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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 52
    ऋषिः - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा परातिजगती सूक्तम् - भूमि सूक्त
    72

    यस्यां॑ कृ॒ष्णम॑रु॒णं च॒ संहि॑ते अहोरा॒त्रे विहि॑ते॒ भूम्या॒मधि॑। व॒र्षेण॒ भूमिः॑ पृथि॒वी वृ॒तावृ॑ता॒ सा नो॑ दधातु भ॒द्रया॑ प्रि॒ये धाम॑निधामनि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्या॑म् । कृ॒ष्णम् । अ॒रु॒णम् । च॒ । संहि॑ते इति॒ सम्ऽहि॑ते । अ॒हो॒रा॒त्रे इति॑ । विहि॑ते॒ इति॒ विऽहि॑ते । भूम्या॑म् । अधि॑ । व॒र्षेण॑ । भूमि॑: । पृ॒थि॒वी । वृ॒ता । आऽवृ॑ता । सा । न॒: । द॒धा॒तु॒ । भ॒द्रया॑ । प्रि॒ये । धाम॑निऽधामनि ॥१.५२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्यां कृष्णमरुणं च संहिते अहोरात्रे विहिते भूम्यामधि। वर्षेण भूमिः पृथिवी वृतावृता सा नो दधातु भद्रया प्रिये धामनिधामनि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्याम् । कृष्णम् । अरुणम् । च । संहिते इति सम्ऽहिते । अहोरात्रे इति । विहिते इति विऽहिते । भूम्याम् । अधि । वर्षेण । भूमि: । पृथिवी । वृता । आऽवृता । सा । न: । दधातु । भद्रया । प्रिये । धामनिऽधामनि ॥१.५२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 52
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राज्य की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (यस्यां भूम्याम् अधि) जिस भूमि के ऊपर (अरुणम्) सूर्यवाले (च) और (कृष्णम्) काले वर्णवाले (संहिते) आपस में मिले हुए (अहोरात्रे) दिन और राति (विहिते) विधानपूर्वक ठहराये गये हैं। (वर्षेण) मेह से (वृता) लपेटी हुई और (आवृता) ढकी हुई (सा) वह (पृथिवी) चौड़ी (भूमिः) भूमि [आश्रय स्थान] (नः) हमको (भद्रया) कल्याणी मति के साथ (प्रिये धामनिधामनि) प्रत्येक रमणीय स्थान में (दधातु) रक्खे ॥५२॥

    भावार्थ

    ईश्वरनियम से जिस प्रकार दिन-राति मिले हुए हैं और पृथिवी मेघमण्डल से छायी है, वैसे ही मनुष्य पृथिवी पर उत्तम बुद्धि के साथ रहकर सब स्थानों में आनन्द करें ॥५२॥

    टिप्पणी

    ५२−(यस्याम्) (कृष्णम्) कृष्णवर्णम् (अरुणम्) अरुण−अर्शआद्यच्। सूर्येण युक्तम् (च) (संहिते) परस्परमिलिते (अहोरात्रे) रात्रिदिने (विहिते) विधानेन स्थापिते (भूम्याम्) (अधि) उपरि (वर्षेण) वृष्ट्या (भूमिः) (पृथिवी) विस्तृता (वृता) वेष्टिता (आवृता) आच्छादिता (सा) (नः) अस्मान् (दधातु) धरतु (भद्रया) कल्याण्या मेधया (प्रिये) हितकरे (धामनिधामनि) प्रत्येकस्थाने ॥

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    विषय

    दिन-रात, वृष्टि, गौवें व प्रिय तेज

    पदार्थ

    १. (यस्यां भूम्याम् अधि) = जिस भूमि पर (कृष्णं अरुणं च) = एक तो अन्धकारमय, परन्तु दूसरा प्रकाशमय (अहोरात्रे) = रात्रि और दिन (संहिते) = परस्पर मिलाकर रखे हुए (विहिते) = स्थापित किये गये हैं। दिन के बाद रात्रि आती है और रात्रि के बाद दिन। इसप्रकार ये परस्पर संहित' [सम्बद्ध] हैं। एक प्रकाशमय है, दूसरी अन्धकारमय। २. यह (भूमि:) = पृथिवी समय-समय पर (वर्षेण वृता) = वृष्टिजल से आच्छादित होती रहती है और इसप्रकार यह (भद्रया आवृता) = [भद्रा A cow] गौओं से आवृत होती है। वृष्टि से चारे की कमी नहीं रहती और ये गौवें खूब फूलती फलती हैं। (सा) = वह वृष्टि व गौवों से आच्छादित भूमि हमें (न:) = हमसे (प्रिये) = प्रीति करनेवाले (धामनिधामनि) = प्रत्येक तेज [Energy] में दधातु स्थापित करे।

    भावार्थ

    प्रभु ने हमारे जीवन के लिए दिन व रात का क्रम बाँधा है। इसपर वृष्टि व गौवों की व्यवस्था की है। वे गौवें हमारे प्रिय तेज का कारण बनती है-अपने दूध के द्वारा हमें तेजस्विता प्राप्त कराती हैं।

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    भाषार्थ

    (यस्याम्, भूम्याम्, अधि) जिस उत्पादिका-भूमि में (कृष्णं च अरुणम्) काले और चमकीले (अहोरात्रे) रात और दिन (संहिते) परस्पर में मिले हुए (विहिते) विहित हैं, (सा) वह (भूमिः पृथिवी) उत्पादिका तथा विस्तृत पृथिवी, (वर्षेण) वर्षा द्वारा (वृता, आवृता) लिपटी और ढकी हुई, (भद्रया) भद्रबुद्धि के साथ (नः) हमें (प्रिये धामनि धामनि) प्रिय स्थानों में (दधातु) स्थापित करे।

    टिप्पणी

    [मन्त्र ५१ में ग्रीष्म ऋतु के वर्णन के पश्चात् मन्त्र १२ में वर्षा ऋतु का वर्णन हुआ है। वर्षा ऋतु में प्रत्येक स्थान प्रिय प्रतीत होने लगता है। अरुणम् = अरुणः आरोचनः (निरुक्त ५।४।२०)। दिन आरोचन होता है, - रुचिकर तथा चमकीला होता है]।

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    विषय

    पृथिवी सूक्त।

    भावार्थ

    (यस्याम्) जिस (भूम्याम् अधि) भूमिपर (कृष्णं अरुणं च) काला और लाल (अहोरात्रे) दिन और रात दोनों (संहिते) परस्पर मिलें हुए, सदा एक दूसरे के पीछे लगे हुए, सुसम्बद्ध (विहिते) रहते हैं। (सा पृथिवी) वह विशाल पृथिवी (भूमिः) सबकी उत्पादक, जननी (वर्षेण वृता) वर्षा के जल से ढकी हुई (भद्रया) कल्याण और सुखकारिणी लक्ष्मी से (आवृता) सम्पन्न या घिरी हुई (प्रिये) प्रिय, मनोहर (धामनिधामनि) प्रत्येक देश में (नः दधातु) हमें सब प्रकार से धारण पोषण करे।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘गृष्टमरुणं च संभृतेऽहोरात्रे’ (तृ०) ‘वृतावृधा’ (पं०) ‘धाम्निधाम्नि’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (यस्यां भूभ्याम् अधि-अरुणं कृष्णं च-अहोरात्रे संहिते विहिते) जिस पृथिवी पर शुभ्रवर्ण और कृष्णवर्ण दिन और रात्रि मिले हुए और अलग होते हुए वर्तमान हैं (वर्षेण सा भूमिः पृथिवी वृता-आवृता) वह उत्पादिका पृथिवी वर्षाजल से भरी -सींची और घिरी होती हुई (भद्रया नः प्रिये धामनि धामनि दधातु) कल्याणी प्रवृत्ति से प्यारे मनोहर प्रत्येक धाम में हमें धारण करे ॥५२॥

    विशेष

    ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Song of Mother Earth

    Meaning

    Mother Earth where day and night, bright and dark, are joined in the natural system, the vast earth which is soaked and covered with showers of rain, may she, we pray, establish us in goodness, peace and prosperity with noble good fortune in every place and situation.

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    Translation

    On whom the black and the ruddy, combined, (namely) day and night, (are) disposed upon the earth; the broad earth, wrapped (and) covered with rain — let her kindly set us in each loved abode.

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    Translation

    Let that spacious mother earth upon whom are settled joined together day and night, the ruddy and dark, who is surrounded and encompassed by rain establish us with an under. standing to happiness in each delightful place.

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    Translation

    Earth, upon whom are settled, joined together, the night and day, the dusky and the ruddy, the vast motherland encompassed by the rain round her, happily may she establish us in each delightful dwelling place.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५२−(यस्याम्) (कृष्णम्) कृष्णवर्णम् (अरुणम्) अरुण−अर्शआद्यच्। सूर्येण युक्तम् (च) (संहिते) परस्परमिलिते (अहोरात्रे) रात्रिदिने (विहिते) विधानेन स्थापिते (भूम्याम्) (अधि) उपरि (वर्षेण) वृष्ट्या (भूमिः) (पृथिवी) विस्तृता (वृता) वेष्टिता (आवृता) आच्छादिता (सा) (नः) अस्मान् (दधातु) धरतु (भद्रया) कल्याण्या मेधया (प्रिये) हितकरे (धामनिधामनि) प्रत्येकस्थाने ॥

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