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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 16
    ऋषिः - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - एकावसाना साम्नी त्रिष्टुप् सूक्तम् - भूमि सूक्त
    121

    ता नः॑ प्र॒जाः सं दु॑ह्रतां सम॒ग्रा वा॒चो मधु॑ पृथिवि धेहि॒ मह्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ता: । न॒: । प्र॒ऽजा: । सम् । दु॒ह्र॒ता॒म् । स॒म्ऽअ॒ग्रा: । वा॒च: । मधु॑ । पृ॒थि॒वि॒ । धे॒हि॒ । मह्य॑म् ॥१.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता नः प्रजाः सं दुह्रतां समग्रा वाचो मधु पृथिवि धेहि मह्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ता: । न: । प्रऽजा: । सम् । दुह्रताम् । सम्ऽअग्रा: । वाच: । मधु । पृथिवि । धेहि । मह्यम् ॥१.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 16
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राज्य की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (समग्राः) सब (ताः) वे (प्रजाः) प्रजाएँ (नः) हमें (सम् दुह्रताम्) मिलकर भरपूर करें, (पृथिवि) हे पृथिवी ! (वाचः) वाणी की (मधु) मधुरता (मह्यम्) मुझ को (धेहि) दे ॥१६॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य वाणी की मधुरता अर्थात् सत्य वचन आदि से सब प्राणियों से उपकार लेते हैं, वे सुख पाते हैं ॥१६॥

    टिप्पणी

    १६−(ताः) (नः) अस्मान् (प्रजाः) प्राणिनः (सम्) मिलित्वा (दुह्रताम्) प्रपूरयन्तु (समग्राः) समस्ताः (वाचः) वचनस्य (मधु) माधुर्यम् (पृथिवि) (धेहि) देहि (मह्यम्) ॥

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    विषय

    समग्रा: वाच: मधु

    पदार्थ

    १. हे (पृथिवि) = भूमिमातः ! (ता:) = वे (न:) = हमारी (प्रजा:) = प्रजाएँ-सन्तान (समग्रा: वाचः) = सम्पूर्ण ज्ञानवाणियों का (संदुह्रताम्) = सम्यक् दोहन करें, अर्थात् वे खूब ज्ञान की रुचिवाली बनें और हे पृथिवि! तु (मह्यम्) = मेरे लिए (मधु धेहि) = माधुर्य को धारण कर । मैं सदा मधुरवाणी ही बोलनेवाला बनें।

    भावार्थ

    प्रभुकृपा से हमारी सन्तानें ज्ञान प्रधान हों और हमारे जीवन में मधुरता हो। हम कभी कटु शब्द न बोलें।

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    भाषार्थ

    (ताः समग्राः प्रजाः) वे सब प्रजाएँ, (नः) हम सब के लिये, (सं दुहताम्) परस्पर मिल कर, हे पृथिवी ! तेरा दोहन करें, (पृथिवि) हे पृथिवी ! (मह्यम्) मुझ प्रत्येक को (वाचः मधु) वाणी का मिठास (धेहि) प्रदान कर।

    टिप्पणी

    [सभी मनुष्य परस्पर मिल कर, सहोद्योग द्वारा, पृथिवी का दोहन करें, पृथिवी से अन्न तथा नानाविध सम्पत्तियों को परस्पर मिल कर प्राप्त करें। प्रत्येक मनुष्य में वाणी का माधुर्य होना चाहिये, तभी संगठन सुदृढ़ हो सकता है। परस्पर की निन्दा, कटु, आलोचना, तथा तीखी वाणी होने पर दिल फट जाते, मनोमालिन्य हो जाता है, संगठन टूट जाता है]।

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    विषय

    पृथिवी सूक्त।

    भावार्थ

    (ताः) वे (समग्राः) समस्त (प्रजाः) प्रजाएं (नः) हमें (सं दुह्रताम्) सब प्रकार से पूर्ण करें, अपने अपने परिश्रमों और शिल्पों द्वारा बढ़ावें। हे पृथिवि ! तू (मह्यम्) मुझे (वाच: मधु) वाणी की मधुरता (धेहि) प्रदान कर। अथवा (ताः प्रजाः) वे प्रजाएं (नः समग्राः वाचः सं दुह्रताम्) हम से समस्त उत्तम वाणियें परस्पर कहें (पृथिवि मह्यं मधु देहि) और हे पृथिवि ! मुझे तू मधु = अन्न प्रदान कर।

    टिप्पणी

    ‘तेनः’ इति ह्विटनिकामितः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (ताः प्रजाः-नः-समग्राः-वाचः-दुहताम्) वे प्रजायें पृथिवी धारी प्रजाऐं हमारे लिए समग्र वाणियाँ सुखस्नेह भरी दुहें (पृथिवी-मधु-मह्यं-धेहि) हे पृथिवी ! तू ऐसा मधुर वचन गुण मेरे लिये धारण कर सब प्राणी भी मधुर वाणियाँ मुझे दो ॥१६॥

    विशेष

    ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Song of Mother Earth

    Meaning

    Let all these people, your children, together receive the mother’s gift of nourishment, sustenance and support. O Mother Earth, bless me with honey sweets of the Common Word and mutual discourse, pray establish me therein.

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    Translation

    Let those creatures, without exception, together yield fruit to us; the honey of speech, O earth, do thou assign unto me.

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    Translation

    May all these subjects unite with us, complete our society and make it perfect. May the earth give us sweetness of speech (which is essential to bring us together).

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    Translation

    In concert may these men of ours advance themselves. O motherland ! endow me with the sweetness of tongue.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १६−(ताः) (नः) अस्मान् (प्रजाः) प्राणिनः (सम्) मिलित्वा (दुह्रताम्) प्रपूरयन्तु (समग्राः) समस्ताः (वाचः) वचनस्य (मधु) माधुर्यम् (पृथिवि) (धेहि) देहि (मह्यम्) ॥

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