अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 9
ऋषिः - अथर्वा
देवता - भूमिः
छन्दः - परानुष्टुप्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - भूमि सूक्त
120
यस्या॒मापः॑ परिच॒राः स॑मा॒नीर॑होरा॒त्रे अप्र॑मादं॒ क्षर॑न्ति। सा नो॒ भूमि॒र्भूरि॑धारा॒ पयो॑ दुहा॒मथो॑ उक्षतु॒ वर्च॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठयस्या॑म् । आप॑: । प॒रि॒ऽच॒रा: । स॒मा॒नी: । अ॒हो॒रा॒त्रे इति॑ । अप्र॑ऽमादम् । क्षर॑न्ति । सा । न॒: । भूमि॑: । भूरि॑ऽधारा । पय॑: । दु॒हा॒म् । अथो॒ इति॑ । उ॒क्ष॒तु॒ । वर्च॑सा ॥१.९॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्यामापः परिचराः समानीरहोरात्रे अप्रमादं क्षरन्ति। सा नो भूमिर्भूरिधारा पयो दुहामथो उक्षतु वर्चसा ॥
स्वर रहित पद पाठयस्याम् । आप: । परिऽचरा: । समानी: । अहोरात्रे इति । अप्रऽमादम् । क्षरन्ति । सा । न: । भूमि: । भूरिऽधारा । पय: । दुहाम् । अथो इति । उक्षतु । वर्चसा ॥१.९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राज्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(यस्याम्) जिस भूमि पर (परिचराः) सेवाशीलवाले (समानीः) एक से स्वभाववाली (आपः) आप्त प्रजाएँ [सत्यवक्ता लोग] (अहोरात्रे) दिन-राति (अप्रमादम्) बिना चूक (क्षरन्ति) बहते हैं। (भूरिधारा) अनेक धारण शक्तियोंवाली (सा भूमिः) वह भूमि (नः) हमको (पयः) अन्न (दुहाम्) दुहा करे, (अथो) और भी (वर्चसा) तेज के साथ (उक्षतु) बढ़ावे ॥९॥
भावार्थ
मनुष्यों को योग्य है कि समदर्शी परोपकारी महात्माओं के समान दृढ़चित्त होकर परस्पर सेवा करते हुए पृथिवी पर अन्न आदि के लाभ से बल वीर्य बढ़ावें ॥९॥
टिप्पणी
९−(यस्याम् भूम्याम्) (आपः) आप्ताः प्रजाः−दयानन्दभाष्ये, यजु० ६।२७। (परिचराः) परिचारकाः। सेवाशीलाः (समानीः) समानचित्ताः (अहोरात्रे) अहर्निशम् (अप्रमादम्) प्रमादराहित्येन (क्षरन्ति) सञ्चलन्ति। वहन्ति (सा) (नः) अस्मभ्यम् (भूमिः) (भूरिधारा) बहुधारयुक्ता (पयः) अन्नम्−निघ० २।७। अन्यत् पूर्ववत्−म० ७ ॥
विषय
समानी: आपः
पदार्थ
१. (यस्याम्) = जिस पृथिवी पर (आप:) = जल (परिचरा:) = चारों ओर गतिवाले हैं-सर्वत्र उपलभ्य हैं तथा (समानी:) = [सम् अन्] सम्यक् प्राणित करनेवाले हैं [अपोमयाः प्राणा:]। ये जल (आहोरात्रे) = दिन-रात (अप्रमादं क्षरन्ति) = प्रमादशून्य होकर संचलित हो रहे हैं। २. (सा) = वह भूरिधारा अनन्त अथवा पालक व पोषक धाराओंवाली (भूमि:) = पृथिवी (न:) = हमारे लिए (पयः) = दुग्ध का आप्यायन करनेवाली वस्तुओं का (दुहाम्) = प्रपूरण करे । (अथो) = और दुग्ध के प्रपूरण के द्वारा (वर्चसा उक्षतु) = वर्चस् से सिक्त करे-हमें यह शक्तिशाली बनाए।
भावार्थ
इस पृथिवी पर प्राणशक्तिप्रद जल चारों दिशाओं में बह रहे हैं। यह पृथिवी हमारे लिए दुग्ध के प्रपूरण के द्वारा शक्ति का सेचन करनेवाली बनती है।
भाषार्थ
(यस्याम्) जिस भूमि में (समानीः१) समानरूप में (परिचराः) सब ओर विचरने वाले (आपः) जल, (अहोरात्रे) दिन-रात (अप्रमादम्) विना प्रमाद के (क्षरन्ति) प्रवाहित हो रहे हैं, (सा) वह (भूरि धारा) प्रभूत जल धाराओं वाली या प्रभूतरूप में धारण-पोषण करने वाली (भूमिः) भूमि, (नः) हमें, (पयः) दूध आदि (दुहाम्) प्रदान करे, (अथो) तथा (वर्चसा) वर्चस् द्वारा (उक्षतु) सींचे।
टिप्पणी
[दुहाम् और पयः शब्दों द्वारा भूमि को गोरूप में वर्णित किया है, आपः=नदियों के जल]। [१. समानीः=समा (वर्ष) + नी (णीञ् प्रापणे) = वार्षिक वर्षा जल, जोकि नदियों के रूप में रात-दिन प्रवाहित होते रहते हैं।]
विषय
पृथिवी सूक्त।
भावार्थ
(यस्याम्) जिस पृथिवी पर (आपः) आप्तजनों के समान पवित्र जल भी (परिचराः) लोक सेवा में लगे परिचारकों के समान या सर्वत्र भ्रमण-शील संन्यासी परिव्राजकों के समान सर्वत्र जाने वाले, (समानीः) सर्वत्र समान भाव से रहने वाले, एक समान (अहोरात्रे) दिन रात (अप्रमादम्) प्रमाद शून्य होकर (क्षरन्ति) बहते हैं। (सा भूमिः) वह भूमि सबकी उत्पादक जननी (भूरिधारा) बहुतसी जल-धाराओं से युक्त (नः) हमें (पयः दुहाम्) पुष्टिकारक जल और अन्न आदि पदार्थ अधिक मात्रा में उत्पन्न करे (अथो) और (वर्चसा उक्षतु) तेज और धन से हमें सीचे, तेज़स्वी बनावे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(यस्यां परिचराः समानी:-आप:-अहोरात्रे-अप्रमादं क्षरन्ति) जिस पृथिवी पर भ्रमणशील-घूमने वाले समानरूप में रहने वाले- समता बनाने वाले जलप्रवाह निरन्तर बहते हैं (सा भूमि:भूरिधारा पय:-दुहाम्) वह भूमि बहुत जल धाराओं वाली हुई जल को दुहे (अथ-उ वर्चसा-उक्षतु) और वर्च-जीवन-तेज से सींचे ॥९॥
विशेष
ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Mother Earth
Meaning
On which free flowing rivers flow continuously day and night without relent, may that earth of abundant streams and rivers bless us with refreshing waters and consecrate us with light and splendour.
Translation
On whom the circulating waters flow the same, night and day, without failure -- let that earth of many streams yield us milk; then let her sprinkle (us) with splendor.
Translation
May that earth in whom many well-wisher of humanity of quiet nature seving mankind pass their days and nights with out any thing happening untoward, and who possesses immense power to support beings amply provide us with food and also help us to develop our power.
Translation
On whom the sacrificing truthful hermits, calm like water, imbued with the spirit of service, with one mind work ceaselessly day and night. May she, our motherland with many streams pour milk to feed us, may she bedew us with a flood of splendor.
Footnote
(आप:) आप्ता:प्रजा: दयानंद भाष्य यजु 6-27. Apa has been translated by Maharshi Dayanand as sacrificing truthful persons in the Yajurveda, chapter six, verse twentyseven
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
९−(यस्याम् भूम्याम्) (आपः) आप्ताः प्रजाः−दयानन्दभाष्ये, यजु० ६।२७। (परिचराः) परिचारकाः। सेवाशीलाः (समानीः) समानचित्ताः (अहोरात्रे) अहर्निशम् (अप्रमादम्) प्रमादराहित्येन (क्षरन्ति) सञ्चलन्ति। वहन्ति (सा) (नः) अस्मभ्यम् (भूमिः) (भूरिधारा) बहुधारयुक्ता (पयः) अन्नम्−निघ० २।७। अन्यत् पूर्ववत्−म० ७ ॥
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