अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 38
ऋषिः - अथर्वा
देवता - भूमिः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा जगती
सूक्तम् - भूमि सूक्त
56
यस्यां॑ सदोहविर्धा॒ने यूपो॒ यस्यां॑ निमी॒यते॑। ब्र॒ह्माणो॒ यस्या॒मर्च॑न्त्यृ॒ग्भिः साम्ना॑ यजु॒र्विदः॑। यु॒ज्यन्ते॒ यस्या॑मृ॒त्विजः॒ सोम॒मिन्द्रा॑य॒ पात॑वे ॥
स्वर सहित पद पाठयस्या॑म् । स॒दा॒ह॒वि॒र्धा॒ने इति॑ स॒द॒:ऽह॒वि॒र्धा॒ने । यूप॑: । यस्या॑म् । नि॒ऽमी॒यते॑ । ब्र॒ह्माण॑: । यस्या॑म् । अर्च॑न्ति । ऋ॒क्ऽभि: । साम्ना॑ । य॒जु॒:ऽविद॑: । यु॒ज्यन्ते॑ । यस्या॑म् । ऋ॒त्विज॑: । सोम॑म् । इन्द्रा॑य । पात॑वे ॥१.३८॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्यां सदोहविर्धाने यूपो यस्यां निमीयते। ब्रह्माणो यस्यामर्चन्त्यृग्भिः साम्ना यजुर्विदः। युज्यन्ते यस्यामृत्विजः सोममिन्द्राय पातवे ॥
स्वर रहित पद पाठयस्याम् । सदाहविर्धाने इति सद:ऽहविर्धाने । यूप: । यस्याम् । निऽमीयते । ब्रह्माण: । यस्याम् । अर्चन्ति । ऋक्ऽभि: । साम्ना । यजु:ऽविद: । युज्यन्ते । यस्याम् । ऋत्विज: । सोमम् । इन्द्राय । पातवे ॥१.३८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राज्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(यस्याम्) जिस [भूमि] पर (सदोहविर्धाने) सभा और अन्नस्थान हैं, (यस्याम्) जिस पर (यूपः) जयस्तम्भ (निमीयते) गाड़ा जाता है। (यस्याम्) जिस पर (ब्रह्माणः) ब्रह्मा [वेदवेत्ता] लोग (ऋग्भिः) ऋचाओं [वेदवाणियों] से और (यजुर्वेदः) यजुर्वेदी [परमात्मा देव की पूजा जाननेवाले] लोग (साम्ना) मोक्षज्ञान के साथ [परमात्मा को] (अर्चन्ति) पूजते हैं। (यस्याम्) जिस पर (ऋत्विजः) सब ऋतुओं में यज्ञ [परमात्मा का पूजन] करनेवाले [योगी जन] (इन्द्राय) इन्द्र [ऐश्वर्ययुक्त जीव] के लिये (सोमम्) सोम [अमृत, मोक्षसुख] (पातवे) पान करने को (युञ्जन्ते) समाधि लगाते हैं ॥३८॥
भावार्थ
जिस भूमि पर जितेन्द्रिय वीर पुरुष शत्रुओं को जीतते हैं, और वेदज्ञानी, योगीन्द्र परमात्मा के तत्त्वज्ञान से मोक्ष आनन्द भोगते हैं, उस भूमि पर हम अपना इष्ट सिद्ध करें। मन्त्र ३८ और ३९ का अन्वय मन्त्र ४० के साथ है ॥३८॥
टिप्पणी
३८−(यस्याम्) भूम्याम् (सदोहविर्धाने) षद्लृ गतौ−असुन्, हु दानादानादनेषु−इसि। सभाऽन्नस्थानं च द्वे (यूपः) जयस्तम्भः (यस्याम्) (निमीयते) निक्षिप्यते (ब्रह्माणः) वेदवेत्तारः (यस्याम्) (अर्चन्ति) पूजयन्ति परमात्मानम् (ऋग्भिः) वेदवाग्भिः (साम्ना) मोक्षज्ञानेन (यजुर्विदः) अर्तिपॄवपियजि०। उ० २।११७। यज देवपूजायाम्−उसि+विद ज्ञाने−क्विप्। परमात्मपूजाज्ञातारः (युञ्जन्ते) युज समाधौ। समादधति (यस्याम्) (ऋत्विजः) अ० ६।२।१। सर्वेषु ऋतुषु परमात्मपूजनशीलाः (सोमम्) अमृतम्। मोक्षसुखम् (इन्द्राय) ऐश्वर्यवते पुरुषाय (पातवे) पा पाने−तवेन्। पानं कर्तुम् ॥
विषय
आदर्श भूमि
पदार्थ
१. (यस्याम्) = जिस भूमि पर (सदोहविर्धाने) = सभामण्डप व यज्ञस्थलियाँ बनायी जाती हैं, (यस्याम्) = जिसपर (यूप:) = यज्ञस्तम्भ (निमीयते) = निश्चित मानपूर्वक बनाया जाता है। (यस्याम्) = जिसपर (ब्रह्माण:) = वेदज्ञ (विद्वान् ऋग्भिः) = ऋचाओं के द्वारा तथा (साम्ना) = साममन्त्रों के द्वारा (अर्चन्ति) = प्रभु का अर्चन करते हैं 'ऋग्भिः 'विज्ञान का संकेत करता है तथा 'साम्ना' श्रद्धा का। प्रभु का उपासन विज्ञान व श्रद्धा के समन्वय से ही होता है। २. (यस्याम्) = जिस पृथिवी पर (यजुर्विदः) = यजुर्मन्त्रों के ज्ञाता (ऋत्विज:) = ऋतु के अनुसार यज्ञ करनेवाले लोग (युज्यन्ते) = अपने यज्ञादि कर्मों में युक्त होते हैं तथा (सोमं पातवे) = शरीर में सोम के पान के लिए (इन्द्राय) = परमैश्वर्यशाली, शत्रुविद्रावक प्रभु के लिए (युज्यन्ते) = योग में प्रवृत्त होते हैं। प्रभु का स्मरण वासनाविनाश के द्वारा हमें सोमपान के योग्य बनाता है।
भावार्थ
एक आदर्श राष्ट्र में सभामण्डप व यज्ञस्थलियाँ होती हैं। यहाँ यज्ञस्तम्भों का निर्माण होकर ऋत्विजों द्वारा यज्ञ किये जाते हैं, ज्ञानियों द्वारा प्रभु का अर्चन होता है तथा शरीर में सोमरक्षण के लिए शत्रुविद्रावक प्रभु से चित्तवृत्ति का सम्पर्क बनाया जाता है।
भाषार्थ
(यस्याम्) जिस भूमि में (सदः-हविर्धाने) परस्पर मिलकर बैठने तथा अतिथि देवों के लिये कमरे, और खाद्य-पेय वस्तुओं के रखने का कमरा है, (यस्याम्) जिस में (यूपः) यज्ञस्तम्भ (निमीयते) गाड़ा जाता है। (यस्याम्) जिस में (ब्रह्माणः) वेदज्ञ (ऋग्भिः, साम्ना) ऋचायों और सामगानों द्वारा (अर्चन्ति) परमेश्वर की स्तुतियां करते हैं, तथा (यजुर्विदः ऋत्विजः) यजुर्वेद के जानने वाले ऋत्विक् (इन्द्राय पातवे) इन्द्र के पीने के लिये (सोमम्) सोमरस को (युज्यन्ते) जुटाते हैं। अथवा "यजुर्वेद के जानने वाले नियुक्त किये जाते हैं, इन्द्र को सोमरस पिलाने के लिये"।
टिप्पणी
[इन्द्राय = मन्त्र ३७ में इन्द्र द्वारा सम्राट् का कथन हुआ है। प्रकरणानुसार तथा राजनैतिक दृष्टि से भी (१२।१) भी इन्द्र द्वारा सम्राट का ही वर्णन समझना चाहिये। सोमपान द्वारा सम्राट् शक्ति सम्पन्न होता है शक्राय (मन्त्र ३७)। सदोहविर्धाने = शालानिर्माण में अथर्ववेद का मन्त्र इस सम्बन्ध में प्रकाश डालता है। यथा– "हविर्धानमग्निशालं पत्नीनां सदनं सदः। सदो देवतामसि देवि शाले" (अथर्व० ९।३।७)। मन्त्र में शाला में हविर्धान, अग्निशाल अर्थात् पाक के लिये कमरा या यज्ञशाला, पत्नीनां सदः, तथा देवानां सदः का वर्णन हुआ है]।
विषय
पृथिवी सूक्त।
भावार्थ
(यस्याम्) जिस पृथिवी पर यज्ञ में (सदोहविर्धाने) ‘सद’ नामक मण्डप और ‘हविर्धान’ नाम सोम शकट या सोमपात्र बनाये जाते हैं और (यस्यां) जिसमें (यूपः निमीयते) यज्ञ का स्तम्भ ‘यूप’ गाड़ा जाता हैं और (यस्याम्) जिसमें (यजुर्विदः) यजुर्वेद के यज्ञ वेत्ता (ब्रह्माणः) ब्रह्मवेत्ता, वेदज्ञानी विद्वान् (ऋग्भिः) ऋचाओं से और (साम्ना) साम वेद से (अर्चन्ति) इष्टदेव की स्तुति करते हैं। और (यस्याम्) जिस पृथ्वी पर (ऋत्विजः) ऋतु-अनुकूल यज्ञ करनेहारे ऋत्विग् लोग (इन्द्राय) इन्द्र, राजा, यजमान एवं आत्मा को (सोमम् पातवे) सोम पान कराने के लिये (युज्यन्ते) एकत्र होते और समाहित होकर आध्यात्म यज्ञ करते हैं। ‘युज्यन्ते’ इससे यज्ञ की अध्यात्म व्याख्या पर भी प्रकाश पड़ता है।
टिप्पणी
(पं०) युज्यन्तेस्या ऋत्यवः [ ? ] इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(यस्यां सदः-हविर्धाने यस्यां यूप:-निमीयते) जिस पृथिवी पर देव स्थान-यज्ञ मण्डप "यस्मिन् विश्वेदेवा आसीदस्तस्मात् सदः" (शत० ३।५।३।५) और हविर्धान शकट जिस पृथिवी पर यज्ञ स्तम्भ गाडा जाता है (यस्यां ब्रह्माणः-ऋग्भिः-साम्ना यजुर्विदः-अर्चन्ति) जिस पृथिवी पर ब्रह्मा ब्रह्मज्ञानी जन ऋग्वेद मन्त्रों से सामवेद मन्त्रों से और यजुर्वेद के जानने वाले यजुर्वेद मन्त्रों से अर्चना स्तुति प्रार्थना उपासना करते हैं (यस्याम्-ऋत्विजः-इन्द्राय सोमं पातवे युज्यन्ते) जिस पृथिवी पर अग्निहोत्र यज्ञ में ऋत्विक् जन इन्द्र-यजमान के लिए सोम पान कराने को युक्त होते हैं-संयुक्त होते या सोमयाग में प्रवृत्त होते हैं वह ऐसी पृथिवी है ॥३८॥
विशेष
ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Mother Earth
Meaning
Whereon halls of residence and stores of havi are built for congregations of yajna-performers, where pillars are designed and raised for the yajna sessions, where sagely scholars of Yajurveda worship the Lord of Universe with Rks and Samans, where high priests engage in yajna and distil the soma for oblations to Indra, Lord Omnipotent: such is our Mother Earth.
Translation
On whom are the seat, and oblation-holder; on whom the sacrificial post is planted; on whom worshipers praise with verses, with the chant, knowing the saericial formulas: on whom are joined the priests for Indra to drink the soma;
Translation
This is that mother earth who abounds in places for assemblies for pious works and granaries on whom triumphal posts are erected at Yajna, on whom man versed in Vedic speech of Yajna praise God with the hymns of Rig and Saman, on whom proficient in worship and Yoga method and procedures of Yajna go into traunce to give the soul a foretaste of the state of salvation.
Translation
On whom are erected Assembly halls and store-rooms for corn. On whom is hoisted the national flag of victory. On whom the Yaju-knowing Brahmanas worship God by reciting Rigvedic hymns and chanting the psalms of the Samaveda. On whom the Yogis, the worshipers of God in all seasons, resort to smadhi for the attainment of salvation for the soul.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३८−(यस्याम्) भूम्याम् (सदोहविर्धाने) षद्लृ गतौ−असुन्, हु दानादानादनेषु−इसि। सभाऽन्नस्थानं च द्वे (यूपः) जयस्तम्भः (यस्याम्) (निमीयते) निक्षिप्यते (ब्रह्माणः) वेदवेत्तारः (यस्याम्) (अर्चन्ति) पूजयन्ति परमात्मानम् (ऋग्भिः) वेदवाग्भिः (साम्ना) मोक्षज्ञानेन (यजुर्विदः) अर्तिपॄवपियजि०। उ० २।११७। यज देवपूजायाम्−उसि+विद ज्ञाने−क्विप्। परमात्मपूजाज्ञातारः (युञ्जन्ते) युज समाधौ। समादधति (यस्याम्) (ऋत्विजः) अ० ६।२।१। सर्वेषु ऋतुषु परमात्मपूजनशीलाः (सोमम्) अमृतम्। मोक्षसुखम् (इन्द्राय) ऐश्वर्यवते पुरुषाय (पातवे) पा पाने−तवेन्। पानं कर्तुम् ॥
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