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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 10
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
वर्च॑सा॒ मांपि॒तरः॑ सो॒म्यासो॒ अञ्ज॑न्तु दे॒वा मधु॑ना घृ॒तेन॑। चक्षु॑षे मा प्रत॒रंता॒रय॑न्तो ज॒रसे॑ मा ज॒रद॑ष्टिं वर्धन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठवर्च॑सा । माम् । पि॒तर॑: । सो॒म्यास॑: । अञ्ज॑न्तु । दे॒वा: । मधु॑ना । घृ॒तेन॑ । चक्षु॑षे । मा॒ । प्र॒ऽत॒रम् । ता॒रय॑न्त: । ज॒रसे॑ । मा॒ । ज॒रत्ऽअ॑ष्टिम् । व॒र्ध॒न्तु॒ ॥३.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
वर्चसा मांपितरः सोम्यासो अञ्जन्तु देवा मधुना घृतेन। चक्षुषे मा प्रतरंतारयन्तो जरसे मा जरदष्टिं वर्धन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठवर्चसा । माम् । पितर: । सोम्यास: । अञ्जन्तु । देवा: । मधुना । घृतेन । चक्षुषे । मा । प्रऽतरम् । तारयन्त: । जरसे । मा । जरत्ऽअष्टिम् । वर्धन्तु ॥३.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 10
विषय - वर्चसा, मधुना घृतेन
पदार्थ -
१. (माम्) = मुझे (सोम्यास:) = सौम्य स्वभाववाले अथवा सोम [वीर्य] का रक्षण करनेवाले (पितर:) = माता-पिता व आचार्य (वर्चसा) = तेजस्विता से (अजन्तु) = अलंकृत करें। (देवा:) = सब देव मुझे (मधुना) = वाणी के माधुर्य से तथा (घृतेन) = ज्ञान की दीप्ति से अलंकृत करें। २. (चक्षुषे) = दीर्घकाल तक सूर्य के दर्शन के लिए (मा) = मुझे (प्रतरम्) = खूब ही (तारयन्त:) = रोग आदि से व्यावृत्त करते हुए (जरसे) = पूर्ण जरावस्था, अर्थात् आयुष्य के लिए (मा) = मुझे (जरदष्टिं वर्धन्तु) = [जरती जीर्णा अष्टि: अशनं यस्य-सा०] पचे हुए भोजनवाला करके बढ़ाए, अर्थात् अन्त तक मेरी पाचनशक्ति ठीक बनी रहे और मैं स्वस्थ व दीर्घजीवी बन सकूँ।
भावार्थ - मुझे माता-पिता-आचार्य 'वर्चस्वी' बनाएँ । देव मुझे मधुर व ज्ञानदीप्त करें। सब प्राकृतिक शक्तियाँ-सूर्य, चन्द्र आदि देव मुझे स्वस्थ व दीर्घजीवी करें। इनकी अनुकूलता से मेरी पाचनशक्ति ठीक बनी रहे।
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