) स्थापित करे।
टिप्पणी
[अर्णवे, सलिलम् = तैत्तिरीयोपनिषद् ब्रह्मानन्द वल्ली के अनुसार सृष्ट्युत्पतिक्रम है "आत्मा से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से आपः, आपः से पृथिवी", यथा "तस्माद्वा एतमादात्मन आकाशः सम्भूतः, आकाशाद्वायुः, वायोरग्निः, अग्नेरापः, अदभ्यः पृथिवी"। "तस्माद् वै एतस्मात् आत्मनः" द्वारा "उस" अर्थात् दूरस्थ, तथा "इस" अर्थात् समीपस्थ आत्मा से,— इस द्वारा परमेश्वर की सर्वव्यापकता सूचित की है। यजुर्वेद में भी कहा है कि "तद् दूरे तद्वन्तिके" (४०।५)] इस सृष्टि क्रमानुसार जगत् की "आपः" अवस्था को "अग्नेरापः" द्वारा दर्शाया है। मन्त्र में इस अवस्था को "अर्णवे" पद द्वारा दर्शाया है। इस अवस्था में पृथिवी भी "सलिल" रूप थी, "आपः" रूप थी। अर्णव में सलिल रूप थी। कालान्तर में सलिल रूपा पृथिवी दृढ़ावस्था में आई। "येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढ़ा" (यजु० ३२।६) अथर्व० १२। १।६० में भी पृथिवी का जल में प्रवेश "अर्णवे रजसि" द्वारा दर्शाया है। मायाभिः; माया प्रज्ञानाम् (निघं० ३।९)। यह अद्वैतवादियों की माया नहीं, न ही प्रकृतिरूपा। हृदयम् = पृथिवी जड़ है चेतन नहीं। जड़ में हृदय नहीं होता। यह हृदय, पृथिवी से उत्पन्न मनुष्य जाति का हृदय है। जब पृथिवी निवासी मनुष्य जाति के हृदय, विचारों और भावनाओं की दृष्टि से एकरूप हो जांय, परस्पर समन्वय और सामञ्जस्य में हो जांय, तो इस एकीभूत हृदय को मन्त्र में हृदयम् कहा हैं। यथा “सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः। अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या।। (अथर्व० ३।३०।५) में "सहृदयम्" द्वारा "एकीभूत हृदय" को सूचित किया है। तथा हृदय परस्पर एकीभूत किस प्रकार होने चाहिये इस के लिये कहा है कि "समञ्जन्तु विश्वेदेवाः समापो हृदयानि नौ" (ऋ० १०।८५।४७), अर्थात् हृदय इस प्रकार एकीभूत होने चाहिये जैसे कि भिन्न-भिन्न जल परस्पर मिल कर एकीभूत हो जाते हैं। इस एकीभाव को "सामञ्जस्य" कहा है। परमे व्योमन् = "ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् (ऋ० १।१६४।३९) में "परमे व्योमन्” का अर्थ है "सर्वोत्कृष्ट व्यापक परमेश्वर" मनुष्य जाति का एकीभूत हृदय परमेश्वर के प्रति लगा हुआ होना चाहिये, सांसारिक भोगों में नहीं, और "सत्येनावृतम्" सच्चाई से घिरा होना चाहिये। ऐसा एकीभूत हृदय अमृत होता है, मरा हुआ सा नहीं होता, सदा उन्नतिशील, प्रसन्न, तथा नई-नई उमङ्गों वाला होता है। ऐसी मनुष्यजाति का राष्ट्र उत्तम-राष्ट्र होता है। भूमिः, राष्ट्रे= मन्त्र में कहा है कि "भूमि हमारे उत्तम राष्ट्र में विधि और बल प्रदान करे"। इस से प्रतीत होता है कि "सार्वभौमशासन" और "राष्ट्रशासन" पृथक्-पृथक् सत्ताएं रखते हैं, परन्तु हैं परस्पर समन्वित रूप में। राष्ट्रशासन अङ्गरूप है सार्वभौमशासन का, और सार्वभौम शासन "अङ्गी" रूप है। इस प्रकार वैदिकशासन पद्धति के अनुसार, समग्र पृथिवी में, अङ्गाङ्गिभाव से शासन व्यवस्था के होने पर पारस्परिक संघर्ष, तथा युद्ध समाप्त हो सकते हैं]।
विषय
पृथिवी सूक्त।
भावार्थ
(या) जो पृथिवी (अग्रे) सृष्टि की उत्पत्ति के पूर्व (अर्णवे अधि) महान् समुद्र के भीतर (सलिलम् आसीत्) सलिल-जल ही जलस्वरूप थी और (याम्) जिसको (मनीषिणः) बुद्धिमान्, मननशील पुरुष (मायाभिः) अपनी नाना बुद्धियों से (अनु अचरन्) भोग रहे हैं। (यस्याः) जिसका (पृथिव्याः) पृथिवी का (हृदयम्) हृदय, परम गतिकारक प्रेरक बल (अमृतम्) अमृतस्वरूप, सदा अमर सूर्य (परमे व्योमन्) परम आकाश में (सत्येन) सत्य, बल रूप तेज से (आवृतम्) ढका है। (सा भूमिः) वह भूमि (नः उत्तमे राष्ट्रे) हमारे उत्तम राष्ट्र में (त्विषि) तेज और (बलम्) बल (दधातु) धारण करावे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(या अग्रे वे अधि सलिलम् आसीत्) जो पृथिवी प्रारंभकाल में जल वाले समुद्र में जलरूप थी- ठोस पिण्ड न थी (यां मनीषिणः-मायाभिः-अन्वचरन्) जिसको मनीषी-मननशील ऋषि प्रज्ञाओं सूक्ष्म बुद्धियों के द्वारा अनुगत करते हैंअनुसन्धान द्वारा जानते हैं "माया प्रज्ञा नाम" (निघं० ३।६) (यस्याः पृथिव्याः-अमृतं हृदयं परमे व्योमन्-सत्येन-आवृतम्) जिस पृथिवी का अमृत-अस्थूल सूक्ष्म स्वरूप परम व्योम-लोकों के महान् खगोल-आकाश मण्डल में सत्यस्वरूप परमात्मा द्वारा ढका हुआ था "सत्यं ब्रह्म" (श० १४।८।५।१) (सा भूमिः-त्विषि बलम्-उत्तमे राष्ट्रे दधातु) वह भूमि राष्ट्र के निमित्त दीप्ति और बल को धारण करे ॥८॥
विशेष
ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Mother Earth
Meaning
That earth which in the beginning of creation nestled in the liquid mutation of Prakrti in the vast spatial ocean of particles (Rgveda 10, 190, 1), over which wise sages roamed around free with their wondrous vision and supernal creations, whose heart core wrapped in truth abides in the supreme light of Divinity, that mother earth may, we pray, establish light and splendour, and strength and power in our social order, the noblest of its kind in the universe.
Translation
She who in the beginning was sea (salila) upon the ocean; whom the skilful moved after with their devices; the earth whose immortal heart covered with truth is in highest firmament -- let that earth assign to us brilliancy, strength, in highest royalty.
Translation
May that mother earth, which, before the creation restain the form of vapor in the ocean of atmosphere, whom, in past, the thoughtful serve with their best abilities, whose immortal heart is established in the most supernal God and is enveloped in truth (or whose indestructible essence before the creation covered with the premordial matter exists in the paramount God) make us an excellent nattion endowed with the light of wisdom and supremacy.
Translation
She who at first was water in the ocean, upon whom the learned labour hard with their wondrous intellectual powers. Whose motive force, the everlasting sun is in the highest heaven, compassed about with lustre. May she, this motherland, bestow upon us lustre, and grant us power in loftiest kingdom
Footnote
At first: In the beginning of the creation. In the beginning waters alone formed the universe (Shatpathbrahman,XIV 6.8.1), and the earth was without form.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
८−(या) भूमिः (अर्णवे) जलवति समुद्रे (अधि) ऊपरि (सलिलम्) उदकम्−निघ० १।१२। वाष्परूपम् (अग्रे) सृष्ट्यादौ (आसीत्) (मायाभिः) प्रज्ञाभिः−निघ० ३।९। (अन्वचरन्) अन्वगच्छन्। सेवितवन्तः (मनीषिणः) मेधाविनः−निघ० ३।१५। (यस्याः) (हृदयम्) अन्तर्बलम् (परमे) महति (व्योमन्) अ० ९।१०।१८। विविधं रक्षके। आकाशे (सत्येन) अविनाशिना परमात्मना (आवृतम्) आच्छादितम् (अमृतम्) मरणरहितम्। उत्पादनसमर्थम् (पृथिव्याः) (सा) (नः) अस्मभ्यम् (भूमिः) (त्विषिम्) तेजः (बलम्) सामर्थ्यम् (राष्ट्रे) राज्ये (दधातु) ददातु (उत्तमे) सर्वोत्कृष्टे ॥
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