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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 49
    ऋषिः - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - जगती सूक्तम् - भूमि सूक्त
    53

    ये त॑ आर॒ण्याः प॒शवो॑ मृ॒गा वने॑ हि॒ताः सिं॒हा व्या॒घ्राः पु॑रु॒षाद॒श्चर॑न्ति। उ॒लं वृकं॑ पृथिवि दु॒च्छुना॑मि॒त ऋ॒क्षीकां॒ रक्षो॒ अप॑ बाधया॒स्मत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । ते । आ॒र॒ण्या: । प॒शव॑: । मृ॒गा: । वने॑ । हि॒ता: । सिं॒हा: । व्या॒घ्रा । पु॒रु॒ष॒ऽअद॑: । चर॑न्ति । उ॒लम् । वृक॑म् । पृ॒थि॒व‍ि॒ । दु॒च्छुना॑म् । इ॒त: । ऋ॒क्षीका॑म् । रक्ष॑: । अप॑ । बा॒ध॒य॒ । अ॒स्मत् ॥१.४९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये त आरण्याः पशवो मृगा वने हिताः सिंहा व्याघ्राः पुरुषादश्चरन्ति। उलं वृकं पृथिवि दुच्छुनामित ऋक्षीकां रक्षो अप बाधयास्मत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । ते । आरण्या: । पशव: । मृगा: । वने । हिता: । सिंहा: । व्याघ्रा । पुरुषऽअद: । चरन्ति । उलम् । वृकम् । पृथिव‍ि । दुच्छुनाम् । इत: । ऋक्षीकाम् । रक्ष: । अप । बाधय । अस्मत् ॥१.४९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 49
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राज्य की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (ये ते) वे जो (आरण्याः) वन में उत्पन्न हुए (पशवः) पशु (हितः) हितकारी (मृगाः) हरिण आदि और (पुरुषादः) मनुष्यों के खानेवाले (सिंहाः) [हिंसक] सिंह और (व्याघ्राः) [सूँघ कर मारनेवाले] बाघ आदि (वने) वन के बीच (चरन्ति) चरते-फिरते हैं। [उनमें से] (पृथिवि) हे पृथिवि ! (उलम्) [उष्ण स्वभाववाले] बनबिलाव, (वृकम्) भेड़िये को और (दुच्छुनाम्) दुष्ट गतिवाली (ऋक्षीकाम्) [हिंसक] रीछिनी आदि, (रक्षः) राक्षस [दुष्ट जीवों] को (इतः) यहाँ पर (अस्मत्) हम से (अप बाधय) हटा दे ॥४९॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को उचित है कि हितकारी पशुओं की रक्षा करके हिंसक प्राणियों का नाश करें ॥४९॥ इस मन्त्र के प्रथम पाद का मिलान अ० ११।२।२४। के प्रथम पाद से करो ॥

    टिप्पणी

    ४९−(ये) (ते) प्रसिद्धाः (आरण्याः) अरण्याण् णो वक्तव्यः। वा० पा० ४।२।१०४। अरण्य-ण। अरण्ये भवाः (पशवः) (मृगाः) हरिणाः (वने) (हिताः) हितकराः (सिंहाः) अ० ४।८।७। हिंसका जन्तुविशेषाः (व्याघ्राः) अ० ४।३।१। विशिष्टाघ्राणमात्रेण प्राणिनां हिंसकजन्तुविशेषाः (पुरुषादः) मनुष्यभक्षकाः (चरन्ति) विचरन्ति (उलम्) उल दाहे सौत्रो धातुः−क। उष्णस्वभावं वनमार्जारम् (वृकम्) अ० ३।४।१। हिंस्रजन्तुविशेषम् (पृथिवी) (दुच्छुनाम्) टुदु उपतापे−क्विप् तुक् च, शुन गतौ−क, टाप्। दुष्टगतिम् (इतः) अस्मात् स्थानात् (ऋक्षीकाम्) कषिदूषिभ्यामीकन्। उ० ४।१६। ऋक्ष हिंसायाम्−ईकन्। हिंसिकां भल्लूकीम् (रक्षः) राक्षसम् (अपबाधय) अपबाधस्व। दूरीकुरु (अस्मत्) ॥

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    विषय

    आरण्य पशुओं से रक्षण

    पदार्थ

    १.हे भूमिमातः! (ये) = जो (ते) = तेरे (आरण्याः पशव) = जंगली पशु हैं, (वने हिता:) = वनों में स्थापित (मृगा:) = मृग है [जो ग्रामों में आकर खेतियों को विनष्ट कर देते हैं], जो पुरुषादः मनुष्यों को भी खा जानेवाले (सिंहा: व्याघ्रा:) = शेर व चीते चरन्ति-इधर-उधर घूमते हैं [चिड़ियाघर में रखे हुए नहीं]। इसी प्रकार (उलम्) = सियार [A kind of wild animal] (वृकम्) = भेड़िया, (दुच्छूनाम्) = दुष्ट कुत्ते, (ऋक्षीकाम्) = रीछ आदि को (इत:) = यहाँ से (अपबाधय) = दूर कर। २. यह (पृथिवि) = पृथिवी (रक्षः) = राक्षसीवृत्ति के पुरुषों को अथवा अपने रमण के लिए औरों का क्षय करनेवाले रोगकृमियों को (अस्मत्) = हमसे दूर ही रोक दे।

    भावार्थ

    राजा आरण्य पशुओं से प्रजा की रक्षा करे। इस बात का ध्यान करे कि मृग ही खेतियों को न चर जाएँ। सियार, भेड़िये, पागल कुत्ते आदि के उपद्रव न हों। रोछ व रोगकृमि हमसे दूर रहें।

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    भाषार्थ

    (पृथिवि) हे पृथिवि ! (ते) तेरे (ये) जो (आरण्याः पशवः) अरण्यवासी पशु हैं, तथा (वने हिताः मृगाः) वन में निहित मृग हैं, तथा (पुरुषादः) पुरुषों को खाने वाले (सिंहः व्याघ्राः) शेर और व्याघ्र (चरन्ति) तुझ पर विचरते हैं। (उलम्१ वृकम्) गर्म स्वभाव वाले भेड़िये को, (दुच्छुनाम्२ ऋक्षीकाम्) दुःखदायिनी रिच्छनी को, तथा (रक्षः) राक्षसी स्वभाव वाले मनुष्य को हे पृथिवी ! (इतः) इस हमारे निवासस्थान से (अपबाधय) दूर कर दे।

    टिप्पणी

    [समग्र-पृथिवी के शासक का यह कर्तव्य है कि वह मनुष्यघातक पशुओं तथा खेतों को खा जाने मृगों को, तथा चोरों डाकुओं आदि मनुष्यों को, नगरों और बस्तियों में न आने देने का प्रबन्ध करे। अरण्यम् = अरमणीयम् अर्थात् घने जङ्गल, जिन में जाना भयप्रद है। ऋग्वेद में बड़े अरण्य के साथ भय का वर्णन है। यथा “अरण्यान्यरण्यान्यसौ मा प्रेद नश्यसि। कथा ग्रामं न पृच्छसि न त्वा भीरिव विन्दतीं३॥ (ऋ० १०।१४६।१)। बने = वन में मृगों का वर्णन है, अतः वन भद्र नहीं। वन=वनु याचने, तथा वन संभक्तौ। वानप्रस्थी वन की याचना करते हैं, तथा इन का सेवन करते हैं]। [१. उलम्= उष दाहे। षकारस्य लकारः। यथा उल्का, उल्मुकम् में ष् को ल हुआ है (उणा० ३।४२; ३।८४)। २. दुच्छुनाम्= दुः + शुनम् (सुखनाम, निघं० ३।६) अर्थात् दुःखदायिनी। अथवा दुःशुनी= बुरी कुतिया के सदृश।

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    विषय

    पृथिवी सूक्त।

    भावार्थ

    हे पृथिवि ! (ते ये आरण्याः पशवः) तेरे जो जंगली पशु और (वने हिताः) वन में पालित पोषित (मृगाः) मृग, हाथी आदि और (पुरुषादः) पुरुष अर्थात् मनुष्यों को भी खा जाने वाले (सिंहाः) सिंह (व्याघ्राः) बाघ आदि (चरन्ति) विचरते हैं उनको और (उलम्) सियार, (वृकम्) भेड़िये (दुच्छ्नाम्) दुःखदायी (ऋक्षीकां) ऋच्छ जाति और अन्य (रक्षः) कष्टदायी राक्षस स्वभाव के जन्तुओं को (इतः) यहां से (अस्मत्) और हम से (अप बाधय) दूर रख।

    टिप्पणी

    (च०) ‘इत रक्षीकाम्’ इति क्वचित्। ‘ऋक्षीकामृक्षः’ इति क्वचित्। रेक्षीकां रक्षो उपवाधामत् इति पैप्प० सं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (ये ते-आरश्याः पशवः-मृगाः-वने हिताः सिंहा-व्याघ्राः पुरुषाद:-चरन्ति) जो वे जङ्गल के पशु मृग नाम के वन में रहते हैं वे सिंह बाघ मनुष्यों को खाने वाले विचरते हैं (पृथिवी-उलं वृकं दुच्छुनाम् ऋक्षीकां रक्षः-इतः अस्मत्पवाधय) हे पृथिवि तू उल-गीदड, भेड़िये, दुष्ट वायु फेंकने वाली- छुछुन्दरी “शुनो वायुः" (नि० ६।४०) रीछ जाति राक्षस को हमारे से परे हटा दे ॥४९॥

    विशेष

    ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Song of Mother Earth

    Meaning

    Your animals of the forest, the deer inhabiting the woods, lions and tigers, carnivorous they are, all ranging over you, O Mother Earth, remove away all those ferocious wolves, she bears, and all deadly devils dangerous to people.

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    Translation

    What forest animals of thine, wild beasts set in the woods, lions, tigers, go about man-eating - the jackal, the wolf, O earth, misfortune, the rksika, the demon, do thou force away from us here.

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    Translation

    Her beasts of the forest such as the beneficial deer, the man eating lion and tiger roam about in the forest. May the mother earth chase away from us here, the ferocious wolf and the she-bear of the nasty gait.

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    Translation

    O Motherland, keep away at a distance from us, all sylvan beasts of thine, deer reared in the forest, man-eaters, like lions, tigers, hyena, wolf, annoying bear and violent persons!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४९−(ये) (ते) प्रसिद्धाः (आरण्याः) अरण्याण् णो वक्तव्यः। वा० पा० ४।२।१०४। अरण्य-ण। अरण्ये भवाः (पशवः) (मृगाः) हरिणाः (वने) (हिताः) हितकराः (सिंहाः) अ० ४।८।७। हिंसका जन्तुविशेषाः (व्याघ्राः) अ० ४।३।१। विशिष्टाघ्राणमात्रेण प्राणिनां हिंसकजन्तुविशेषाः (पुरुषादः) मनुष्यभक्षकाः (चरन्ति) विचरन्ति (उलम्) उल दाहे सौत्रो धातुः−क। उष्णस्वभावं वनमार्जारम् (वृकम्) अ० ३।४।१। हिंस्रजन्तुविशेषम् (पृथिवी) (दुच्छुनाम्) टुदु उपतापे−क्विप् तुक् च, शुन गतौ−क, टाप्। दुष्टगतिम् (इतः) अस्मात् स्थानात् (ऋक्षीकाम्) कषिदूषिभ्यामीकन्। उ० ४।१६। ऋक्ष हिंसायाम्−ईकन्। हिंसिकां भल्लूकीम् (रक्षः) राक्षसम् (अपबाधय) अपबाधस्व। दूरीकुरु (अस्मत्) ॥

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