अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 43
ऋषिः - अथर्वा
देवता - भूमिः
छन्दः - विराडास्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - भूमि सूक्त
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यस्याः॒ पुरो॑ दे॒वकृ॑ताः॒ क्षेत्रे॒ यस्या॑ विकु॒र्वते॑। प्र॒जाप॑तिः पृथि॒वीं वि॒श्वग॑र्भा॒माशा॑माशां॒ रण्यां॑ नः कृणोतु ॥
स्वर सहित पद पाठयस्या॑: । पुर॑: । दे॒वऽकृ॑ता: । क्षेत्रे॑ । यस्या॑: । वि॒ऽकु॒र्वते॑ । प्र॒जाऽप॑ति: । पृ॒थि॒वीम् । वि॒श्वऽग॑र्भाम् । आशा॑म्ऽआशाम् । रण्या॑म् । न॒: । कृ॒णो॒तु॒ ॥१.४३॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्याः पुरो देवकृताः क्षेत्रे यस्या विकुर्वते। प्रजापतिः पृथिवीं विश्वगर्भामाशामाशां रण्यां नः कृणोतु ॥
स्वर रहित पद पाठयस्या: । पुर: । देवऽकृता: । क्षेत्रे । यस्या: । विऽकुर्वते । प्रजाऽपति: । पृथिवीम् । विश्वऽगर्भाम् । आशाम्ऽआशाम् । रण्याम् । न: । कृणोतु ॥१.४३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राज्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(यस्याः) जिसके (पुरः) नगर [राजभवन, गढ़ आदि] (देवकृताः) विद्वानों के बनाये हैं, (यस्याः) जिसके (क्षेत्रे) खेत में [मनुष्य] (विकुर्वते) विविध कर्म करते हैं। (प्रजापतिः) प्रजापति [परमेश्वर] (विश्वगर्भाम्) सब के गर्भ (पृथिवीम्) पृथिवी को (आशामाशाम्) दिशा-दिशा में (नः) हमारे लिये (रण्याम्) रमणीय (कृणोतु) करे ॥४३॥
भावार्थ
जिस भूमि पर धर्मात्मा पुरुष राजभवन, कार्यालय आदि बनाकर अनेक प्रकार से उन्नति के काम करते हैं और जिस में से अनेक रत्न उत्पन्न होते हैं, उस पर परमात्मा हमें धर्म में स्थिर रखकर सर्वत्र प्रसन्न रक्खे ॥४३॥
टिप्पणी
४३−(यस्याः) (पुरः) नगर्य्यः। राजभवनदुर्गादयः (देवकृताः) विद्वद्भिर्निर्मिताः (क्षेत्रे) प्रदेशे (यस्याः) (विकुर्वते) विविधकर्माणि कुर्वन्ति मनुष्याः (प्रजापतिः) प्रजापालकः परमेश्वरः (पृथिवीम्) (विश्वगर्भाम्) सर्वस्य गर्भभूताम् (आशामाशाम्) प्रतिदिशम् (रण्याम्) अ० ९।३।६। रमणीयाम्−निरु० ६।३३। (नः) अस्मभ्यम् (कृणोतु) करोतु ॥
विषय
नगर व क्षेत्र
पदार्थ
१. (यस्या:) = जिस पृथिवी के (पुरः) = नगर (देवकृता:) = ज्ञानी [समझदार] शिल्पियों द्वारा बनाये गये हैं-अतएव जिनमें स्वास्थ्य आदि के साधनों की सुव्यवस्था है। (यस्याः) = जिस पृथिवी के (क्षेत्रे) = खेतों में (विकुर्वते) = वैश्य लोग विशिष्ट कृषि कमों को करते हैं, उस (विश्वगर्भाम्) = सब प्राणियों को अपने में धारण करनेवाली (पृथिवीम्) = पृथिवी को (आशाम् आशाम्) = प्रत्येक दिशा में (प्रजापति:) = वे प्रभु (न:) = हमारे लिए (रण्यां कृणोतु) = रमणीय करें।
भावार्थ
इस पृथिवी पर उत्तम नगरों का देवों द्वारा निर्माण हो । यहाँ क्षेत्रों में वैश्य विविध बीज वपन आदि कर्मों को करें। प्रभु इस पृथिवी को हमारे लिए सर्वत: रमणीय बनाएँ।
भाषार्थ
(यस्याः) जिस पृथिवी के (पुरः) नगर (देवकृताः) दिव्यशिल्पियों द्वारा निर्मित हैं, (यस्याः क्षेत्रे) जिस के खेतों में (विकुर्वते) देवलोग विविध कर्मों को करते हैं। (प्रजापतिः) समग्र प्रजाओं का स्वामी या रक्षक अर्थात् परमेश्वर या अधिष्ठाता (मन्त्र ११), (विश्वगर्भाम् पृथिवीम्) सब पदार्थों की उत्पादिका पृथिवी को (नः) हमारे लिये (आशाम्, आशाम्) प्रत्येक दिशा में (रण्याम्) रमणीय अर्थात् सुन्दररूपा (कृणोतु) करे।
टिप्पणी
[समग्र पृथिवी का अधिष्ठाता इन्द्रेन्द्र अर्थात् सम्राटों का सम्राट्, पृथिवी को शोभा१ सम्पन्न करे। पृथिवी पर नगर उत्तमशिल्पियों द्वारा निर्मित होने चाहियें] [१. स्थान-स्थान पर उद्यान, कूप, तालाब, क्रीड़ा भूमियां आदि होनी चाहियें।]
विषय
पृथिवी सूक्त।
भावार्थ
(यस्याः) जिसकी पीठ पर (देवकृताः) देव-शिल्पी या राजाओं के बनवाए (पुरः) बड़े नगर और कोट खड़े हैं। और (यस्याः क्षेत्रे) जिसके खेत में लोग (विकुर्वते) परस्पर एक दूसरे से बिगड़ कर नाना युद्ध करते हैं। (विश्वगर्भाम्) समस्त विश्व को अपने गर्भ में धारण करने वाली इस (पृथिवीम्) पृथ्वी को (नः) हमारे लिये (प्रजापतिः) प्रजा का पालक परमात्मा और (आशाम् आशाम्) प्रत्येक दिशा में (रण्याम्) रमण करने योग्य, सुन्दर विहार योग्य (कृणोतु) बनावे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(यस्या:-देवकृताः पुरः) जिस पृथिवी के पृष्ठ पर विद्वान् कलाकारों के बनाये नगर नगरियाँ होती हैं (यस्याः-क्षेत्रे विकुर्वते) जिस पृथिवी के ऊपर खेत में कृषक विविध कृषि कर्म करते हैं (प्रजापतिः-नः-विश्वगर्भाम् आशाम्-आशां रयां पृथिवीं कृणोतु) प्रजापति परमात्मा हमारे लिए सब जिसके गर्भ में हो सबकी उत्पति दिशा-दिशा में हो रमणीया पृथिवी को बना दें ॥४३॥
विशेष
ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Mother Earth
Meaning
Whose cities are created, designed and built by divine architects, in whose fields various productive projects are pursued and perfected, may Prajapati, lord of the people, render that Earth Mother of the world in every place in every direction happy and joyous for us.
Translation
Whose are the god-made strongholds; in whose field (men) fall_out — the earth, womb of everything, let Prajapati make pleasant to us, spot by spot.
Translation
May God, the Lord of creature and creation make that mother earth of ours pleasant in every quarter whose cities are the work of learned men, and on whose land men do various types of their ventures.
Translation
Whose castles and fortresses have been constructed by efficient engineers, in each province of whose men work hard for advancement, may God, the Lord of Life make our Motherland, who beareth all precious things in her womb, pleasant to us on every side!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४३−(यस्याः) (पुरः) नगर्य्यः। राजभवनदुर्गादयः (देवकृताः) विद्वद्भिर्निर्मिताः (क्षेत्रे) प्रदेशे (यस्याः) (विकुर्वते) विविधकर्माणि कुर्वन्ति मनुष्याः (प्रजापतिः) प्रजापालकः परमेश्वरः (पृथिवीम्) (विश्वगर्भाम्) सर्वस्य गर्भभूताम् (आशामाशाम्) प्रतिदिशम् (रण्याम्) अ० ९।३।६। रमणीयाम्−निरु० ६।३३। (नः) अस्मभ्यम् (कृणोतु) करोतु ॥
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