अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 55
अ॒दो यद्दे॑वि॒ प्रथ॑माना पु॒रस्ता॑द्दे॒वैरु॒क्ता व्यस॑र्पो महि॒त्वम्। आ त्वा॑ सुभू॒तम॑विशत्त॒दानी॒मक॑ल्पयथाः प्र॒दिश॒श्चत॑स्रः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒द: । यत् । दे॒वि॒ । प्रथ॑माना । पु॒रस्ता॑त् । दे॒वै: । उ॒क्ता । वि॒ऽअस॑र्प: । म॒हि॒ऽत्वम् । आ । त्वा॒ । सु॒ऽभू॒तम् । अ॒वि॒श॒त् । त॒दानी॑म् । अक॑ल्पयथा: । प्र॒ऽदिश॑: । चत॑स्र: ॥१.५५॥
स्वर रहित मन्त्र
अदो यद्देवि प्रथमाना पुरस्ताद्देवैरुक्ता व्यसर्पो महित्वम्। आ त्वा सुभूतमविशत्तदानीमकल्पयथाः प्रदिशश्चतस्रः ॥
स्वर रहित पद पाठअद: । यत् । देवि । प्रथमाना । पुरस्तात् । देवै: । उक्ता । विऽअसर्प: । महिऽत्वम् । आ । त्वा । सुऽभूतम् । अविशत् । तदानीम् । अकल्पयथा: । प्रऽदिश: । चतस्र: ॥१.५५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राज्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(देवि) हे देवी ! [उत्तम गुणवाली पृथिवी] (यत्) जब (पुरस्तात्) आगे को (प्रथमाना) फैलती हुई और (देवैः) व्यवहारकुशलों करके (उक्ता) कही गयी तूने (अदः) उस (महित्वम्) महिमा को (व्यसर्पः) फैलाया। (तदानीम्) तब (सुभूतम्) सुभूति [सुन्दर ऐश्वर्य] ने (त्वा) तुझ में (आ सब ओर से (अविशत्) प्रवेश किया, और (चतस्रः) चारों (प्रदिशः) बड़ी दिशाओं को (अकल्पयथाः) तूने समर्थ बनाया ॥५५॥
भावार्थ
जब मनुष्य पृथिवी की विस्तृत महिमा को खोजते हुए आगे बढ़ते हैं, वे ऐश्वर्यवान् होकर सब दिशाओं से समर्थ होते हैं ॥५५॥
टिप्पणी
५५−(अदः) तत् (यत्) यदा (देवि) हे दिव्यगुणवति (प्रथमाना) विस्तीर्यमाणा (पुरस्तात्) अग्रे वर्तमाना सती (देवैः) व्यवहारकुशलैः (उक्ता) कथिता (व्यसर्पः) त्वं विस्तारितवती (महित्वम्) महिमानम् (आ) समन्तात् (त्वा) पृथिवीम् (सुभूतम्) सुभूतिम्। महैश्वर्यम् (अविशत्) प्रविष्टम् (तदानीम्) (अकल्पयथाः) त्वं समर्थाः कृतवती (प्रदिशः) प्रकृष्टा दिशाः (चतस्रः) ॥
विषय
सु-भूतम्
पदार्थ
१.हे (देवि) = हमारे सब व्यवहारों को सिद्ध करनेवाली भूमिमात: ! (यत्) = जब तूने (पुरस्तात्) = प्रारम्भ में (अदः महित्वम्) = उस महत्त्व को-विशालता को (व्यसर्प:) = [सूप गतौ] प्राप्त किया, तो (देवैः) = विद्वानों से ('प्रथमाना' उक्ता) = विस्तार को प्राप्त होती हुई 'पृथिवी' इस रूप में कही गई। २. (तदानीम्) = उस समय (त्वा) = तुझमें (सुभूतम्) = उत्तम ऐश्वर्य-उत्तम स्थिति [Well-being, Welfare] (आ आविशत्) = समन्तात् प्रविष्ट हुई। तूने (चतस्त्रः प्रदिश:) = चारों दिशाओं में स्थित प्राणियों को (अकल्पयथा:) = शक्तिशाली बनाया [क्लपू सामर्थ्य]।
भावार्थ
विस्तृत महत्त्ववाली होने के कारण ही यह पृथिवी 'पृथिवी' है। इसमें चारों ओर उत्तम ऐश्वर्य की स्थिति है। यह चतुर्दिगवस्थित प्राणियों को शक्तिशाली बनाती है।
भाषार्थ
(देवि) [दिव्यगुणियों के निवास द्वारा] दिव्यगुणवती हे पृथिवी! (अदः) उस (पुरस्तात्) पुराकाल में (यद्) जो (प्रथमाना) कीर्ति द्वारा विस्तार को प्राप्त हुई तू - (देवैः) दिव्यगुणों वाले व्यवहार कुशल व्यापारियों द्वारा (उक्ता) निर्दिष्टमार्गा हुई,- (महित्वम्) महिमा की ओर (व्यसर्पः) विशेषतया सरकी है- (तदानीम्) तब (त्वा) तुझ में (सुभूतम्) उत्तम ऐश्वर्य ने (आ अविशत्) आ कर प्रवेश किया, और (चतस्रः दिशः) चारों दिशाओं [के निवासियों] को (अकल्पयथाः) तू ने सामर्थ्ययुक्त किया।
टिप्पणी
[अकल्पयथाः = कृपू सामर्थ्ये ! पुरस्तात् = formerly preveously (आप्टे)। अदः पुरस्तात्= उस पुराकाल में। यह किसी अनित्य ऐतिहासिक काल की घटना की ओर निर्देश नहीं, अपितु नित्य सिद्धान्त सम्बन्धी वर्णन है कि पूर्वकाल के कल्प-कल्पान्तरों में भी जब भी पृथिवी पर दिव्यगुणी व्यवहार कुशल, निःस्वार्थी और परोपकारियों द्वारा निर्दिष्ट मार्ग से व्यापार होता रहा है, तब पृथिवी ऐश्वर्य वाली होती रही है, और इस ऐश्वर्य के समुचित संविभाग द्वारा पृथिवी के समग्र प्रजाजन समृद्धिशाली बन कर सामर्थ्य सम्पन्न होते रहे हैं। मन्त्र ६० में भी इसी प्रकार की भावना का निर्देश हुआ है। कल्प-कल्पान्तरों में एक सदृश या समान घटनाएं होती रहती हैं, इस में प्रमाण है "सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथा पूर्वमकल्पयत्। दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः" (ऋ० १०।१९०।३)। इस मन्त्र में "यथापूर्वम्" पद विशेष महत्व का है]।
विषय
पृथिवी सूक्त।
भावार्थ
हे (देवि) देवि ! पृथिवि ! (यत्) जब तूने (अदः) यह इस प्रकार का अवर्णनीय (महित्वम्) अपना विशाल स्वरूप (वि असर्पः) विविध प्रकार से विस्तृत किया तब (पुरस्तात्) सबसे पूर्व (देवैः) देव, विद्वान् लोगों ने तुझको (प्रथमाना) फैलती हुई, विस्तृत पृथिवी (उक्ता) कहा। (त्वा) तुझमें (सुभूतम्) उत्तम उत्तम उत्पन्न होने हारे उत्तम पदार्थ (आ अविशत्) सब ओर से प्रविष्ट हैं, (तदानीम्) उसी समय तू (चतस्त्रः प्रदिशः) चारों महा-दिशाओं में वर्त्तमान प्रदेशों को भी (अकल्पयथाः) सुन्दर सुन्दर रूप में रचती है।
टिप्पणी
(प्र०) ‘यददो’ (द्वि०) ‘दिवैः सृष्टा’, ‘महित्वा’ (तृ०) ‘आ वाम भूतं वि’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(देवि यत्-अदः-महित्वं व्यसर्पः) हे पृथिवी देवी! 'यत्यदा' जब तूने उस अपने महत्त्व-महान् स्वरूप को विशेष रूप से सर्पित-प्रथित किया-फैलाया तो (देवैः पुरस्तात् प्रथमानाउक्ता) देवो-ऋषियों द्वारा पूर्व ही तू प्रथमाना-पृथिवी कही गई (त्वा सुभूतम्-आविशत्) त्या-त्वयि तेरे अन्दर सुभूतसु उत्तम होने वाली उत्पत्ति का गुण आविष्ट हो गया (तदानीं चतस्रः प्रदिशः-प्रकल्पयथाः) उस समय तूने अपनी चारों दिशाओं को वैसा ही समर्थ बना दिया ॥५५॥
विशेष
ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Mother Earth
Meaning
O divine Mother Earth, when in those early ancient times you expanded and, exalted by divine forces of nature and humanity, you waxed with grandeur, then the prosperity and excellence of life and motherhood entered your personality and you rose to the energy, power, inspiration and glory of your divine identity all over the four directions. Be that, O Mother, and continue to be that all time, everywhere.
Translation
When yonder, O divine one, spreading thyself forward, told by the gods, thou didst expand to greatness, then entered into thee well-being; thou didst make fit the four directions.
Translation
While the mother earth possessed of the plentiful resources beneficence, advances forward as told by the wise, expanding her magnificence still further great prosporty resorts to her and she makes the four great quarters flourish.
Translation
O beautiful Motherland, when in times immemorial the learned spoke of thee as vast and extended, and spread around that grandeur of thine; then into thee passed many a charm and glory; thou modest for thyself the world’s four regions.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५५−(अदः) तत् (यत्) यदा (देवि) हे दिव्यगुणवति (प्रथमाना) विस्तीर्यमाणा (पुरस्तात्) अग्रे वर्तमाना सती (देवैः) व्यवहारकुशलैः (उक्ता) कथिता (व्यसर्पः) त्वं विस्तारितवती (महित्वम्) महिमानम् (आ) समन्तात् (त्वा) पृथिवीम् (सुभूतम्) सुभूतिम्। महैश्वर्यम् (अविशत्) प्रविष्टम् (तदानीम्) (अकल्पयथाः) त्वं समर्थाः कृतवती (प्रदिशः) प्रकृष्टा दिशाः (चतस्रः) ॥
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