अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 37
याप॑ स॒र्पं वि॒जमा॑ना वि॒मृग्व॑री॒ यस्या॒मास॑न्न॒ग्नयो॒ ये अ॒प्स्वन्तः। परा॒ दस्यू॒न्दद॑ती देवपी॒यूनिन्द्रं॑ वृणा॒ना पृ॑थि॒वी न वृ॒त्रम्। श॒क्राय॑ दध्रे वृष॒भाय॒ वृष्णे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठया । अप॑ । स॒र्पम् । वि॒जमा॑ना । वि॒ऽमृग्व॑री । यस्या॑म् । आस॑न् । अ॒ग्नय॑: । ये । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । परा॑ । दस्यू॑न् । दद॑ती । दे॒व॒ऽपी॒यून् । इन्द्र॑म् । वृ॒णा॒ना । पृ॒थि॒वी । न । वृ॒त्रम् । श॒क्राय॑ । द॒ध्रे॒ । वृ॒ष॒भाय॑ । वृष्णे॑ ॥१.३७॥
स्वर रहित मन्त्र
याप सर्पं विजमाना विमृग्वरी यस्यामासन्नग्नयो ये अप्स्वन्तः। परा दस्यून्ददती देवपीयूनिन्द्रं वृणाना पृथिवी न वृत्रम्। शक्राय दध्रे वृषभाय वृष्णे ॥
स्वर रहित पद पाठया । अप । सर्पम् । विजमाना । विऽमृग्वरी । यस्याम् । आसन् । अग्नय: । ये । अप्ऽसु । अन्त: । परा । दस्यून् । ददती । देवऽपीयून् । इन्द्रम् । वृणाना । पृथिवी । न । वृत्रम् । शक्राय । दध्रे । वृषभाय । वृष्णे ॥१.३७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राज्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(या) जो (विमृग्वरी) विविध प्रकार खोजने योग्य [पृथिवी] (अप सर्पम्) सरक कर (विजमाना) चलनेवाली है, (यस्याम्) जिस [पृथिवी] पर (अग्नयः) वे अग्नि ताप (आसन्) हैं (ये) जो (अप्सु अन्तः) प्राणियों के भीतर हैं (देवपीयून्) विद्वानों के सतानेवाले (दस्यून्) दुष्टों को (परा ददती) दूर छोड़ती हुई, [इस प्रकार] (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवान् पुरुष को (वृणाना) चाहती हुई और (वृत्रम्) शत्रु को (न) न [चाहती हुई] (पृथिवी) पृथिवी (शक्राय) शक्तिमान्, (वृषभाय) बलवान्, (वृष्णे) वीर्यवान् पुरुष के लिये (दध्रे) धारण की गयी है ॥३७॥
भावार्थ
जो मनुष्य आगे की चलती हुई पृथिवी को खोजकर अपने भीतर पुरुषार्थरूप तेज धारण करते हैं, उन विघ्ननाशक वीरों के लिये यह पृथिवी सुखदायिनी और दुराचारी दुष्टों को दुःखदायिनी होती है ॥३७॥
टिप्पणी
३७−(या) पृथिवी (अप सर्पम्) अपसर्पणेन अपसरणेन तथा यथा (विजमाना) ओविजी भयचलनयोः−शानच्। चलन्ती (विमृग्वरी) म० २९। विविधमन्वेषणीयां (यस्याम्) पृथिव्याम् (आसन्) सन्ति (अग्नयः) अग्नितापाः (ये) (अप्सु) आपः=आप्ताः प्रजाः−दयानन्दभाष्ये, यजु० ६।२७। प्रजासु। प्राणिषु (अन्तः) मध्ये (परा) दूरे (दस्यून्) अ० २।१४।५। परपदार्थनाशकान् (ददती) दद दाने−शतृ छन्दसि। ददमाना। त्यजन्ती (देवपीयून्) अ० ४।३५।७। विदुषां हिंसकान् (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवन्तं पुरुषम् (वृणाना) स्वीकुर्वाणा (पृथिवी) (न) निषेधे (वृत्रम्) धर्मात्मनां वारकं शत्रुम् (शक्राय) शक्तिमते (दध्रे) बहुलं छन्दसि। पा० ७।१।८। लिटो रुडागमः। दधे। धृतास्ति (वृषभाय) बलवते (वृष्णे) वीर्यवते पुरुषाय ॥
विषय
'शक्र, वृषा, वृषभ' राजा
पदार्थ
१. या जो पृथिवी (सर्प अपविजमाना) = सर्प के समान कुटिल पुरुष से भय खाती हुई कुटिल पुरुषों से दूर ही रहना चाहती है, (विमृग्वरी) = विशिष्ट रूप से शुद्ध-पवित्र करनेवाली, (यस्याम्) = जिस पृथिवी पर (अग्नयः) = वे प्रशस्त 'माता-पिता व आचार्य'-रूप अग्नियाँ आसन्-हैं, (ये) = जोकि (अप्सु अन्त:) = प्रजाओं के अन्दर निवास करती हैं ('पिता वै गार्हपत्योनिर्माताग्निर्दक्षिण: स्मृतः । गुरुराहवनीयस्तु साग्नित्रेता गरीयसी')। यह (पृथिवी) = भूमि (देवपीयून्) = देववृत्ति के पुरुषों का हिंसन करनेवाले (दस्यून) = दस्युओं को (पराददती) = दूर करने के हेतु से (इन्द्रं वृणाना) = शत्रुओं के नाशक, जितेन्द्रिय राजा का वरण करती है, (न वृत्रम्) = ज्ञान पर पर्दा डाल देनेवाले विलासी राजा का वरण नहीं करती। २. यह पृथिवी (शक्राय) = शक्तिशाली (वृष्णे) = प्रजाओं पर सुखों का सेचन करनेवाले, (वृषभाय) = श्रेष्ठ राजा के लिए ही (दध्रे) = धारण की जाती है। राजा वही ठीक है जोकि 'शक' है, 'वृषा' है और अतएव 'वृषभ' है। ऐसा ही राजा राष्ट्र-शकट का वहन करने में समर्थ होता है।
भावार्थ
यह पृथिवी कुटिलवृत्ति के, देवों के हिंसक दस्युओं से भय खाती है। यह प्रजाओं में प्रशस्त 'माता, पिता व आचार्य'-रूप अग्नियों से हमारे जीवन को शुद्ध बनाती है। यह 'इन्द्र' का वरण करती है, न कि वृत्र का। इसका शासक वही ठीक है जो 'शक्तिशाली, प्रजाओं पर सुखों का सेचन करनेवाला वश्रेष्ठ' है।
भाषार्थ
(या विमृग्वरी) जो विमृग्वरी (मन्त्र २९) (अप सर्पम्) हट-हट कर सर्पण करती हुई (विजमाना) मानो भयपूर्वक चलती है, (यस्याम्) जिस में कि (अग्नयःआसन्) अग्नियां थीं (ये) जो कि (अप्सु अन्तः) मेघीय जलों में हैं। (देवपीयून् दस्य्न्) देवों की हिंसा करने वाले उपक्षयकारी लोगों को (परा ददती) दूर करती हुई (पृथिवी) पृथिवी, (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवान् पुरुष का (वृणाना) वरण करती है, (वज्रम् न) उन्नति पर आवरण डालने वाले का नहीं। वह पृथिवी (शक्राय) शक्तिशाली, (वृषभाय) श्रेष्ठ, (वृष्णे) सुखों और सम्पत्तियों की वर्षा करने वाले के लिए (दध्रे) परमेश्वर द्वारा धारित की हुई है।
टिप्पणी
[अपसर्पम् = पृथिवी सूर्य की परिक्रमा कर रही है। परिक्रमा करते समय आगे की ओर बढ़ती हुई पृथिवी बीच-बीच में पीछे की ओर हट जा जाती है, और पुनः आगे की ओर बढ़ती है,—पीछे की ओर हटते रहना “अपसर्पम्”१ है। विजमाना= "विजी भयचलनयोः" पृथिवी के चलने में भय का होना इसलिये कहा है क्योंकि लगातार पृथिवी आगे को नहीं बढ़ती जाती, वह बीच-बीच में पीछे की ओर हट-हट कर चलती हैं, मानो आगे बढ़ते रहने में उसे भय प्रतीत होता है। भयपूर्वक परिक्रमा का वर्णन कवितामय है। इसी प्रकार पृथिवी सूर्य की परिक्रमा करती हुई कभी तो सूर्य के समीप हो जाती है, और कभी उस से दूर हट जाती है। शीतकाल में सूर्य समीप होती है, और ग्रीष्मकाल में उस से परे हट कर दूर हो जाती है,– यह भी "अपसर्पम्" है। अग्नयः अप्स्वन्तः = मेघीय जलों में अग्नि विद्युत्-रूप में चमकती है। पृथिवी जब द्रवावस्था में थी उस समय पृथिवी स्वयं प्रकाश रूपा थी। उस समय पृथिवी में आग्नेय ज्वालाएँ उठती थीं,– इन्हें "अग्नयः” कहा है— पराददती = जगत् जीवात्माओं के भोग और अपवर्ग अर्थात् मोक्ष के लिये है। देव कोटि के लोग मोक्ष के अधिकारी होते हैं, वृत्र कोटि के नहीं। जगत् का अन्तिम प्रयोजन है मोक्ष। यह तभी सम्भव है जबकि पृथिवी वृत्रों का परादान अर्थात् संहार करती रहे, और देवों का उद्धार करती रहे। इसलिये पृथिवी मानो इन्द्रकोटि के व्यक्ति को अपना स्वामी बनाती है, वृत्र को नहीं, "इन्द्रश्च सम्राट्" (यजु० ८।३७)। इन्द्रः=परमैश्वर्यवान् “इदि परमैश्वर्ये", सम्राट् =सम्यक् राजा]। [१. सर्प अर्थात् सर्पण है मन्दगति से चलना। पृथिवी यद्यपि महावेग से चलती है (मन्त्र १८), परन्तु इस के वेग पूर्वक चलने की अनुभूति हमें नहीं होती, इस लिये इस के चलने को सर्प अर्थात् सर्पण कहा है।]
विषय
पृथिवी सूक्त।
भावार्थ
(सर्पं) पेट के बल पर सरकने वाले कुटिल सांप से जिस प्रकार सब भय खाते हैं उसी प्रकार (या सर्पं अप विजमाना) जो सर्प के समान कुटिल पुरुष से भय खाती हुई (विमृग्वरी) शुद्ध पवित्र करनेहारी पृथिवी है। (यस्याम्) जिसमें (अग्नयः) वे अग्निएं, ज्ञानज्योति से चमकने वाले, तेजस्वी विद्वान् (ये अप्सु अन्तः) जो जलों के भीतर रहने वाले और्वानलों के समान (अप्सु अन्तः) प्रजाओं के भीतर विद्यमान हैं। वह पृथ्वी (देवपीयून् दस्यून्) देव, विद्वान् श्रेष्ठ पुरुषों के नाशक दस्यु, चोर डाकू पुरुषों को (परा ददती) दूर करती, उनका परित्याग करती हुई (इन्द्रं) सूर्य के समान ऐश्वर्य-शील राजा को अपना पति रूप से वरण करती है और (वृत्रम्) मेघ के समान केवल माया से आवरण करने वाले दुष्ट पुरुष को अपना पति नहीं करती। वह अपने आपको (शक्राय) शक्ति-शाली (वृष्णे) वीर्यवान् (वृषभाय) नाना प्रकार से वीर्य सेचन में समर्थ, बैल के निमित्त गाय जैसे अपने को समर्पित करती है इसी प्रकार समस्त वर्षा जलों के वर्षक सूर्य या मेघ एवं प्रजा के प्रति सुखों के वर्षक राजा के लिये अपने को (दध्रे) धारण करती है, अपने को उसके प्रति सौंप देती है।
टिप्पणी
(प्र०) ‘या आपः सर्प’ इति पदच्छेदः ‘ब्रूसकामितः’। (प्र०) ‘या आपः सर्पन् यतमाना विमृग्वरी’, ‘अग्नयोशः’ (तृ०) ‘ददति’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(या विमृग्वरी विजमाना-अपसर्पम्) जो विशेषरूप से खोजने योग्य पृथिवी भय सा करती हुई आकाश में अपसर्पण करती हुई विराजमान है (यस्याम् अग्नयः आसन् ये सु अन्तः) जिस पृथिवी पर अग्नियाँ हैं जो जलों के भी अन्दर हैं (दस्यून् देवपीयून-पराददति) देवों-विद्वानों के नाशक दस्युओं को दूर करती हुई (न वृत्रम्) शत्रु को न वरती हुई (वृषभाय-वृष्णे शक्राय दधे) वीर्यवान् सुखवर्षक शक्तिमान् जन के लिए अपने को समर्पित करती है ॥३७॥
विशेष
ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Mother Earth
Meaning
Mother Earth which goes on revolving and rotating at high speed, which is worth discovering and researching, in which there are fire energies which are in waters too, which goes on in time, throwing off negative destroyers of positivities, which loves to be with Indra, the powerful sun, not with the covering darkness and evil: such is the earth which sustains and is held in position for the mighty generous giver of showers. (The earth is for the generous brave.)
Translation
She who, cleansing one, trembling away the serpent, on whom were the fires that are within the waters abandoing the god-insulting barbarians, choosing, she the earth, Indra not Vritra, kept herself for the mighty one, the virile bull.
Translation
That mother earth much to be sought after, who moves along gliding in whom the various types of heat exist that are found working in the bodies of living beings, that mother earth who casts away the wicked that revile the righteous, and who prefers virtuous man of great abilities to one who obstructs the good, is established for the powerful, manly and vigorous.
Translation
The purifying motherland is afraid of a person crooked like the serpent. In her reside highly learned persons found among the subjects. She shuns the god-blaspheming ignoble persons, accepts the prosperous king, and not a mean, low person, as her lord, and remains under the sway of the strong, mighty, powerful king.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३७−(या) पृथिवी (अप सर्पम्) अपसर्पणेन अपसरणेन तथा यथा (विजमाना) ओविजी भयचलनयोः−शानच्। चलन्ती (विमृग्वरी) म० २९। विविधमन्वेषणीयां (यस्याम्) पृथिव्याम् (आसन्) सन्ति (अग्नयः) अग्नितापाः (ये) (अप्सु) आपः=आप्ताः प्रजाः−दयानन्दभाष्ये, यजु० ६।२७। प्रजासु। प्राणिषु (अन्तः) मध्ये (परा) दूरे (दस्यून्) अ० २।१४।५। परपदार्थनाशकान् (ददती) दद दाने−शतृ छन्दसि। ददमाना। त्यजन्ती (देवपीयून्) अ० ४।३५।७। विदुषां हिंसकान् (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवन्तं पुरुषम् (वृणाना) स्वीकुर्वाणा (पृथिवी) (न) निषेधे (वृत्रम्) धर्मात्मनां वारकं शत्रुम् (शक्राय) शक्तिमते (दध्रे) बहुलं छन्दसि। पा० ७।१।८। लिटो रुडागमः। दधे। धृतास्ति (वृषभाय) बलवते (वृष्णे) वीर्यवते पुरुषाय ॥
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