अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 6
ऋषिः - अथर्वा
देवता - भूमिः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा जगती
सूक्तम् - भूमि सूक्त
216
वि॑श्वंभ॒रा व॑सु॒धानी॑ प्रति॒ष्ठा हिर॑ण्यवक्षा॒ जग॑तो नि॒वेश॑नी। वै॑श्वान॒रं बिभ्र॑ती॒ भूमि॑र॒ग्निमिन्द्रऋ॑षभा॒ द्रवि॑णे नो दधातु ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒श्व॒म्ऽभ॒रा । व॒सु॒ऽधानी॑ । प्र॒ति॒ऽस्था । हिर॑ण्यऽवक्षा: । जग॑त: । नि॒ऽवेश॑नी । वै॒श्वा॒न॒रम् । बिभ्र॑ती । भूमि॑: । अ॒ग्निम् । इन्द्र॑ऽऋषभा । द्रवि॑णे । न॒: । द॒धा॒तु॒ ॥१.६॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वंभरा वसुधानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षा जगतो निवेशनी। वैश्वानरं बिभ्रती भूमिरग्निमिन्द्रऋषभा द्रविणे नो दधातु ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वम्ऽभरा । वसुऽधानी । प्रतिऽस्था । हिरण्यऽवक्षा: । जगत: । निऽवेशनी । वैश्वानरम् । बिभ्रती । भूमि: । अग्निम् । इन्द्रऽऋषभा । द्रविणे । न: । दधातु ॥१.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राज्य की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(विश्वम्भरा) सब को सहारा देनेवाली, (वसुधानी) धनों की रखनेवाली (प्रतिष्ठा) दृढ़ आधार (हिरण्यवक्षाः) सुवर्ण छाती में रखनेवाली, (जगतः) चलनेवाले [उद्योगी] की (निवेशनी) सुख देनेवाली, (वैश्वानरम्) सब नरों के हितकारी (अग्निम्) अग्नि [समान प्रतापी मनुष्य] की (बिभ्रती) पोषण करनेवाली, (इन्द्रऋषभा) इन्द्र [परमात्मा वा मनुष्य वा सूर्य] को प्रधान माननेवाली (भूमिः) भूमि (द्रविणे) बल [वा धन] के बीच (नः) हम को (दधातु) रक्खे ॥६॥
भावार्थ
जो मनुष्य उद्योग करते हैं, वे भूपति होकर इस वसुधा पृथिवी पर सोना-चाँदी आदि की प्राप्ति से बली और धनी होकर सुख पाते हैं ॥६॥
टिप्पणी
६−(विश्वम्भरा) संज्ञायां भृतॄवृजि०। पा०। ३।२।४६। विश्व+डुभृञ् धारणपोषणयोः−खच्, मुम्। सर्वधात्री (वसुधानी) धनानां धर्त्री (प्रतिष्ठा) दृढाधारभूता (हिरण्यवक्षाः) सुवर्णादीनि वक्षसि मध्ये यस्याः सा (जगतः) जङ्गमस्य गतिमतः पुरुषस्य (निवेशनी) सुखस्य प्रवेशयित्री दात्री (वैश्वानरं) सर्वनरहितम् (बिभ्रती) पोषयन्ती (भूमिः) (अग्निम्) अग्निवत्प्रतापिनं मनुष्यम् (इन्द्रऋषभा) इन्द्रः परमेश्वरो मनुष्यः सूर्यो वा ऋषभः। प्रधानो यस्याः सा (द्रविणे) बले−निघ० २।९। धने−निघ० २।१०। (नः) अस्मान् (दधातु) धरतु ॥
विषय
'वसुधानी हिरण्यवक्षा:' पृथिवी
पदार्थ
१. यह (भूमि:) = पृथिवी (विश्वंभरा) = सबका भरण करनेवाली है, (वसुधानी) = निवास के लिए आवश्यक सब द्रविणों का धारण करनेवाली है, (प्रतिष्ठा) = सबका आधार है, (हिरण्यवक्षा:) = सारे जगत् को बसानेवाली है। २. (वैश्वानरं अग्रिं बिभ्रती) = उत्तम अन्न व दुग्ध की समिधाओं व आहुतियों द्वारा हमारी जाठराग्नि का भरण करती हुई यह (इन्द्रऋषभा) = सूर्यरूप ऋषभवाली पृथिवी (न:) = हमें (द्रविणे दधातु) = धनों में धारण करे। पृथिवी 'गौ' है, सूर्य उसका 'ऋषभ' है। जैसे ऋषभ गौ में शक्ति का सेचन करता है, इसीप्रकार सूर्य इस पृथिवी में वृष्टिजल का सेचन करता है। तब यह पृथिवी अनादि द्रविणों को जन्म देनेवाली होती है।
भावार्थ
यह पृथिवी सबका भरण करनेवाली है, सब वसुओं का धारण करनेवाली, सबका आधार, सुवर्ण की खानोंवाली यह पृथिवी सब जगत् को बसानेवाली है। यह अन्नादि द्वारा हमारी जाठराग्नि को ईंधन प्राप्त कराती हुई, हमें सब द्रविणों को प्राप्त कराती है।
भाषार्थ
(विश्वम्भरा) सबका भरण-पोषण करने वाली (वसुधानी) सम्पत्तियों को धारण करने वाली, (प्रतिष्ठा) प्रत्येक भौम पदार्थ का स्थिति स्थान रूप, (हिरण्यवक्षा) छाती में हिरण्य धारण करने वाली, (जगतः) जंगम प्राणियों को (निवेशनी) वसाने वाली, (वैश्वानरम्, अग्निम बिभ्रती) सब नर-नारियों की हितकारी अग्नि को धारण करती हुई (इन्द्रऋषभा) श्रेष्ठ सूर्य वाली, (भूमिः) उत्पादिका पृथिवी (नः) हमें (द्रविणे) धन तथा बल में (दधातु) स्थापित करे।
टिप्पणी
[इन्द्र ऋषभा= या, अर्थात् श्रेष्ठ सम्राट वाली (इन्द्रः= इन्द्रश्च सम्राट् (यजु० ८।३७)। द्रवीणम्= "धनं द्रविणमुच्यते, बलं वा" (निरुक्त ८।१।१)]
विषय
पृथिवी सूक्त।
भावार्थ
(विश्वंभरा) समस्त विश्व को भरण पोषण करने वाली यह पृथिवी ही (वसुधानी) समस्त द्रव्यों को धारण करने वाली, सब बहुमूल्य धन सम्पत्तियों का खजाना है। वह सब की (प्रतिष्ठा) प्रतिष्ठा, मान और यश को बढ़ाने वाली, (हिरण्य-वक्षाः) सुवर्ण आदि धातुओं को अपनी कोख में धारण करने वाली और (जगतः) समस्त संसार को अपने ऊपर (निवेशनी) बसाती है। वह (भूमिः) सबको उत्पन्न करने वाली भूमि (वैश्वानरम्) समस्त प्राणियों को और उनके हितकारी (अग्निम्) अग्नि और उसके समान तापकारी राजा को (बिभ्रती) धारण करती हुई (इन्द ऋषभा) इन्द्र अर्थात् राजाको सर्वश्रेष्ठ रूपसे अपने ऊपर शासक रूप से धारण करती हुई या (इन्द्र ऋषभा) इन्द्र अर्थात् सूर्य रूप महावृषभ के समक्ष स्वयं गौ के समान उसके तेज से अपने में नाना चर अचर सृष्टि को उत्पन्न करने हारी यह पृथिवी (नः) हमें (द्रविणे) धन ऐश्वर्य में (दधातु) स्थापित करे और सम्पन्न करे।
टिप्पणी
(प्र० द्वि०) ‘पुरुक्षुद्-धिरण्यवर्णा जगतः प्रतिष्ठा’ इति (च०) ‘द्रविण’ इति मै० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(विश्वम्भरा वसुधानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षाः जगतः-निवेशनी) सब प्राणीमात्र का भरण करने वाली वसु-बसाने वाले धन को धारण करने वाली को अपने ऊपर प्रतिष्ठित करने वाली सुवर्ण आदि धातु हीरा आदि रत्न जिसके वक्ष मॅ-गुहा में है ऐसी स्थावर जङ्गम को आश्रय देने वाली (वैश्वारनम्-अग्निविभ्रती भूमिः) वैश्वानर सब प्राणियों के ले जाने वाली इस पार्थिव अग्नि को धारण करती हुई भूमि (इन्द्र ऋषभः-नः-द्रविणं दधातु) इन्द्र-सूर्य जिसका ऋषभ है सूर्य से उत्पादनशक्ति प्राप्त किये हुए ऐसी पृथिवी हमारे लिए धन को" द्रविणं धन"नाम" (निघं० २।१०) धारण करावें ॥६॥
विशेष
ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )
इंग्लिश (4)
Subject
The Song of Mother Earth
Meaning
Bearer and sustainer of the world, treasure-hold of wealth, shelter and stability of life, golden in form and beauty, shelter home of world community, bearing and sustaining citizens of the world, may mother earth ruled by generous omnipotent Indra give us the light of life and leadership and establish us the in wealth in life.
Translation
All-bearing, good-holding, firm-standing, gold-backed, reposer of moving things, bearing the universal fire, let the earth, whose bull (rsabha) is Indra, set us in property.
Translation
May that earth (the mother land) of ours who shelters all to her bosom, who is the receptacle of wealth, who affords firm standing to all, who keeps gold and other precious metals in her interior, who imparts happiness to all that are active, who supprts men of fire-like vigorous powers in doing good to their fellow-men and who God for her controller, establish us in power and wealth.
Translation
All-bearing, store of treasures, advancer of glory, gold-breasted, barbourer of all that moveth, the sustainer of mankind, and their well-wisher the king, ferocious like fire, the establisher over it of the rule of a sovereign, may this motherland give us great possessions.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(विश्वम्भरा) संज्ञायां भृतॄवृजि०। पा०। ३।२।४६। विश्व+डुभृञ् धारणपोषणयोः−खच्, मुम्। सर्वधात्री (वसुधानी) धनानां धर्त्री (प्रतिष्ठा) दृढाधारभूता (हिरण्यवक्षाः) सुवर्णादीनि वक्षसि मध्ये यस्याः सा (जगतः) जङ्गमस्य गतिमतः पुरुषस्य (निवेशनी) सुखस्य प्रवेशयित्री दात्री (वैश्वानरं) सर्वनरहितम् (बिभ्रती) पोषयन्ती (भूमिः) (अग्निम्) अग्निवत्प्रतापिनं मनुष्यम् (इन्द्रऋषभा) इन्द्रः परमेश्वरो मनुष्यः सूर्यो वा ऋषभः। प्रधानो यस्याः सा (द्रविणे) बले−निघ० २।९। धने−निघ० २।१०। (नः) अस्मान् (दधातु) धरतु ॥
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