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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - भूमि सूक्त
    264

    यस्यां॑ समु॒द्र उ॒त सिन्धु॒रापो॒ यस्या॒मन्नं॑ कृ॒ष्टयः॑ संबभू॒वुः। यस्या॑मि॒दं जिन्व॑ति प्रा॒णदेज॒त्सा नो॒ भूमिः॑ पूर्व॒पेये॑ दधातु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्या॑म् । स॒मु॒द्र: । उ॒त । सिन्धु॑: । आप॑: । यस्या॑म् । अन्न॑म् । कृ॒ष्टय॑: । स॒म्ऽब॒भू॒वु: । यस्या॑म् । इ॒दम् । जिन्व॑ति । प्रा॒णत् । एज॑त् । सा । न॒: । भूमि॑: । पू॒र्व॒ऽपेये॑ । द॒धा॒तु॒ ॥१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्यां समुद्र उत सिन्धुरापो यस्यामन्नं कृष्टयः संबभूवुः। यस्यामिदं जिन्वति प्राणदेजत्सा नो भूमिः पूर्वपेये दधातु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्याम् । समुद्र: । उत । सिन्धु: । आप: । यस्याम् । अन्नम् । कृष्टय: । सम्ऽबभूवु: । यस्याम् । इदम् । जिन्वति । प्राणत् । एजत् । सा । न: । भूमि: । पूर्वऽपेये । दधातु ॥१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राज्य की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (यस्याम्) जिस [भूमि] पर (समुद्रः) समुद्र (उत) और (सिन्धुः) नदी और (आपः) जलधाराएँ [झरने कूप आदि] हैं, (यस्याम्) जिस पर (अन्नम्) अन्न और (कृष्टयः) खेतियाँ (संबभूवुः) उत्पन्न हुई हैं। (यस्याम्) जिस पर (इदम्) यह (प्राणत्) श्वास लेता हुआ और (एजत्) चेष्टा करता हुआ [जगत्] (जिन्वति) चलता है, (सा भूमिः) वह भूमि (नः) हमें (पूर्वपेये) श्रेष्ठों से रक्षा योग्य पद पर (दधातु) ठहरावे ॥३॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य समुद्र, नदी, कूप और वृष्टि के जल तथा अन्य खेती आदि से नौका, यान, कलायन्त्र आदि में अनेक प्रकार उपकार लेते हैं, वे सब जगत् को आनन्द देकर श्रेष्ठ पद पाते हैं ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(यस्याम्) भूम्याम् (समुद्रः) जलौघः (उत) अपि च (सिन्धुः) नदी (आपः) जलधाराः (अन्नम्) भोज्यम् (कृष्टयः) सस्यभूभवः (संबभूवुः) उत्पन्ना बभूवुः (यस्याम्) (इदम्) दृश्यमानम् (जिन्वति) गच्छति−निघ० २।१४। (प्राणत्) श्वासं कुर्वत् (एजत्) चेष्टायमानं जगत् (सा) (नः) अस्मान् (भूमिः) पृथिवी (पूर्वपेये) अचो यत्। पा० ३।१।९७। पा० रक्षणे−यत्। ईद्यति। पा० ६।४।६५। आत ईत्त्वम्। पूर्वैः श्रेष्ठै रक्षितुं योग्ये पदे (दधातु) स्थापयतु ॥

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    विषय

    यस्यामन्नं कृष्टय: संबभूवुः

    पदार्थ

    १. (यस्याम्) = जिस पृथिवी में (समुद्रः) = समुद्र हैं, (उत) = और (सिन्धुः) = प्रवाहमयी नदियाँ हैं, (आप:) = झील आदि के रूप में जल हैं, (यस्याम्) = जिसमें (कृष्टयः) = श्रमशील कृषकजन (अन्नं संबभूवः) = अन्न उत्पन्न करते हैं। २. (यस्याम्) = जिस पृथिवी में (इदम्) = यह (प्राणत् एजत्) = प्राणधारण करनेवाले गतिशील प्राणी (जिन्वति) = अन्न-जल से तृप्ति का अनुभव करते हैं, (सा) = वह (भूमि:) = भूमि (न:) = हमें (पूर्वपेये दधातु) = पालनात्मक व पूरणात्मक [पू पालनपूरणयोः] दुग्ध-रस आदि पेय पदार्थों में [पयः पशूनां रसमोषधीनाम्] (दधातु) = धारण करे। हमें दुग्ध-रस आदि प्राप्त कराके पुष्टि देनेवाली हो।

    भावार्थ

    प्रभु ने इस पृथिवी पर समुद्रों, नदियों व झोल आदि द्वारा पानी की सुव्यवस्था की है। यहाँ श्रमशील मनुष्य अन्न के उत्पादन का ध्यान करते हैं और अन्न-रस द्वारा तृप्ति का अनुभव करते हुए अपना धारण करते है।

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    भाषार्थ

    (यस्याम्) जिस पृथिवी में (समुद्रः, उत, सिन्धुः, आपः) समुद्र और स्यन्दन करने वाली नदियां, तथा कूप, झीलें तथा वर्षा जल है, (यस्याम्) जिस में (अन्नम्) अन्न तथा (कृष्टयः१) खेतियां (संबभूवुः) पर्याप्त होती रही है। (यस्याम्) जिस में (इदम् एजत् प्राणत्) यह चलता फिरता प्राणधारी जगत् (जिन्वति) संतुष्ट हुआ विचरता है, (साः भूमिः) वह उत्पादिका भूमि (नः) हमें (पूर्वपेये) सम्पूर्ण प्रकार के खाद्य पेय अन्नों में (दधातु) स्थापित करे।

    टिप्पणी

    [मन्त्र ३ में भूमि में समुद्र आदि की सत्ता के वर्णन से भूमि का अभिप्राय समग्र पृथिवी है, न कि संकुचित राष्ट्र भूमिया। मन्त्र २ में भी ऊंचे, नीचे तथा सम प्रदेशों के बाहुल्य के वर्णन द्वारा समग्र पृथिवी ही अभिप्रेत है। जिन्वति= जिवि प्रीणने। पूर्वपेये; पूर्व=पूर्व पूरणे]। [१. तथा कृष्टयः मनुष्यनाम (निघं १।३), सम्भवतः कृषकाः।]

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    विषय

    पृथिवी सूक्त।

    भावार्थ

    (यस्यां) जिस भूमि पर (समुद्रः) समुद्र (उत) और (सिन्धुः) बहने वाले नद नाले और समुद्र और नाना प्रकार के (आपः) जल हैं और (यस्याम्) जिस पर (अन्नम्) अन्न, (कृष्टयः) और नाना खेतियां या नाना मनुष्य (संबभूवुः) उत्पन्न होते हैं। (यस्याम्) जिस पर (इदम्) यह (प्राणत्, एजत्) जीता जागता, चलता फिरता संसार (जिन्वति) अन्न जल खा पीकर तृप्त होता और प्राण धारण करता है। (सा भूमिः) वह भूमि (नः) हमें (पूर्वपेये) पूर्व पुरुषों से प्राप्त करने योग्य उत्तम पद पर (दधातु) स्थापित करे अथवा हमें (पूर्वपेये) प्रथम पान करने योग्य उत्तम जल, दुग्ध और औषधि रस प्रदान करे।

    टिप्पणी

    (च०) ‘पूर्वपेयम्’ इति मै० सं०। (द्वि०) ‘यस्यां देवा अमृतमन्वविन्दन्’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (यस्यां समुद्र:-उत-सिन्धुः आपः) जिस पृथिवी पर समुद्र और स्यन्दशील बहने वाली नदी तथा प्रसृत जल हैं (यस्याम्अन्नं-कृष्टयः सम्बभूवुः) जिस पृथिवी पर अन्न अदनीय पदार्थ तथा अन्ता मनुष्यादि प्राणी “कृष्टयः- मनुष्यनाम" (निघं० २।३) यहां सामान्य से मनुष्य आदि प्राणी गृहीत हैं (यस्याम्-इदं प्राणत्-एजत्-जिन्वति) जिस पृथिवी पर यह प्राण लेता हुआ या चलता हुआ जड जङ्गम तृप्त होता है (सा भूमि:-पूर्वपेये नः-दधातु) वह भूमि-भूभागवाली पूर्वपेय-प्रथम आरम्भ सृष्टि में पान करने योग्य स्वरस में हमें धारण करे- धारण करती है अथवा पूर्वपेय श्रेष्ठ पेयरस के पान में धारण करे ॥३॥

    टिप्पणी

    यह पाठ होश्यारपुर सम्पादित का शुद्ध है यह अन्यत्र भी दिया है परन्तु कहीं पर 'बध्यतः' पाठ है वहां अर्थ की क्लिष्ट कल्पना करनी पड़ती है । जैसे क्षेमकरण जी के भाष्य में - 'असं' में मुम्, 'बध्यत' में यकार पुनः लिङ्गव्यत्यय । "नञो ग्रच्कावशक्तौ” ( अष्टा० ६ । २ । १५७ ) इससे नञ् से उत्तर ‘संम्बाधं’ अच् प्रत्यायान्त उत्तर पद श्रन्तोदात्त है जैसे 'सञ्जयः' ।

    विशेष

    ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Song of Mother Earth

    Meaning

    Where seas roll and rivers flow, lakes abound and showers fall incessantly, where food is plenty and people live in comfort, where a moving, breathing, vibrant world of life exists in wide variety, may that Mother Earth establish us in abundant peace and prosperity.

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    Translation

    On whom (are) the ocean and the river (sindhu), the waters; on whom food, plowings, came into being; on whom quickens this that breathes, that stirs —let that earth(bhumi) set us in first drinking.

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    Translation

    In whom exist seasy great rivers and other receptacles of water, food and forms, and in whom this whole world endowed with breath and motion goes about its business, may she advance us to a position that deserves, to be protected by the great.

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    Translation

    In whom the sea, canals, lakes, wells, tanks, in whom our food and corn-fields had their being, in whom this all that breathes and moves is active, may this motherland of ours grant us all excellent eatable and drink¬ able objects like milk, fruits, water and cereals.

    Footnote

    पूर्वपेये may also mean foremost rank and station.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(यस्याम्) भूम्याम् (समुद्रः) जलौघः (उत) अपि च (सिन्धुः) नदी (आपः) जलधाराः (अन्नम्) भोज्यम् (कृष्टयः) सस्यभूभवः (संबभूवुः) उत्पन्ना बभूवुः (यस्याम्) (इदम्) दृश्यमानम् (जिन्वति) गच्छति−निघ० २।१४। (प्राणत्) श्वासं कुर्वत् (एजत्) चेष्टायमानं जगत् (सा) (नः) अस्मान् (भूमिः) पृथिवी (पूर्वपेये) अचो यत्। पा० ३।१।९७। पा० रक्षणे−यत्। ईद्यति। पा० ६।४।६५। आत ईत्त्वम्। पूर्वैः श्रेष्ठै रक्षितुं योग्ये पदे (दधातु) स्थापयतु ॥

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