अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 39
यस्यां॒ पूर्वे॑ भूत॒कृत॒ ऋष॑यो॒ गा उदा॑नृ॒चुः। स॒प्त स॒त्रेण॑ वे॒धसो॑ य॒ज्ञेन॒ तप॑सा स॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठयस्या॑म् । पूर्वे॑ । भू॒त॒ऽकृत॑: । ऋष॑य: । गा: । उत् । आ॒नृ॒चु: । स॒प्त । स॒त्त्रेण॑ । वे॒धस॑: । य॒ज्ञेन॑ । तप॑सा । स॒ह ॥१.३९॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्यां पूर्वे भूतकृत ऋषयो गा उदानृचुः। सप्त सत्रेण वेधसो यज्ञेन तपसा सह ॥
स्वर रहित पद पाठयस्याम् । पूर्वे । भूतऽकृत: । ऋषय: । गा: । उत् । आनृचु: । सप्त । सत्त्रेण । वेधस: । यज्ञेन । तपसा । सह ॥१.३९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राज्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(यस्याम्) जिस [भूमि] पर (पूर्वे) निवासस्थान [शरीर] में [वर्तमान] (भूतकृतः) यथार्थ कर्म करनेवाले, (वेधसः) ज्ञानवान् (सप्त) सात (ऋषयः) विषय प्राप्त करनेवाले ऋषियों [त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि] ने (सत्त्रेण) सत्पुरुषों के रक्षक (यज्ञेन) यज्ञ [देवपूजा, संगतिकरण और दान] और (तपसा सह) [ब्रह्मचर्य आदि] तप के साथ (गाः) वेदवाणियों को (उत्) उत्तमता से (आनृचुः) पूजा है ॥३९॥
भावार्थ
जिस भूमि पर मनुष्य अपने शरीर की इन्द्रियों द्वारा वेदज्ञान प्राप्त करके आत्मोन्नति करते हैं, उस भूमि पर हम पुरुषार्थ करके सुख प्राप्त करें−मन्त्र ४० देखो ॥३९॥ यजुर्वेद ३४।५५। में वर्णन है−(सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे) सात ऋषि अर्थात् शब्द आदि विषय को प्राप्त करनेवाले पाँच ज्ञानेन्द्रिय, मन और बुद्धि शरीर में प्रतीति के सात ठहरे हुए हैं ॥
टिप्पणी
३९−(यस्याम्) भूम्याम् (पूर्वे) पूर्व निवासे निमन्त्रणे च−अच्। निवासे शरीरे (भूतकृतः) भूतं यथार्थं कुर्वन्ति ये ते (ऋषयः) अ० ४।११।९। विषयप्रापकाः पञ्चज्ञानेन्द्रियाणि मनो बुद्धिश्च (गाः) वेदवाणीः (उत्) उत्तमतया (आनृचुः) अर्च पूजायाम्−लिट्। अपस्पृधेथामानृचुरानृहु०। पा० ६।१।३६। धातोर्लिटि उसि सम्प्रसारणमकारलोपश्च। यद्वृत्तान्नित्यम्। पा० ८।१।६६। इति निघातप्रतिषेधः। आनर्चुः। पूजितवन्तः (सप्त) सप्तसंख्याकाः (सत्त्रेण) सत्+त्रैङ् पालने−क। सतां सत्पुरुषाणां त्रायकेण (वेधसः) मेधाविनः ज्ञानवन्तः (यज्ञेन) देवपूजासंगतिकरणदानव्यवहारेण (तपसा) ब्रह्मचर्यादितपश्चरणेन (सह) ॥
विषय
सप्तसन्न, यज्ञ व तप
पदार्थ
१. (यस्याम्) = जिस भूमि पर (पूर्वे) = अपना पालन व पूरण करनेवाले (भूतकृतः) = [right, proper, fit भूत] उचित कर्मों को करनेवाले (ऋषय:) = तत्त्वद्रष्टा व वासनाओं का संहार करनेवाले ज्ञानीलोग (गाः उदानच:) = ज्ञानवाणियों के द्वारा प्रभु का स्तवन [अर्चन] करते हैं। २. इस भूमि पर (वेधसः) = ज्ञानी लोग [learned man] (सप्तसत्रेण) = देवपूजन से तथा (तपसा सह) = तप के साथ सदा ज्ञानवाणियों का उच्चारण करते हैं।
भावार्थ
आदर्श राष्ट्र में लोग अपना पालन व पूरण करते हैं, यथार्थ बातों को करते हैं, वासनाओं का संहार करते हैं। यहाँ ज्ञानी लोग 'सससत्र, यज्ञ व तप' से युक्त होते हैं।
भाषार्थ
(यस्याम्) जिस पृथिवी में (पूर्वे) अनादि काल से (भूतकृतः) सत्यानुष्ठाता (सप्त) सात (वेधसः) शरीर के विधाता, (ऋषयः) ऋषि कोटि के हो कर (सत्रेण) जीवन-सत्र द्वारा (यज्ञेन, तपसा, सह) यज्ञ और तपश्चर्या के साथ (गाः) वेदवाणियों का (उदानृचुः) उत्कृष्टरूप में स्तवन करते रहे हैं।
विषय
पृथिवी सूक्त।
भावार्थ
(यस्यां) जिस भूमि पर (पूर्वे) पूर्व कल्पों के (भूतकृतः) प्राणियों के उत्पादक अथवा भूत—समस्त तत्वों के साक्षात् कार करने वाले (सप्त) सात (वेधसः) विधाता, सर्वोत्पादक (ऋषयः) मन्त्रद्रष्टा ऋषिगण (यज्ञेन) यज्ञ (सत्रेण) सत्र और (तपसा) तप के साथ सम्पन्न होकर (गा: उदानृचुः) वेद-वाणियों को उच्चारण करते रहे। ‘Saong out the Kine, or Song forth the cows’ गायों का गान करते यह थे’ ह्विटनिकृत और ग्रीक़िथकृत अर्थ उपहास योग्य हैं।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘उदानात्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(यस्यां पूर्वे भूतकृतः सप्त वेधसः-ऋषयः-गाः-उदानृचुः) जिस पृथिवी पर पूर्व-प्रारम्भ सृष्टि में हाने वाले भूतकृत-भूतों को स्वाधीन करने तथा संस्कृत यथोचित उपयुक्त करने वाले सप्त-सृप्त-विद्या व्याप्त विधानकर्ता अग्नि आदि चार तथा ब्रह्मा आदि ऋषियों ने वेद वाणियों-मन्त्रों का स्तवन-जीवन में धारण किया (सत्त्रेण यज्ञेन तपसा सह) अध्यापन, प्रवचन, ब्रह्मयज्ञ "आत्मदक्षिणं वै सत्रम्" (कौ० १५।१) यज्ञ-अग्नि होत्र से और ब्रह्मचर्य तप के साथ उक्त वेदवाणियों का अर्चन स्तवन जीवन में धारण किया ऐसी यह पृथिवी है ॥३९॥
विशेष
ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Mother Earth
Meaning
Whereon creative sages of ancient times, seven sages, with yajnic sessions of their life time with yajna and austerity of Tapas, chanted the holy songs of Veda: such is our motherland.
Translation
On whom the former being-making seers sang out the kine - the seven pious ones by their session, together with sacrifice (and), penance;
Translation
This is that mother earth on whom the primal creating forces attain the cosmic light in the form of the sun light and the seven cognitive organs in the body of man are associated with the sentiment Satra Yajna and austerity.
Translation
On whom the ancient learned sages, who made the past of our country, sang forth Vedic verses, by controlling their seven organs, with their fervent zeal and sacrifice.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३९−(यस्याम्) भूम्याम् (पूर्वे) पूर्व निवासे निमन्त्रणे च−अच्। निवासे शरीरे (भूतकृतः) भूतं यथार्थं कुर्वन्ति ये ते (ऋषयः) अ० ४।११।९। विषयप्रापकाः पञ्चज्ञानेन्द्रियाणि मनो बुद्धिश्च (गाः) वेदवाणीः (उत्) उत्तमतया (आनृचुः) अर्च पूजायाम्−लिट्। अपस्पृधेथामानृचुरानृहु०। पा० ६।१।३६। धातोर्लिटि उसि सम्प्रसारणमकारलोपश्च। यद्वृत्तान्नित्यम्। पा० ८।१।६६। इति निघातप्रतिषेधः। आनर्चुः। पूजितवन्तः (सप्त) सप्तसंख्याकाः (सत्त्रेण) सत्+त्रैङ् पालने−क। सतां सत्पुरुषाणां त्रायकेण (वेधसः) मेधाविनः ज्ञानवन्तः (यज्ञेन) देवपूजासंगतिकरणदानव्यवहारेण (तपसा) ब्रह्मचर्यादितपश्चरणेन (सह) ॥
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