Loading...
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 35
    ऋषिः - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - भूमि सूक्त
    200

    यत्ते॑ भूमे वि॒खना॑मि क्षि॒प्रं तदपि॑ रोहतु। मा ते॒ मर्म॑ विमृग्वरि॒ मा ते॒ हृद॑यमर्पिपम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । ते॒ । भू॒मे॒ । वि॒ऽखना॑मि । क्षि॒प्रम् । तत् । अपि॑ । रो॒ह॒तु॒ । मा । ते॒ । मर्म॑ । वि॒ऽमृ॒ग्व॒रि॒ । मा । ते॒ । हृद॑यम् । अ॒र्पि॒प॒म् ॥१.३५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्ते भूमे विखनामि क्षिप्रं तदपि रोहतु। मा ते मर्म विमृग्वरि मा ते हृदयमर्पिपम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । ते । भूमे । विऽखनामि । क्षिप्रम् । तत् । अपि । रोहतु । मा । ते । मर्म । विऽमृग्वरि । मा । ते । हृदयम् । अर्पिपम् ॥१.३५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 35
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राज्य की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (भूमे) हे भूमि ! (यत्) जो कुछ (ते) तेरा (विखनामि) मैं खोद डालूँ, (तत्) वह (क्षिप्रम् अपि) शीघ्र ही (रोहतु) उगे। (विमृग्वरि) हे खोजने योग्य ! (मा) न तो (ते) तेरे (मर्म) मर्म स्थल को और (मा)(ते) तेरे (हृदयम्) हृदय को (अर्पिपम्) मैं हानि करूँ ॥३५॥

    भावार्थ

    भूतलविद्या और भूगर्भविद्या में चतुर लोग भूमि को उचित रीति से खोदकर और हल से जोतकर रत्न और अन्न आदि पदार्थ प्राप्त करें ॥३५॥

    टिप्पणी

    ३५−(यत्) यत् किञ्चित् (ते) तव (भूमे) (विखनामि) विदारयामि (क्षिप्रम्) शीघ्रम् (तत्) (अपि) एव (रोहतु) उत्पद्यताम् (मा) निषेधे (ते) तव (मर्म) सन्धिस्थानम् (विमृग्वरि) म० २९। हे अन्वेषणीये (ते) (हृदयम्) (मा) (अर्पिपम्) ऋ गतौ हिंसायां च−णिचि पुकि लुङि रूपम्। न हिनसानि ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पृथिवी के 'मर्म व हृदय' का अपीड़न

    पदार्थ

    १. हे (भूमे) = सब वनस्पतियों को जन्म देनेवाली पृथिवि! (यत् ते विखनामि) = जब मैं तेरा हल द्वारा अवदारण करके कुछ बोता हूँ, (तत्) = तब वह (क्षिप्रं अपिरोहतु) = शीघ्र प्रादुर्भूत हो अंकुरित होकर भूमि से ऊपर प्रकट हो। भूमि खुब उपजाऊ हो। २. हे (विमृग्वरि) = विशेषरूप से शुद्ध करनेवाली पृथिवि ! मैं (ते) = तेरे मर्म मर्मस्थानों को (मा अर्पिपम्) = पीड़ित न करे [रिफ to injure], (वि ते हृदयम्) = तेरे हदय को (मा) = विनष्ट न करूं। पृथिवी के ओषधि-पोषक अंश ही उसके 'मर्म' हैं और इसके रसप्रद अंश ही इसका हृदय है। इन्हें कभी नष्ट नहीं करना चाहिए, अन्यथा भूमि अनुपजाऊ व बंजर हो जाएगी।

    भावार्थ

    हम पृथिवी के मर्मों व हदय को पीड़ित न करते हुए ही इसपर हल चलाएँ तभी इसमें बोये गये बीज सम्यक् अंकुरित होंगे।

    सूचना

    भूमि पर हल चलाते समय खूब गहरा खोदना और एक बार ही अधिक फ़सल प्राप्त करने की कामना करना उचित नहीं। इससे भूमि शीघ्र बंजर हो जाती है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (भूमे) हे भूमि ! (ते) तेरा (यत्) जो भाग [हल द्वारा] (विखनामि) खोदता हूं (तदपि) वह भाग भी (क्षिप्रम्) शीघ्र (रोहतु) पुनः प्ररोहणयोग्य हो जाय। (विमृग्वरि) हे विमृग्वरी (मन्त्र २९) भूमि ! (ते) तेरे (मर्म) मर्म को (मा)(अर्पिपम्) मैं हानि पहुंचाऊँ, (ते) तेरे (हृदयम्) हृदय को (मा) न हानि पहुंचाऊँ।

    टिप्पणी

    [हल चला कर बीज बोया जाता है। बीज भूमि के उत्पादक तत्वों की सहायता से अङ्कुरित होता तथा कालान्तर में फल प्राप्ति होती है। इस प्रकार भूमि के उत्पादक तत्त्व क्षीण होते रहते हैं। वायु के द्वारा तथा उचित खाद के द्वारा उस क्षति की पूर्ति करते रहना चाहिये। यह उत्पादकतत्त्व भूमि का मर्म है, इस की हानि न होनी चाहिये। जलस्रोत पृथिवी का हृदयरूप है। जैसे कि हृदय द्वारा शरीर रक्त से सींचा जाता है, वैसे जल स्रोत द्वारा भूमि सींची जाती है। खाद और जलस्रोत भूमि के मर्म और हृदयरूप है]।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पृथिवी सूक्त।

    भावार्थ

    हे (भूमे) समस्त पदार्थों की उत्पत्ति स्थान रूप भूमे ! (ते) तुझ से जो ओषधि आदि पदार्थ मैं (विखनामि) नाना प्रकार से खोद लूं (तत् अपि) वह भी (क्षिप्रम्) शीघ्र ही (रोहतु) पुनः उग आवे। हे (विमृग्वरि) विशेष रूप से शुद्ध पवित्र करनेहारी ! मैं (ते) तेरे (मर्म) मर्म स्थानों को और (हृदयम्) हृदय को (मा अर्पिपम्) कभी पीड़ित और विनाश न करूं। ओषधि आदि खोदते समय सदा ध्यान रखे कि पृथ्वी के मर्म अर्थात् जिनमें पृथ्वी के ओषधि पोषक अंश हों और हृदय जिनमें उनके रसमद अंश हो उनको नष्ट न करे। नहीं तो भूमि अनुपजाऊ और बंजर हो जाती है।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘भौमे’ (द्वि०) ‘औषं तदपि’ (च०) ‘हृदयमर्पितम्’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मन्त्रार्थ

    (यत्-भूमे ते विखनामि) हे भूमि ! जो मैं तेरा कोई भाग खोदू (तत्-अपि क्षिप्रं रोहतु) वह भी शीघ्र पूरा हो जावेहो जाता है (विमृग्वरि ते मर्म) हे विशेष खोजने योग्य तेरे मर्म को (ते हृदयं मा अर्पिपम्) तेरे हृदय को भी नह हिंसित करू- नष्ट न करू ॥३५॥

    विशेष

    ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Song of Mother Earth

    Meaning

    O Mother Earth, when I dig and till the soil to sow the seed, let the seed grow soon and the ground fill up. O gracious, purifying and regenerative Mother, never would I hurt your vitality and fertility, never will I rip up your heart.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    What of thee, O earth, I dig out, let that quickly grow over; let me not hit thy vitals nor thy heart, O cleansing one.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    May the mother earth soon fill up whatever I dig out of her. Of her who is fit to be sought after, may I not damage those parts which are vital to vegetation, or the interior regions where she stores rare and precious things.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Let what I dig from thee, O Earth! rapidly spring and grow again. O Purifier! let me not pierce through thy vitals or thy heart.

    Footnote

    At the time of digging a plant or herb, one should be cautious not to injure the portion of the earth which possesses the juice and strength to help the growth of the plant.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३५−(यत्) यत् किञ्चित् (ते) तव (भूमे) (विखनामि) विदारयामि (क्षिप्रम्) शीघ्रम् (तत्) (अपि) एव (रोहतु) उत्पद्यताम् (मा) निषेधे (ते) तव (मर्म) सन्धिस्थानम् (विमृग्वरि) म० २९। हे अन्वेषणीये (ते) (हृदयम्) (मा) (अर्पिपम्) ऋ गतौ हिंसायां च−णिचि पुकि लुङि रूपम्। न हिनसानि ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top