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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 63
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
यो द॒ध्रेअ॒न्तरि॑क्षे॒ न म॑ह्ना पितॄ॒णां क॒विः प्रम॑तिर्मती॒नाम्। तम॑र्चतवि॒श्वमि॑त्रा ह॒विर्भिः॒ स नो॑ य॒मः प्र॑त॒रं जी॒वसे॑ धात् ॥
स्वर सहित पद पाठय: । द॒ध्रे । अ॒न्तरि॑क्षे । न । म॒ह्ना । पि॒तॄ॒णाम् । क॒वि: । प्रऽम॑ति: । म॒ती॒नाम् । तम् । अ॒र्च॒त॒ । वि॒श्वऽमि॑त्रा: । ह॒वि:ऽभि॑: । स: । न॒: । य॒म: । प्र॒ऽत॒रम् । जी॒वसे॑ । धा॒त् ॥३.६३॥
स्वर रहित मन्त्र
यो दध्रेअन्तरिक्षे न मह्ना पितॄणां कविः प्रमतिर्मतीनाम्। तमर्चतविश्वमित्रा हविर्भिः स नो यमः प्रतरं जीवसे धात् ॥
स्वर रहित पद पाठय: । दध्रे । अन्तरिक्षे । न । मह्ना । पितॄणाम् । कवि: । प्रऽमति: । मतीनाम् । तम् । अर्चत । विश्वऽमित्रा: । हवि:ऽभि: । स: । न: । यम: । प्रऽतरम् । जीवसे । धात् ॥३.६३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 63
विषय - 'मतीनां प्रमतिः' प्रभुः
पदार्थ -
१. (य:) = जो (पितॄणां कविः) = पालनात्मक कर्मों में प्रवृत्त लोगों को उनके कर्तव्यों का उपदेश देनेवाले है [कौति, उक शब्दे] तथा (मतीनाम् प्रमतिः) = ज्ञानियों को प्रकृष्ट ज्ञान प्राप्त करनेवाले हैं, वे प्रभु (नु) = अब [न संप्रत्यर्थे] (मह्ना) = अपनी महिमा से (अन्तरिक्षे) = अन्तरिक्ष में (दधे) = सब लोक लोकान्तरों का धारण कर रहे हैं। हे (विश्वामित्रा:) = सब प्राणियों के प्रति स्नेहवाले लोगो! (तम्) = उस प्रभु को (हविभि:) = दानपूर्वक अदन से-यज्ञशेष के सेवन से (अर्चत) = पूजो। २. ऐसा करने पर (स:) = वे (यम:) = सर्वनियन्ता प्रभु (नः) = हमें (प्रतरं जीवसे) = प्रकृष्टतर जीवन के लिए (धात्) = धारण करें|
भावार्थ - प्रभु ही हमें कर्तव्यों का उपदेश देनेवाले हैं-सब ज्ञान के दाता हैं। वे अपनी महिमा से सब लोकों को अन्तरिक्ष में धारण कर रहे हैं। हम त्यागपूर्वक अदन करते हुए प्रभु का अर्चन करें। वे नियन्ता प्रभु हमें दीर्घजीवन प्राप्त कराएँ।
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